ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 21
From जैनकोष
212. व्याख्यातं परोक्षम्। प्रत्यक्षमिदानीं वक्तव्यम्। तद् द्वेधा—देशप्रत्यक्षं [1]सर्वप्रत्यक्षं च। देशप्रत्यक्षमवधिमन:पर्ययज्ञाने। सर्वप्रत्यक्षं केवलम्। यद्येवमिदमेव तावदवधिज्ञानं त्रि:प्रकारस्य प्रत्यक्षस्याद्यं व्याक्रियतामित्यत्रोच्यते—द्विविधोऽर्भवप्रत्यय: क्षयोपशमनिमित्तश्चेति। तत्र भवप्रत्यय उच्यते—
212. परोक्ष प्रमाणका व्याख्यान किया। अब प्रत्यक्ष प्रमाणका व्याख्यान करना है। वह दो प्रकारका है – देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष। देशप्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है। यदि ऐसा है तो तीन प्रकारके प्रत्यक्षके आदिमें कहे गये अवधिज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, इसलिए कहते हैं – अवधिज्ञान दो प्रकारका है – भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक। उनमें-से सर्वप्रथम भवप्रत्यय अवधिज्ञानका अगले सूत्र द्वारा कथन करते हैं –
भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।।21।।
भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है।।21।।
213. भव इत्युच्यते। को भव:। आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मन: पर्यायो भव:। प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम्। भव: प्रत्ययोस्य भवप्रत्ययोऽविधर्देवनारकाणां वेदितव्य:। यद्येवं तत्र क्षयोपशमनिमित्तत्वं न प्राप्नोति ? नैष दोष:; तदाश्रयात्तत्सिद्धे:। भवं प्रतीत्य क्षयोपशम: संजायत[2] इति कृत्वा भव: प्रधानकारणमित्युपदिश्यते। यथा पतत्रिणो गमनमाकाशे भवनिमित्तम्, न शिक्षागुणविशेष: तथा देवनारकाणां व्रतनियमाद्यभावेऽपि जायत ‘इति भवप्रत्यय:’ [3]इत्युच्यते। इतरथा हि भव: साधारण इति कृत्वा सर्वेषामविशेष: स्यात्। इष्यते च तत्रावधे: प्रकर्षाप्रकर्षवृत्ति:। ‘देवनारकाणाम्’ इत्यविशेषाभिधानेऽपि सम्यग्दृष्टीनामेव ग्रहणम्। कुत: ? अवधिग्रहणात्। मिथ्यादृष्टीनां च विभङ्ग इत्युच्यते। प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिश्च आगमतो विज्ञेया।
213. भवका स्वरूप कहते हैं। शंका – भव किसे कहते हैं ? समाधान – आयु नामकर्मके उदयका निमित्त पाकर जो जीवकी पर्याय होती हैं उसे भव कहते हैं। प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम है। जिस अवधिज्ञानके होनेमें भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। वह देव और नारकियोंके जानना चाहिए। शंका – यदि ऐसा है तो इनके अवधिज्ञानके होनेमें क्षयोपशमकी निमित्तता नहीं बनती ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भवके आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है। जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करना भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणकी अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भवनिमित्तक कहते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारणरूपसे पाया जाता है, अत: सबके अवधिज्ञान के होनमें विशेषता नहीं रहेगी। परन्तु वहाँपर अवधिज्ञान न्यूनाधिक कहा ही जाता है, इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि वहाँपर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशमसे ही है पर वह क्षयोपशम भ्ज्ञवके निमित्तसे प्राप्त होता है अत: उसे ‘भवप्रत्यय’ कहते हैं। सूत्रमें ‘देवनारकाणाम्’ ऐसा सामान्य वचन होने पर भी इससे सम्यग्दृष्टियोंका ही ग्रहण होता है, क्योंकि सूत्रमें ‘अवधि’ पदका ग्रहण किया है। मिथ्यादृष्टियोंका वह विभंगज्ञान कहलाता है। अवधिज्ञान देव और नारकियोंमें न्यूनाधिक किसके कितना पाया जाता है यह आगमसे जान लेना चाहिए।
विशेषार्थ – अवधिज्ञान वह मर्यादित ज्ञान है जो इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना मूर्तिक पदार्थोंको स्पष्ट जानता है। मन:पर्ययज्ञानका भी यही स्वरूप कहा जाता है पर इससे मन:पर्ययज्ञानमें मौलिक भेद है। वह मनकी पर्यायों-द्वारा ही मूर्तिक पदार्थोंको जानता है, सीधे तौरसे मूर्तिक पदार्थोंको नहीं जानता। यह अवधिज्ञान देव और नारकियोंके उस पर्यायके प्राप्त होने पर अनायास होता है। इसके लिए उन्हें प्रयत्न विशेष नहीं करना पड़ता। तथा तिर्यंचों और मनुष्योंके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे होता है। इससे इसके भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक ये दो भेद किये गये हैं। यहाँ भवप्रत्यय अवधिज्ञान मुख्यत: देव और नारकियोंके बतलाया है, पर तीर्थंकर आदिके भी इस अवधिज्ञानकी प्राप्ति देखी जाती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। देव और नारकियोंमें भी उन्हींके भवके प्रथम समयसे अवधिज्ञान होता है जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। मिथ्यादृष्टियोंके इसकी उत्पत्ति पर्याप्त होनेपर ही होती है और उसका नाम विभंगज्ञान है। इस ज्ञानकी विशेष जानकारी जीवकाण्ड, धवला वेदनाखण्ड आदिसे करनी चाहिए।