ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - मंगलाचरण
From जैनकोष
श्रीपूज्यपादाचार्यविरचिता (श्री पूज्यपादाचार्य द्वारा विरचित)
सर्वार्थसिद्धि:
प्रथमोऽध्याय:
(पहला अध्याय)
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।1।।
जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेदनेवाले हैं और विश्वतत्त्वों के ज्ञाता हैं, उनकी मैं उन समान गुणों की प्राप्ति के लिए द्रव्य और भाव उभयरूप से वन्दना करता हूँ।।1।।
1. कश्चिद् भव्य: प्रत्यासन्ननिष्ठ: प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सुर्विविक्ते परमरम्ये भव्यसत्त्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषन्मध्ये संनिषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनैककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म। भगवन्, किं नु खलु आत्मने हितं स्यादिति ? स आह मोक्ष इति। स एव पुन: प्रत्याह – किंस्वरूपोऽसौ मोक्ष: कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति ? आचार्य आह – निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति।
1. अपने हित को चाहने वाला कोई एक बुद्धिमान् निकट भव्य था। वह अत्यन्त रमणीय भव्य जीवोंके विश्रामके योग्य किसी एकान्त आश्रममें गया। वहाँ उसने मुनियोंकी सभामें बैठे हुए वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीरकी आकृतिसे मानो मूर्तिमान् मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाले, युक्ति तथा आगममें कुशल, दूसरे जीवोंके हितका मुख्यरूपसे प्रतिपादन करनेवाले और आर्य पुरुषोंके द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्यके पास जाकर विनयके साथ पूछा – ‘‘भगवन् ! आत्माका हित क्या है ?’’ आचार्यने उत्तर दिया ‘‘आत्माका हित मोक्ष है।’’ भव्यने फिर पूछा – ‘‘मोक्षका क्या स्वरूप है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? ’’ आचार्यने कहा कि – ‘‘जब आत्मा भावकर्म द्रव्यकर्ममल कलंक और शरीरको अपने से सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं।’’
2. तस्यात्यन्तपरोक्षत्वाच्छद्मस्था: प्रवादिनस्तीर्थकरंमन्यास्तस्य स्वरूपमस्पृशन्तीभिर्वाग्भिर्युक्त्याभासनिबन्धनाभिरन्यथैव परिकल्पयन्ति ‘‘चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् , तच्च ज्ञेयाकारपरिच्छेदपराङ्मुखम् ’’ इति। तत्सदप्यसदेव निराकारत्वादिति। ‘‘ बुद्ध्यादिवैशेषिकगुणोच्छेद: पुरुषस्य मोक्ष:’’ इति । तदपि परिकल्पनमसदेव, विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात्। ‘‘प्रदीपनिर्वाण कल्पमात्मनिर्वाणम्’’ इति च। तस्य खरविषाणकल्पना तैरेवाहत्य निरूपिता। इत्येवमादि। तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्याम:।
2. वह (मोक्ष) अत्यन्त परोक्ष है, अत: अपनेको तीर्थंकर माननेवाले अल्पज्ञानी प्रवादी लोग मोक्षके स्वरूपको स्पर्श नहीं करनेवाले और असत्य युक्तिरूप वचनोंके द्वारा उसका स्वरूप सर्वथा अन्य प्रकारसे बतलाते हैं। यथा- (1.सांख्य) पुरुषका स्वरूप चैतन्य है जो ज्ञेयके ज्ञानसे रहित है। किन्तु ऐसा चैतन्य सत्स्वरूप होकर भी असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका स्वपरव्यवसायलक्षण कोई आकार अर्थात् स्वरूप नहीं प्राप्त होता। (2. वैशेषिक) बुद्धि आदि विशेष गुणोंका नाश हो जाना आत्माका मोक्ष है। किन्तु यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षणसे रहित वस्तु नहीं होती। (3. बौद्ध) जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्माकी सन्तानका विच्छेद होना ही मोक्ष है। किन्तु जैसे गदहेके सींग केवल कल्पनाके विषय होते हैं स्वरूपसत् नहीं होते वैसे ही इस प्रकारका मोक्ष भी केवल कल्पनाका विषय है स्वरूपसत् नहीं। यह बात स्वयं उन्हींके कथनसे सिद्ध हो जाती है। इत्यादि। इस मोक्षका निर्दोष स्वरूप आगे(दसवें अध्याय के सूत्र 2 में) कहेंगे।
3. तत्प्राप्त्युपायं प्रत्यपि ते विसंवदन्ते – ‘‘ज्ञानादेव चारित्रनिरपेक्षात्तत्प्राप्ति:, श्रद्धानमात्रादेव वा, ज्ञाननिरपेक्षाच्चारित्रमात्रादेव’’ इति च। व्याध्यभिभूतस्य तद्विनिवृत्त्युपायभूतभेषजविषयव्यस्तज्ञानादिसाधनत्वाभाववद् व्यस्तं ज्ञानादिर्मोक्षप्राप्त्युपायो न भवति।
3. इसी प्रकार वे प्रवादी लोग उसकी प्राप्तिके विषयमें भी विवाद करते हैं। कोई मानते हैं कि (1) चारित्रनिरपेक्ष ज्ञानसे ही मोक्षकी प्राप्ति़ होती है। दूसरे मानते हैं कि (2) केवल श्रद्धानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। तथा अन्य मानते हैं कि (3) ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। परन्तु जिस प्रकार रोगके दूर करने की उपायभूत दवाईका मात्र ज्ञान, श्रद्धान या आचरण रोगीके रोगके दूर करनेका उपाय नहीं है उसी प्रकार अलग-अलग ज्ञान आदि मोक्षकी प्राप्तिके उपाय नहीं हैं।
विशेषार्थ – अब तक जो कुछ बतलाया है यह तत्त्वार्थसूत्र और उसके प्रथम सूत्रकी उत्थानिका है। इसमें सर्व प्रथम जिस भव्यके निमित्तसे इसकी रचना हुई उसका निर्देश किया है। आशय यह है कि कोई एक भव्य आत्माके हितकी खोजमें किसी एकान्त रम्य आश्रममें गया और वहाँ मुनियोंकी सभामें बैठे हुए निर्ग्रन्थाचार्यसे प्रश्न किया। इसपरसे इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है। तत्त्वार्थवार्तिकके प्रारम्भमें जो उत्थानिका दी है उससे भी इस बातकी पुष्टि होती है। किन्तु वहाँ प्रथम सूत्रका निर्देश करनेके बाद एक दूसरे अभिप्रायका भी उल्लेख किया है। वहाँ बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके सम्बन्धमें अन्य लोग इस प्रकारसे व्याख्यान करते हैं कि ‘इधर पुरुषोंकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है, अत: सिद्धान्तकी प्रक्रिया को प्रकट करनेके लिए मोक्षमार्गके निर्देशके सम्बन्धसे आनुपूर्वी क्रमसे शास्त्रकी रचनाका प्रारम्भ करते हुए ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ यह सूत्र कहा है। यहाँ शिष्य और आचार्यका सम्बन्ध विवक्षित नहीं है। किन्तु आचार्यकी इच्छा संसारसागरमें निमग्न प्राणियोंके उद्धार करनेकी हुई। परन्तु मोक्षमार्गके उपदेशके बिना उनके हितका उपदेश नहीं दिया जा सकता; अत: मोक्षमार्गके व्याख्यानकी इच्छासे यह शास्त्र रचा गया। मालूम होता है कि इस उल्लेख द्वारा तत्त्वार्थवार्तिककारने तत्त्वार्थाधिगम-भाष्यकी उत्थानिकाका निर्देश किया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें इसी आशयकी उत्थानिका पायी जाती है। श्रुतसागरसूरिने भी अपनी श्रुतसागरीमें यही बतलाया है कि किसी शिष्यके प्रश्नके अनुरोधसे आचार्यवर्यने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की। उसमें शिष्यका नाम द्वयाक दिया है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिका यह अभिप्राय मुख्य है कि शिष्यके प्रश्नके निमित्तसे तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है। आगे उत्थानिकामें मोक्षकी चर्चा आ जाने से थोड़ेमें मोक्षतत्त्वकी मीमांसा की गयी है। नियम यह है कि कर्म के निमित्तसे होनेवाले कार्यों में आत्माकी एकत्व तथा इष्टानिष्ट बुद्धि होनेसे संसार होता है। अत: कर्म, भावकर्म और नोकर्मके आत्मासे अलग हो जाने पर जो आत्माकी अपने ज्ञानादि गुण और आत्मोत्थ अव्याबाध सुखरूप स्वाभाविक अवस्था प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं यह सिद्ध होता है। किन्तु अन्य प्रवादी लोग इस प्रकारसे मोक्षतत्त्वका विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं। पूज्यपाद स्वामीने तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्यके मुखसे ऐसे तीन उदाहरण उपस्थित कराये हैं जिनके द्वारा मोक्षतत्त्वका गलत तरीके से स्वरूप उपस्थित किया गया है। इस प्रसंग से सर्व प्रथम सांख्यमतकी मीमांसा की गयी है। यद्यपि सांख्योंने आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकारके दु:खोंका सदाके लिए दूर हो जाना मोक्ष माना है, तथापि वे आत्माको चैतन्य स्वरूप मानते हुए भी उसे ज्ञानरहित मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञानधर्म प्रकृतिका है तो भी संसर्गसे पुरुष अपनेको ज्ञानवान् अनुभव करता है और प्रकृति अपनेको चेतन अनुभव करती है। इसीसे यहाँ सांख्योंके मोक्ष तत्त्वकी आलोचना न करके पुरुष तत्त्वकी आलोचना की गयी है और उसे असत् बतलाया गया है। दूसरा मत वैशेषिकों का है। वैशेषिकोंने ज्ञानादि विशेष गुणोंको समवायसम्बन्ध से यद्यपि आत्मामें स्वीकार किया है तथापि वे आत्मासे उनके उच्छेद हो जानेको उसकी मुक्ति मानते हैं। उनके यहाँ बतलाया है कि बुद्धि आदि विशेष गुणोंकी उत्पत्ति आत्मा और मनके संयोगरूप असमवायी कारणसे होती है। मोक्ष अवस्थामें चूंकि आत्मा और मनका संयोग नहीं रहता अत: वहाँ विशेष गुणोंका सर्वथा अभाव हो जाता है। उनके यहाँ सभी व्यापक द्रव्योंके विशेष गुण क्षणिक माने गये हैं, इसलिए वे मोक्ष में ज्ञानादि विशेष गुणोंका अभाव होनेमें आपत्ति नहीं समझते। अब यदि राग-द्वेष आदिकी तरह मुक्तावस्थामें आत्माको ज्ञानादि गुणोंसे भी रहित मान लिया जाय तो आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं ठहरता, क्योंकि जिसका किसी भी प्रकारका विशेष लक्षण नहीं पाया जाता वह वस्तु ही नहीं हो सकती । यही कारण है कि इनकी मान्यताको भी असत् बतलाया गया है। तीसरा मत बौद्धोंका है। बौद्धोंके यहाँ सोपधिशेष और निरुपधिशेष ये दो प्रकारके निर्वाण माने गये हैं। सोपधिशेष निर्वाणमें केवल अविद्या, तृष्णा आदिरूप आस्रवोंका ही नाश होता है, शुद्ध चित्सन्तति शेष रह जाती है। किन्तु निरुपधिशेष निर्वाणमें चित्सन्तति भी नष्ट हो जाती है। यहाँ मोक्षके इस दूसरे भेदको ध्यानमें रखकर उसकी मीमांसा की गयी है। इस सम्बन्धमें बौद्धोंका कहना है कि दीपक के बुझा देनेपर जिस प्रकार वह ऊपर-नीचे दायें-बायें आगे-पीछे कहीं नहीं जाता किन्तु वहीं शान्त हो जाता है उसी प्रकार आत्माकी सन्तानका अन्त हो जाना ही उसका मोक्ष है। इसके बाद आत्माकी सन्तान नहीं चलती, वह वहीं शान्त हो जाती है। बौद्धोंके इस तत्त्वकी मीमांसा करते हुए आचार्य ने बतलाया है कि उनकी यह कल्पना असत् ही है। इस प्रकार थोड़ेमें मोक्ष तत्त्वकी मीमांसा करके आचार्यने अन्तमें उसके कारण तत्त्वकी मीमांसा की है। इस सिलसिलेमें केवल इतना ही लिखना है कि अधिकतर विविध मत वाले लोग ज्ञान, दर्शन और चारित्र इनमें से एक-एकके द्वारा ही मोक्षकी सिद्धि मानते हैं। क्या सांख्य, क्या बौद्ध और क्या वैशेषिक इन सबने तत्त्वज्ञान या विद्याको ही मुक्तिका मुख्य साधन माना है। भक्तिमार्ग या नामस्मरण यह श्रद्धाका प्रकारान्तर है। एक ऐसा भी प्रबल दल है जो केवल नामस्मरणको ही संसारसे तरनेका प्रधान साधन मानता है। यह दल इधर बहुत अधिक जोर पकड़ता जा रहा है। अपने इष्ट का कीर्तन करना इसका प्रकारान्तर है। किन्तु जिस प्रकार रोगका निवारण केवल दवाईके दर्शन आदि एक-एक कारणसे नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोक्षकी प्राप्ति भी एक-एकके द्वारा नहीं हो सकती।