ग्रन्थ:शीलपाहुड़ गाथा 35
From जैनकोष
णिद्दड्ढअट्ठकम्मा विसयविरत्त जिदिंदिया धीरा ।
तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्त ॥३५॥
निर्दग्धाष्टकर्माण: विषयविरक्ता जितेन्द्रिया धीरा: ।
तपोविनयशीलसहिता: सिद्धा: सिद्धिं गतिं प्राप्ता: ॥३५॥
आगे कहते हैं कि ऐसे अष्टकर्मों को जिनने दग्ध किये वे सिद्ध हुए हैं -
अर्थ - जिन पुरुषों ने इन्द्रियों को जीत लिया है इसी से विषयों से विरक्त हो गये हैं और धीर हैं परीषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं, तप विनय शील सहित हैं वे अष्टकर्मों को दूर करके सिद्धगति जो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं ।
भावार्थ - यहाँ भी जितेन्द्रिय और विषयविरक्तता ये विशेषण शील ही को प्रधानता से दिखाते हैं ॥३५॥