ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 15
From जैनकोष
189. एवं निर्ज्ञातोत्पत्तिनिमित्तनिर्णीतभेदमिति तद्भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह –
189. इस प्रकार मतिज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्त जान लिये, किन्तु अभी उसके भेदोंका निर्णय नहीं किया अत: उसके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए अगला सूत्र कहते हैं –
अवग्रहेहावायधारणा:।।15।।
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञानके चार भेद हैं।।15।।
190. विषयविषयिसंनिपातसमनन्तरमाद्यं[1] ग्रहणमवग्रह:। विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति। तदनन्तरम[2]र्थग्रहणमवग्रह:। यथा – चक्षुषा शुक्लं रूपमिति ग्रहणमवग्रह:। अवग्रहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमीहा। यथा शुक्लं रूपं किं वलाका [3]पताका वेति। विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवाय:। उत्पतननिप[4]तनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताकेति। अवेतस्य[5] कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा[6]। यथा सैवेयं वलाका पूर्वाह्णे यामहमद्राक्षमिति। [7]एषामवग्रहादीनामुपन्यासक्रम उत्पत्तिक्रमकृत:।
190. विषय और विषयीके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रह कहते हैं। विषय और विषयीका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है उसके पश्चात् जो पदार्थका ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। जैसे चक्षु इन्द्रियके द्वारा ‘यह शुक्ल रूप है’ ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंमें उसके विशेषके जानने की इच्छा ईहा कहलाती है। जैसे, जो शुक्ल रूप देखा है ‘वह क्या वकपंक्ति है’ इस प्रकार विशेष जाननेकी इच्छा या ‘वह क्या पताका है’ इस प्रकार विशेष जाननेकी इच्छा ईहा है। विशेषके निर्णय-द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन और पक्षविक्षेप आदि के द्वारा ‘यह वकपंक्ति ही है, ध्वजा नहीं है’ ऐसा निश्चय होना अवाय है। जानी हुई वस्तु का जिस कारण कालान्तरमें विस्मरण नहीं होता उसे धारणा कहते हैं। जैसे यह वही वकपंक्ति है जिसे प्रात:काल मैंने देखा था ऐसा जानना धारणा है। सूत्रमें इन अवग्रहादिकका उपन्यासक्रम इनके उत्पत्तिक्रमकी अपेक्षा किया है। तात्पर्य यह है कि जिस क्रमसे ये ज्ञान उत्पन्न होते हैं उसी क्रमसे इनका सूत्रमें निर्देश किया है।
विशेषार्थ – इस सूत्रमें मतिज्ञान के चार भेद किये हैं सो ये भेद मतिज्ञानकी उपयोगरूप अवस्थाकी प्रधानतासे किये गये हैं। इससे इसका क्षयोपशम भी इतने प्रकारका मान लिया गया है। पदार्थको जानते समय किस क्रमसे वह उसे जानता है यह इन भेदों-द्वारा बतलाया गया है यह इस कथनका तात्पर्य है। भेदके स्वरूपका निर्देश टीकामें किया ही है। विशेष वक्तव्य इतना है कि यह ज्ञान किसी विषयको जानते समय उसीको जानता है। एक विषयके निमित्तसे इसका दूसरे विषयमें प्रवेश नहीं होने पाता। टीकामें अवग्रह आदिके जो दृष्टान्त दिये हैं सो उनका वर्गीकरण इसी दृष्टिसे किया गया है।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ –माद्य ग्रह—मु.।
- ↑ –मर्थस्य ग्रह—मु.।
- ↑ पताकेति—मु.।
- ↑ उत्पतनपक्ष—आ., दि. 1, दि.2।
- ↑ अथैतस्य—मु.।
- ↑ ‘तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ।‘ –वि. भा. गा. 291।
- ↑ ईहिज्जइ नागहियं नज्जइ नाणीहियं न यावायं। धारिज्जइ जं वत्थुं तेण कमोऽवग्गहाईओ।।‘ –वि. भा. गा. 296।