ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 53
From जैनकोष
364. य इमे जन्मयोनिशरीरलिंगसंबन्धाहितविशेषा: प्राणिनो निर्दिश्यन्ते देवादयो विचित्रधर्मा-धर्मवशीकृताश्चतसृषु गतिषु शरीराणि धारयन्तस्ते किं यथाकालमुपभुक्तायुषो मूर्त्यन्तराण्यास्कन्दन्ति उतायथाकालमपीत्यत आह –
364. जो ये देवादिक प्राणी जन्म, योनि, शरीर और लिंग के सम्बन्ध से अनेक प्रकार के बतलाये हैं वे विचित्र पुण्य और पाप के वशीभूत होकर चारों गतियों में शरीर को धारण करते हुए यथाकाल आयु को भोगकर अन्य शरीर को धारण करते हैं या आयु को पूरा न करके भी शरीर को धारण करते हैं ? अब इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
औपपादिकचरमोत्त्मदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुष:।।53।।
उपपादजन्मवाले, चरमोत्तमदेहवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीव अनपवर्त्य अन्य आयु वाले होते हैं।।53।।
365. औपपादिका व्याख्याता देवनारका इति। चरमशब्दोऽन्त्यवाची। उत्तम उत्कृष्ट:। चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहा:। [1]परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणार्हा [2]इत्यर्थ:। असंख्येयमतीतसंख्यान-मुपमाप्रमाणेन पल्यादिना गम्यमायुर्येषां त इमे असंख्येयवर्षायुषस्तिर्यङ्मनुष्या उत्तरकुर्वादिषु प्रसूता:। औपपादिकाश्च चरमोत्तमदेहाश्च असंख्येयवर्षायुषश्च औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुष:। बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादे: सति संनिधाने ह्रस्वं भवतीत्य पवर्त्यंम्। अपवर्त्यमायुर्येषां त इमे अपवर्त्यायुष:। न अपवर्त्यायुष: अनपवर्त्यायुष:। न ह्येषामौपपादिकादीनां बाह्यनिमित्तवशादा-रयुरपवर्त्यते, इत्ययं नियम:। इतरेषामनियम:। चरमस्य देहस्योत्कृष्टत्वप्रदर्शनार्थमुत्तमग्रहणं नार्थान्तरविशेषोऽस्ति। ‘चरमदेहा’ इति वा पाठ:[3]।
365. उपपाद जन्म वाले देव और नारकी हैं - यह व्याख्यान कर आये। चरम शब्द अन्त्यवाची है। उत्तम शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम होकर उत्तम है वे चरमोत्तम देह वाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव से मोक्ष को प्राप्त होने वाले जीव चरमोत्तम देह वाले कहलाते हैं। असंख्येय परिमाण विशेष है जो संख्यात से परे है। तात्पर्य यह है कि पल्य आदि उपमा प्रमाण के द्वारा जिनकी आयु जानी जाती है वे उत्तरकुरु आदि में उत्पन्न हुए तिर्यंच और मनुष्य असंख्यात वर्ष की आयु वाले कहलाते है। उपघात के निमित्त विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्तों के मिलने पर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आयु कहलाती है। इस प्रकार जिनकी आयु घट जाती है वे अपवर्त्य आयु वाले कहलाते हैं। इन औपपादिक आदि जीवों की आयु बाह्य निमित्त से नहीं घटती यह नियम है तथा इनसे अतिरिक्त शेष जीवों का ऐसा कोई नियम नहीं है। सूत्र में जो उत्तम विशेषण दिया है वह चरम शरीरके उत्कृष्टपने को दिखलाने के लिए दिया है। यहाँ इसका और कोई विशेष अर्थ नहीं है। अथवा ‘चरमोत्तमतदेहा’ पाठ के स्थान में ‘चरमदेहा’ यह पाठ भी मिलता है।
विशेषार्थ – भुज्यमान आयु का उत्कर्षण नहीं होता, केवल उदीरणा होकर आयु घट सकती है, इसलिए प्रश्न होता है कि क्या सब संसारी जीवों की आयु का ह्रास होता है या इसका भी कोई अपवाद है। इसी प्रश्न के उत्तर स्वरूप प्रकृत सूत्र की रचना हुई है। इसमें बतलाया है कि उपपाद जन्म वाले देव और नारकी, तद्भव मोक्षगामी मनुष्य और असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य इनकी भुज्यमान आयु का ह्रास नहीं होता। इन्हें जो आयु प्राप्त होती है उसका पूरा भोग होकर भी उस पर्याय का अन्तर होता है। यह विशेष नियम करने का कारण यह है कि कर्मशास्त्र के अनुसार निकाचना, निधत्ति और उपशमकरण को प्राप्त कर्म को छोड़कर अन्य कोई भी अधिक स्थिति वाला कर्म उभयरूप कारणविशेष के मिलने पर अल्पकाल में भोगा जा सकता है। भुज्यमान आयु पर भी यह नियम लागू होता है, इसलिए इस सूत्र द्वारा यह व्यवस्था दी गयी है कि उक्त जीवों की भुज्यमान आयु पर यह नियम लागू नहीं होता। आशय यह है कि इन जीवों के भुज्यमान आयु के प्रारम्भ होने के प्रथम समय में आयु के जितने निषेक होते हैं वे क्रम से एक-एक निषेक उदय में आकर ही निर्जरा को प्राप्त होते हैं। विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्त के बल से उनका घात नहीं होता। पर इसका अर्थ यह नहीं कि इन जीवों के आयुकर्म की उदीरणा ही न होती होगी। इनके उदीरणा का होना तो सम्भव है पर निषेक स्थितिघात न होकर ही यह उदीरणा होती है। स्थितिघात न होनेसे हमारा अभिप्राय है कि इनके पूरे निषेकों का उदीरणा-द्वारा क्षय नहीं होता। सूत्र में तद्भव मोक्षगामी के लिए ‘चरमोत्तमदेह’ पाठ आया है। सर्वार्थसिद्धि टीका में इसकी व्याख्या करते हुए चरम शरीर को ही उत्तम बतलाया गया है, किन्तु तत्त्वार्थराजवार्तिक में पहले तो चरमदेह और उत्तमदेह ऐसा अलग-अलग अर्थ किया गया है, किन्तु बाद में उत्तम देह वाले चक्रधर आदि के शरीर को अपवर्त्य आयु वाला बतलाकर उत्तम शब्द को चरमदेह का ही विशेषण मान लिया है। एक बात स्पष्ट है कि प्रारम्भ से ही उत्तम पद पर विवाद रहा है। तभी तो सर्वार्थसिद्धि में ‘चरमदेह’ इस प्रकार पाठान्तर की सूचना की गयी है और यह पाठान्तर उन्हें पूर्व परम्परा से प्राप्त था।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ --देहा:। विपरीत- मु.।
- ↑ इत्यर्थ:। अतीतसंख्यान- ता. ना.।
- ↑ पाठ:।।2।। जीवस्वभावलक्षणसाधनविषयस्वरूपभेदाश्च। गतिजन्मयोनिदेहलिंगानपवर्तितायुष्कभेदाश्चाध्यायेऽस्मिन्निरूपिता भवन्तीति संबन्ध:।। इति तत्त्वा- मु.। पाठ:।।2।। जीवस्वभावलक्षणसाधनविषयस्वरूपभेदाश्च। गतिजन्मयोनिदेहलिंगानपवर्त्यायुर्भिदास्तत्र।। इति तत्त्वा- ना.।