ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 52
From जैनकोष
362. अथेतरे कियल्लिङ्गा इत्यत आह –
362. इनसे अतिरिक्त शेष जीव कितने लिंग वाले होते हैं, इस बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
शेषास्त्रिवेदा:।।52।।
शेषके सब जीव तीन वेदवाले होते हैं।।52।।
363. त्रयो वेदा येषां ते त्रिवेदा:। के पुनस्ते वेदा: ? स्त्रीत्वं पुस्त्वं नुपंसकत्वमिति। कथं तेषां सिद्धि: ? वेद्यत इति वेद:। लिंगमित्यर्थ:। तद् द्विविधं द्रव्यलिंगं भावलिंगं चेति। द्रव्यलिंगं योनिमेहनादि नामकर्मो-दयनिर्वर्तितम्। नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिंगम्। स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्री। पुंवेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान्[1]। नपुंसकवेदोदयात्ततदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम्। रूढिशब्दाश्चैते। रूढिषु च क्रिया व्युत्पत्त्यर्थं च। यथा गच्छतीति गौरिति। इतरथा हि गर्भधारणादिक्रियाप्राधान्ये बालवृद्धानां तिर्यङ्मनुष्याणां देवानां कर्माणकाययोगस्थानां च तदभावात्स्त्रीत्वादिव्यपदेशो न स्यात्। त एते त्रयो वेदा: शेषाणां गर्भजानां भवन्ति।
363. जिनके तीन वेद होते हैं वे तीन वेद वाले कहलाते हैं। शंका – वे तीन वेद कौन हैं ? समाधान – स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। शंका – इनकी सिद्धि कैसे होती है ? समाधान – जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं। इसी का दूसरा नाम लिंग है। इसके दो भेद हैं – द्रव्यलिंग और भावलिंग। जो योनि मेहन आदि नामकर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषाय के उदय से प्राप्त होती है वह भाव लिंग है। स्त्रीवेद के उदय से जिसमें गर्भ रहता है वह स्त्री है। पुंवेद के उदय से जो अपत्य को जनता है वह पुरुष है और नपुंसकवेद के उदय से जो उक्त दोनों प्रकार की शक्ति से रहित है वह नपुंसक है। वास्तव में ये तीनों रौढिक शब्द हैं और रूढि में क्रिया व्युत्पत्ति के लिए ही होती हे। यथा जो गमन करती है वह गाय है। यदि ऐसा न माना जाय और इसका अर्थ गर्भधारण आदि क्रियाप्रधान लिया जाय तो बालक और वृद्धों के, तिर्यंच और मनुष्यों के, देवों के तथा कार्मणकाययोग में स्थित जीवों के गर्भधारण आदि क्रिया का अभाव होने से स्त्री आदि संज्ञा नहीं बन सकती है। ये तीनों वेद शेष जीवों के अर्थात् गर्भजों के होते हैं।
विशेषार्थ – इसी अध्याय में औदयिक भावों का निर्देश करते समय उनमें तीन लिंग भी गिनाये हैं। ये तीनों लिंग वेदके पर्यायवाची हैं जो वेद-नोकषाय के उदयसे होते हैं। यहाँ किन जीवों के कौन लिंग होता है इसका विचार हो रहा है। इसी प्रसंग से आचार्य पूज्यपाद ने लिंग के दो भेद बतलाये हैं – द्रव्यलिंग और भावलिंग। प्रश्न यह है कि लिंग के ये दो भेद सूत्रों से फलित होते हें या विशेष जानकारी के लिए मात्र टीकाकार ने इनका निर्देश किया हे। उत्तर स्पष्ट है कि मूल सूत्रों में मात्र वेद नोकषाय के उदय से होने वाले वेदों का ही निर्देश किया है जैसा कि इसी अध्याय के 6वें सूत्र से ज्ञात होता है।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ पुमान्। तदुभय- आ., दि. 1 – दि. 2।