ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 30
From जैनकोष
231. आह विषयनिबन्धोऽवधृतो मत्यादीनाम्। इदं तू न निर्ज्ञातमेकस्मिन्नात्मनि स्वनिमित्तसंनिधानोपजनितवृत्तीनि ज्ञानानि यौगपद्येन कति भवन्तीत्युच्यते-
231. मत्यादिकके विषयसम्बन्धका निश्चय किया, किन्तु यह न जान सके कि एक आत्मामें एक साथ अपने-अपने निमित्तोंके मिलनेपर कितने ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य:।।30।।
एक आत्मामें एक साथ एकसे लेकर चार ज्ञान तक भजनासे होते हैं।।30।।
232. एकशब्द: संख्यावाची, आदिशब्दोऽवयववचन:। एक आदिर्येषां तानि इमान्येकादीनि। भाज्यानि विभक्तव्यानि। यौगपद्येनैकस्मिन्नात्मनि। आ कुत: ? आ चतुर्भ्य:। तद्यथा एकं तावत्केवलज्ञानं, न तेन सहान्यानि क्षायोपशमिकानि युगपदवतिष्ठन्ते। द्वे मतिश्रुते। त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतमन:पर्ययज्ञानानि वा। चत्वारि मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानानि। न पञ्च सन्ति, केवलस्यासहायत्वात्।
232. ‘एक’ शब्द संख्यावाची है और ‘आदि’ शब्द अवयववाची है। जिनका आदि एक है वे एकादि कहलाते हैं। ‘भाज्यानि’ का अर्थ ‘विभाग करना चाहिए’ होता है। तात्पर्य यह है कि एक आत्मामें एक साथ एक ज्ञानसे लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यथा – यदि एक ज्ञान होता है तो केवलज्ञान होता है। उसके साथ दूसरे क्षायोपशमिक ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते। दो होते हैं तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। तीन होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं। तथा चार होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं। एक साथ पाँच ज्ञान नहीं होते, क्योंकि केवलज्ञान असहाय है।
विशेषार्थ – यहाँ एक साथ एक आत्मामें कमसे कम कितने और अधिकसे अधिक कितने ज्ञान हो सकते हैं, इस बातका निर्देश किया है। यह तो स्पष्ट है कि ज्ञान एक है, अत: उसकी पर्याय भी एक कालमें एक ही हो सकती है। फिर भी यहाँ एक आत्मामें एक साथ कई ज्ञान होनेका निर्देश किया है सो उसका कारण अन्य है। बात यह है कि जब ज्ञान निवारण होता है तब तो उसमें किसी प्रकारका भेद नहीं किया जा सकता है, अतएव ऐसी अवस्थामें एक केवलज्ञान पर्यायका ही प्रकाश माना गया है। किन्तु संसार अवस्थामें जब ज्ञान सावरण होता है तब निमित्त भेदसे उसी ज्ञानको कई भागोमें विभक्त कर दिया जाता है। सावरण अवस्थामें जितने भी ज्ञान प्रकट होते हैं वे सब क्षायोपशमिक ही होते हैं और क्षयोपशम एक साथ कई प्रकारका हो सकता है, इसलिए सावरण अवस्थामें दो, तीन या चार ज्ञानकी सत्ता युगपत् मानी गयी है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि जब दो, तीन या चार ज्ञानकी सत्ता रहती है तब वे सब ज्ञान उपयोगरूप हो सकते हैं। उपयोग तो एक कालमें एक ही ज्ञानका होता है, अन्य ज्ञान उस समय लब्धिरूपसे रहते हैं। आशय यह है कि ऐसा कोई क्षण नहीं जब ज्ञानकी कोई उपयोगात्मक पर्याय प्रकट न हो। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये सब ज्ञानकी पर्यायें हैं, इसलिए इनमेंसे एक कालमें उपयोगात्मक एक ही पर्यायका उदय रहता है। निरावरण अवस्थामें मात्र केवलज्ञान पर्यायका उदय रहता है और सावरण अवस्थामें प्रारम्भकी चार पर्यायोंमेंसे एक कालमें किसी एक पर्यायका उदय रहता है। फिर भी तब युगपत् दो, तीन और चार ज्ञानोंकी सत्ताके माननेका कारण एकमात्र निमित्तभेद है। जब मति और श्रुत इन दो पर्यायोंके प्रकट होनेका क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब युगपत् दो ज्ञानोंका सद्भाव कहा जाता है। जब मति, श्रुत और अवधि या मति, श्रुत और मन:पर्यय इन तीन पर्यायोंके प्रकट होनेका क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब युगपत् तीन ज्ञानोंका सद्भाव कहा जाता है और जब मति आदि चार पर्यायोंके प्रकट होनेका क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब युगपत् चार ज्ञानोंका सद्भाव माना जाता है। यही कारण है कि प्रकृत सूत्रमें एक साथ एक आत्माके एक, दो, तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं यह कहा है।