ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ देशभाषा वचनिका समाप्ति
From जैनकोष
( छप्पय )
लिङ्ग मुनी को धारि पाप जो भाव बिगाड़ै ।
वह निन्दाकूं पाय आपको अहित विथारै ॥
ताकूं पूजै थुवै वन्दना करै जु कोई ।
वे भी तैसे होइ साथि दुरगतिकूं लेई ॥
इससे जे साञ्चे मुनि भये भाव शुद्धि में थिर रहे ।
तिनि उपदेश्या मारग लगे ते साञ्चे ज्ञानी कहे ॥१॥
दोहा
अन्तर बाह्य जु शुद्ध जे जिनमुद्राकूं धारि ।
भये सिद्ध आनन्दमय वन्दूं जोग सँवारि ॥२॥
इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित श्री लिंगप्राभृत शास्त्र की जयपुरनिवासी पण्डित जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत देशभाषामयवचनिका का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ॥७॥