ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 16
From जैनकोष
अथानंतर श्री शीतलनाथ भगवान् के पश्चात् जब कालक्रम से नौ तीर्थंकर भरत क्षेत्र में जगत् के जीवों के हितार्थ धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति कर मोक्ष चले गये और बीसवें तीर्थंकर स्वर्ग से अव तार लेने के सन्मुख हुए तब इंद्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन राजा सुमित्र के घर को रत्नों की उत्कृष्ट धारा से भरने लगा । कदाचित् कोमल शय्या पर शयन करने वाली रानी पद्मावती ने रात्रि के अंतिम समय 1 गज, 2 वृषभ, 3 सिंह, 4 लक्ष्मी, 5 पुष्पमाला, 6 चंद्रमा, 7 बालसूर्य, 8 मत्स्य, 9 कलश, 10 कमलसरोवर, 11 समुद्र, 12 सिंहासन, 13 देवविमान, 14 नागेंद्रभवन, 15 रत्न राशि और 16 अग्नि ये सोलह स्वप्न देखे ॥1-3॥ उपमारहित एवं दिव्य प्रभाव को धारण करने वाली निन्यानवे दिक्कुमारी देवियों के द्वारा सेवित जिनमाता पद्मावती जब जागकर फूलों की शय्या पर बैठी तब ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आकाश में ताराओं से घिरी हुई चंद्रमा की लेखा ही हो ॥4॥ तदनंतर जिसके नेत्र, मुख, हाथ और पैर फूले हुए कमल के समान थे, जो अनुराग से युक्त थी, हर्ष से सहित थी और हाथ में सफेद कमल धारण कर रही थी ऐसी रानी पद्मावती प्रातःकाल के समय ऊंचे सिंहासन पर विराजमान राजा सुमित्र के पास गयी सो ऐसी जान पड़ती थी मानो अनेक कमलों से सुशोभित, लालिमायुक्त स्थल-कमलिनी ही उदयाचल पर स्थित सुमित्र― सूर्य के पास जा रही हो ॥5॥ जो नाना प्रकार के वस्त्ररूपी जल से युक्त थी, अत्यधिक रुन-झुन करने वाले अतिशय सुंदर नूपुरों की झनकाररूपी पक्षियों की कल-कल ध्वनि से मनोहर थी, मछलियों के समान नेत्रों से सहित थी और त्रिवलिरूपी तरंगों से सुशोभित थी ऐसी वह स्त्रीरूपी नदी राजा सुमित्ररूपी समुद्र के पास गयी यह उचित ही था ॥6॥ उस समय मणिमय आभूषणों को धारण करने वाली रानी पद्मावती चलती-फिरती कल्पलता के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार कल्पलता गुच्छों के भार से नम्रीभूत होती है उसी प्रकार उसकी अंगयष्टि भी स्थल स्तनरूपी गच्छों से नम्रीभूत थी, जिस प्रकार कल्पलता लाल-लाल पल्लवों से युक्त होती है उसी प्रकार वह भी लाल-लाल हथेलियों से युक्त थी और जिस प्रकार कल्पलता कोमल शाखाओं से युक्त होती है उसी प्रकार वह भी कोमल भुजाओं से युक्त थी । इस प्रकार रानी पद्मावतीरूपी कल्पलता ने राजा सुमित्ररूपी कल्पवृक्ष को नमस्कार किया ॥7॥ पास ही में उत्तम आसन पर बैठी रानी पद्मावती ने जब राजा से स्वप्नावली का फल पूछा तब उन्होंने हर्षित होते हुए कहा कि हम दोनों शीघ्र ही तीनों जगत् के स्वामी जिनेंद्र भगवान् के माता-पिता होंगे ॥8॥ इस प्रकार राजारूपी सूर्य को वचन किरणों से स्पर्श को प्राप्त हई रानी पद्मावती के शरीर में हर्षातिरेक से रोमांच निकल आये और वह फूली हुई कमलिनी के समान सुशोभित होने लगी । वह पहले जिस स्त्रीपर्याय को निकृष्ट समझती थी उसे ही अब तीर्थंकर की माता होने के कारण श्रेष्ठ समझने लगी ॥ 9 ॥ जिन्हें हजारों देवों के समूह दूर से ही नमस्कार करते थे ऐसे भगवान् मुनिसुव्रत ने सहस्रार नामक उत्कृष्ट स्वर्ग से अवतीर्ण होकर माता पद्मावती के विशुद्ध गर्भ-गृह में नौ माह साढ़े आठ दिन निवास किया ॥10॥ उस समय माता पद्मावती, वर्षा और शरदऋतु के संधि काल से युक्त आकाश के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार वर्षा और शरद् के संधिकाल का आकाश कुछ काले और कुछ सफेद पयोधरों― मेघों से युक्त होता है उसी प्रकार पद्मावती भी नीली चूचुक से युक्त सफेद पयोधरों―स्तनों से युक्त थी । जिस प्रकार वर्षा और शरद के संधिकाल का आकाश वज्रसमूह― वज्र के समूह से गर्भित होने के कारण देदीप्यमान रहता है उसी प्रकार पद्मावती भी वज्रवृषभ संहनन के धारक भगवान् के गर्भ में स्थित होने से देदीप्यमान हो रही थी और जिस प्रकार वर्षा तथा शरद् के संधि काल का आकाश विद्युत्प्रभाभरणबृहितभा― बिजली की प्रभा को धारण करने से कांतियुक्त होता है उसी प्रकार माता पद्मावती भी विद्युत्प्रभाभरणबृहितभा-बिजली के समान देदीप्यमान आभूषणों से बढ़ी हुई कांति से युक्त थी ॥11॥
तदनंतर पाप (पक्ष में कलंक) से रहित रानी पद्मावतीरूपी आकाश ने प्रसूति के योग्य समय आने पर इंद्रमह उत्सव के दिन माघकृष्ण द्वादशी को शुभ तिथि में जबकि श्रवण नक्षत्र था बिना किसी श्रम के, मनुष्यों के मन और नेत्रों को आनंद देने वाले जिनेंद्ररूपी पूर्णचंद्र को उत्पन्न किया ॥12॥ जिस प्रकार इंद्रनीलमणि से खान की भूमि सुशोभित होती है उसी प्रकार शुभ लक्षणों से युक्त एवं लाली सहित नीलकंठ― मयूर की कांति को धारण करने वाले मुनिसुव्रत भगवान् से हर्षित पद्मावती सुशोभित हो रही थी ॥13॥ उस समय तीनों जगत् के इंद्रों के आसन और मुकुट कंपायमान हो गये थे जिससे तत्काल ही अवधिज्ञान का प्रयोग कर उन्होंने जिनेंद्र भगवान् के जन्म का समाचार जान लिया था और शेष देवों ने अत्यंत आश्चर्य तथा जोर के साथ होने वाली घंटाध्वनि, सिंहध्वनि, पटहध्वनि और शंखध्वनि से जिनेंद्र-जन्म का निश्चय कर लिया था । इस प्रकार जिनेंद्र भगवान का जन्म जानकर समस्त इंद्र और देव जन्मोत्सव के लिए चले ॥14॥ सुगंधित जल, मंद वायु और पुष्पों की वर्षा से जिन्होंने समस्त जगत् को भर दिया था तथा जिन्होंने उत्तमोत्तम देदीप्यमान आभूषणों से सुशोभित वेष धारण किया था ऐसे इंद्र आदि देवों ने सब ओर से शीघ्र आकर विशाल कुशाग्रपुर को प्रदक्षिणाएं दीं ॥15॥ तत्पश्चात् समस्त सुर असुर देवों ने जिनेंद्र भगवान् और उनके माता-पिता को नमस्कार किया, देव-कन्याओं ने जातकर्म किया और उसके बाद समस्त देव जिनेंद्र भगवान को ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े वैभव के साथ सुमेरु पर्वतपर ले गये । वहाँ प्रथम ही उन्होंने मेरु पर्वत की प्रदक्षिणाएं दीं फिर उसके ऊर्ध्वभाग पर बनी पांडुक शिला के ऊपर स्थित सिंहासन पर जिनेंद्र भगवान को विराजमान किया । वहाँ क्षीर सागर के उत्तम जल से महाविभूति के साथ उनका जन्माभिषेक किया, नाना प्रकार के स्तोत्रों से स्तुति की, मुनिसुव्रत नाम रखा । तदनंतर नीति-निपुण देवों ने भगवान को ला माता की शुभ गोद में विराजमान कर आनंद नाटक किया । तत्पश्चात् इंद्रादि देव, त्रिभुवन को आनंदित करने वाले जिनेंद्र भगवान और उनके माता-पिता को नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥16-18॥ जो स्वयं विशाल नेत्रों से युक्त थे, तीन ज्ञानरूपी सहज नेत्रों को धारण करने वाले थे, देवकुमार जिनकी निरंतर सेवा करते थे और समय-समय के अनुरूप कुबेर जिनके योग-क्षेम का ध्यान रखता था― सब सुख-सामग्री समर्पित करता था ऐसे भगवान् मुनिसुव्रत शरीर और गुणों की वृद्धि को प्राप्त होने लगे । भावार्थ― जैसे-जैसे उनका शरीर बढ़ता जाता था वैसे-वैसे ही उनके गुण बढ़ते जाते थे ॥19॥ जिस प्रकार कुलाचलों से उत्पन्न, आदि, मध्य और अंत में समानरूप से बहने वाली नदियां लवणसमुद्र को प्राप्त कर वरती हैं उसी प्रकार उत्तम कुलरूपी पर्वतों से उत्पन्न, बालक, युवा और वृद्ध तीनों अवस्थाओं में निरंतर अभ्युदय को धारण करने वाली सुंदर स्त्रियों ने सौंदर्य के धारक युवा मुनि सुव्रतनाथ को प्राप्त कर विवाह पूर्वक वरा था ॥20॥
तदनंतर जो राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ थे, हरिवंशरूपी आकाश के मानो सूर्य थे, प्रजारूपी कमलिनी का हित करने के लिए सूर्यस्वरूप थे, राजा, महाराजा और देव जिनके चरणकमलों की सेवा करते थे तथा जो अखंड आज्ञा के धारक थे ऐसे राजा मुनिसुव्रतनाथ ने चिरकाल तक विषय सुख का उपभोग किया ॥ 21 ॥ अथानंतर किसी समय शरद् ऋतु आयी सो वह ऐसी जान पड़ती थी मानो वर्षारूपी स्त्री के चले जाने पर एक दूसरी अपनी ही स्त्री आयी हो अर्थात् वह शरदऋतु स्त्री के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री कमल के समान मुख से युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद्ऋतु भी कमलरूपी मुख से सहित थी, जिस प्रकार स्त्री लाल-लाल अधरोष्ठद से युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद् ऋतु भी बंधक के लाल-लाल फूलरूपी अधरोष्ठ से युक्त थी, जिस प्रकार स्त्री हाथ में चामर लिये रहती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी काश के फूलरूपी स्वच्छ चामर हाथ में लिये थी और जिस प्रकार स्त्री उज्ज्वल वस्त्रों से युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद्ऋतु भी उज्ज्वल मेघरूपी वस्त्रों से युक्त थी ॥22॥ जिसने शीघ्र ही अपना शब्द बंद कर दिया था ऐसी धूमिल मेघमाला, सफेद-सफेद गायों के समूह से युक्त अहीरों को बस्ती के जोरदार शब्द सुनकर ही मानो अंतर्हित हो गयी थी और मेघों के आवरण से रहित दिशाओं में सूर्य चिरकाल के बाद पाद पांवों (पक्ष में किरणों) के फैलाने का सुख प्राप्त कर सका था ॥23 ॥ जिनके तटरूपी नितंब से जलरूपी चित्र-विचित्र वस्त्र नीचे खिसक गये थे, जो भँवररूपी नाभि से सुंदर थीं, मीनरूपी चंचल नेत्रों से युक्त थीं और फेनावलीरूपी चूड़ियों से युक्त तरंगरूपी चंचल भुजाओं से सहित थीं ऐसी नदीरूपी स्त्रियाँ क्रीड़ाओं के समय इनका हृदय हरने लगीं ॥24॥ ऊर्मियां ही जिनकी भौहें थीं, मछलियां ही जिनके चंचल कटाक्ष थे, जो मदोन्मत भौरों और कलहंसों के शब्द से मनोहर थीं और फूले हुए कमलों का मकरंद संबंधी पराग ही जिनका अंगराग था ऐसी सरसी रूपी स्त्रियाँ क्रीड़ा के समय इनके राग को उत्पन्न कर रही थीं ॥25॥
फल के भार से अतिशय झुके हुए सुगंधित धान के पौधे और धान के खेतों में उत्पन्न हुई ऊंची उठी विकसित उत्पलों की श्रेणियां― दोनों ही सौभाग्य संबंधी हर्ष के वशीभूत हो अंग से अंग मिलाकर मानो एक दूसरे का मुख ही सूंघ रही थीं ॥26॥ जिनके शरीर पर विकसित कदंब पुष्पों की पराग का अंगराज लगा था तथा जो कदंब मधु की धाराओं और धूलि का स्मरण करते हुए दुःखी हो रहे थे ऐसे भ्रमरों के समूह अब कदंब-पुष्पों का अभाव हो जाने से मदोन्मत्त गजराज के मद जैसी गंध से युक्त सप्तपर्ण वृक्षों के लंबे-चौड़े वनों में प्रीति करने लगे॥27॥ ऐसी शरदऋतु के समय भगवान् मुनिसुव्रतरूपी राजहंस― श्रेष्ठ राजा (पक्ष में राजहंस), लज्जा और भय ही जिनके सुंदर आभूषण थे तथा जिन्होंने अपनी लीला से रति को शोभा को दूर कर दिया था ऐसी राजहंसियों― श्रेष्ठ रानियों (पक्ष में राजहंसिनियों) को देखते हुए भगवान् मुनिसुव्रतनाथ कैलास पर्वत के समान ऊंचे महल पर विराजमान थे ॥28॥ शरद् ऋतु के समस्त धान्यों की शोभा से युक्त दिशाओं को देखते-देखते उन्होंने एक मेघ को देखा । वह मेघ चंद्रमा के समान सफेद था, अत्यधिक शोभा से युक्त था और आकाशरूपी समुद्र में क्रीडा करने की अभिलाषा से अवतीर्ण भ्रमण प्रेमी, गजराज ऐरावत के समान जान पड़ता था ॥29॥ जिसके ऊपर से समस्त जलरूपी उत्तरीय वस्त्र नीचे खिसक गया था, जो अतिशय ऊंचा, सफेद एवं विस्तार से युक्त था, आकाश का आभूषण था और दिशारूपी स्त्री के अतिशय स्थूल स्तन के समान जान पड़ता था ऐसे उस मेघ को देखकर भगवान् आनंद को प्राप्त हो रहे थे ॥30॥ कुछ ही समय के पश्चात् अत्यंत प्रचंड वायु के वेगजन्य आघात से उस मेघ के समस्त अवयव नष्ट हो गये और वह ज्वालाओं के समीप रखे हुए नवनीत के पिंड के समान शीघ्र ही विलीन हो गया, यह देख जगत् के स्वामी भगवान् मुनिसुव्रतनाथ इस प्रकार विचार करने लगे ॥31॥
अरे ! यह शरद्ऋतु का मेघ इतनी जल्दी कैसे विलीन हो गया ? जान पड़ता है आयु, शरीर और वपु की क्षणभंगुरता को भुला देने वाले मनुष्य को व्यापक उपदेश देने के लिए ही मानो यह शीघ्र विलीन हो गया है ॥32॥ अपने-अपने परिणामों के अनुसार संचित, अल्प प्रमाण परमाणुओं का राशि स्वरूप यह आयुरूप मेघ निःसार है इसीलिए तो मृत्युरूपी प्रचंड वायु के वेग का आघात लगते ही शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥33॥ वज्ररूपी संधियों के बंधन से युक्त यह प्राणियों का उत्तम रचना से सुशोभित नूतन एवं सुंदर शरीररूपी मेघ, मृत्युरूपी पवन के प्रबल आघात से क्षत-विक्षत हो असमर्थ होता हुआ विफल हो जाता है ॥34॥ सौभाग्य, रूप और नवयौवन ही जिसका आभूषण है तथा जो पृथिवी के समस्त मनुष्यों के चित्त और नेत्रों के लिए अमृत की वर्षा करता है ऐसे इस शरीररूपी मेघ की छाया, वृद्धावस्थारूपी तीव्र आंधी से सूर्य को आच्छादित करने वाली हो जाती है― नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है ॥35॥ शौर्य और प्रभाव के द्वारा सागरांत पृथिवी को अच्छी तरह वश करने वाले बड़े-बड़े राजाओं के द्वारा जिन भूमि-भागों की चिर रक्षा की गयी है ऐसे उत्तम राज्य के भोगरूपी पर्वतों के शिखर भी कालरूपी प्रचंड वज्र के आघात से चूर-चूर हो जाते हैं ॥36 ॥ नेत्र और मनरूप होती हुई नेत्र और मन के समान प्यारी स्त्री तथा प्राणों के समान सुख-दुःख के साथी मित्र और पुत्र इस संसार में अदृष्टरूपी वायु से प्रेरित हो सूखे पत्ते के समान नष्ट होते रहते हैं । मनुष्य की तो बात ही क्या है देव भी इस संसार में प्रियजनों के वियोग को प्राप्त होता है ॥37॥ अहो ! यह प्राणी अन्य प्राणियों के शरीर आदि को क्षणभंगुर देखता हुआ भी स्वयं मृत्यु के भय से रहित है तथा इसकी शास्त्ररूपी दृष्टि मोहरूपी अंधकार से आच्छादित हो गयी है इसलिए यह इष्ट मार्ग को छोड़कर विषयरूपी आमिष के गर्त में पड़ रहा है ॥ 38॥ जिसका प्रत्येक अंग कामरूपी मत्त हाथी से संगत है ऐसा यह मनुष्य अपने अवयवों से प्रिय स्त्रियों के शरीर का स्पर्श करता हुआ उनके स्पर्शजन्य सुख से निमीलित नेत्र हो मत्त-मातंग के समान विषय बंध को प्राप्त होता हैं इसलिए इस स्पर्श जन्य सुख के लिए धिक्कार है ॥39॥ जिसकी विवेक दृष्टि नष्ट हो गयी है ऐसा यह मनुष्य जिह्वा इंद्रिय के वशीभूत हो इच्छापूर्वक छह प्रकार के रसों से युक्त नाना प्रकार के इष्ट आहार को ग्रहण करता हुआ वंशी के काटे पर लगे मांस के लोभी मीन के समान बंध को प्राप्त होता है ॥40॥ जिस प्रकार निर्बुद्धि भ्रमर विष पुष्प की गंध को सूंघकर दुष्पाक से युक्त मरण को प्राप्त होता है उसी प्रकार जंघा बल के कारण ही मानो तृप्ति के मार्ग को उल्लंघन करने वाला यह मनुष्य घ्राणेंद्रिय को अच्छे लगने वाले सुगंधित पदार्थों की सुगंध को सूंघकर अंधा होता हुआ दुष्परिणाम से युक्त पाप बंध को प्राप्त होता है ॥41॥ जिस प्रकार दीप-शिखा पर पड़ा पतंग उग्र संताप को प्राप्त होता है उसी प्रकार रूप का लोभी यह प्राणी, चित्त को द्रवीभूत करने में दक्ष कटाक्ष और मंद-मंद मुसकुराहट से युक्त मुख से सुशोभित स्त्रियों के शरीर पर दृष्टि डालता हुआ भयंकर संताप को प्राप्त होता है ॥42॥ अपनी इष्ट स्त्रियों के शब्दायमान नूपुर तथा मेखला आदि नाना प्रकार के आभूषणों के शब्दों, प्रिय भाषणों और मधुर संगीतों से जिसकी बुद्धि हरी गयी है ऐसा यह मनुष्य अधीर होता हुआ श्रोत्रेंद्रिय के द्वारा मृग के समान मृत्यु को प्राप्त होता है ॥43॥ अल्प शक्ति के धारक क्षुद्र मनुष्यों का समूह विषय-भोगजन्य पापरूपी कीचड़ में फँसकर जो क्लेश उठाता है वह आश्चर्य नहीं है किंतु वज्रमय शरीर के धारक श्रेष्ठ मनुष्यों का समुदाय भी जो उस पापपंक में अतिशय निमग्न हो रहा है यह अत्यधिक आश्चर्य की बात है ॥44॥ जो जीव अनेकों बार अत्यंत दीर्घ काल तक स्वर्ग के सुखरूपी सागर को पीकर भी तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ उसे भूलोक संबंधी अल्प सुखरूपी तृण की चंचल जलबिंदु कुछ दिनों में कैसे संतुष्ट कर सकती है ? ॥45॥
जिस प्रकार ईंधन की बहुत बड़ी राशि से अग्नि को तृप्ति नहीं होती और सदा गिरने वाली हजारों नदियों से समुद्र को संतोष नहीं होता उसी प्रकार सेवन किये हुए संसार के संचित कामभोगों से जीव को तृप्ति नहीं होती ॥46॥ निश्चय से विषयरूपी ईंधन की बहुत बड़ी राशि, भोगाभिलाषारूपी विषम अग्नि की ज्वालाओं की वृद्धि का कारण है और इंद्रिय विजयी मनुष्य की जो उन विषयों से व्यावृत्ति है वह स्थिर जलधारा के समान उस विषमाग्नि की शांति का कारण है ॥47॥ इसलिए मैं सारहीन विषयसुख को छोड़कर शीघ्र ही हितरूप मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्ति करता हूँ और सबसे पहले अपना उत्कृष्ट प्रयोजन सिद्ध कर पश्चात् परहित के लिए यथार्थ तीर्थ की प्रवृत्ति करूंगा ॥48॥ इस प्रकार मति, श्रुत और अवधिज्ञानरूपी नेत्रों से युक्त स्वयंभू भगवान् जब स्वयं प्रतिबद्ध हो गये तब सर्वार्थसिद्धि तक के समस्त इंद्रों के आसन शीघ्र ही कंपायमान हो गये ॥49॥ उसी समय सुंदर कुंडल और हारों से सुशोभित, निश्चल मनोवृत्ति और श्वेत दीप्ति के धारक सारस्वत आदि लौकांतिक देव आ गये और हाथ जोड़ मस्तक से लगा पुष्पांजलियां बिखेरते हुए नमस्कार कर जिनेंद्र भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥50॥ हे जिनेंद्र चंद्र ! हे सम्यग्ज्ञानरूपी किरणों से मोहरूपी अंधकार के समूह को नष्ट करने वाले ! आप वृद्धि को प्राप्त हों, समृद्धिमान् हों, जयवंत रहें, चिरकाल तक जीवित रहें, आप बंध रहित हैं, भव्य जीवरूपी कुमुदिनियों के उत्तम बंधु हैं और हितकारी बीसवें धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं ॥ 51॥ हे त्रिलोकीनाथ ! आप उस धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करें जिसमें संसार की दुःखरूपी अग्नि से संतप्त प्राणी स्नान कर समस्त मोहरूपी मल को छोड़ दें और शीघ्र हो आनंददायी उत्तम शिवालय को प्राप्त हो जावें ॥52॥ भगवान् चारित्र मोहकर्म के परमोपशम (उत्कृष्ट क्षयोपशम) से स्वयं ही प्रतिबोध को प्राप्त हो गये थे इसलिए उन्हें उक्त प्रकार से संबोधते हुए लौकांतिक देवों ने अन्य कुछ नहीं कहा सो ठोक ही है क्योंकि योग्य मनुष्य अपने नियोग की पूर्ति में कभी पुनरुक्त दोष को प्राप्त नहीं होते ॥53 ॥ उसी समय नाना विमानों के समूह से आकाश को आच्छादित करते हुए सौधर्मेद्र आदि चारों निकाय के देव आ पहुँचे । आकर उन्होंने सुगंधित जल से भगवान् का अभिषेक किया और आश्चर्य उत्पन्न करने वाले, उत्तमोत्तम आभूषण आदि से उन्हें अलंकृत किया ॥ 54 ॥ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ ने अपनी प्रभावती स्त्री के पुत्र सुव्रत का राज्यपद पर अभिषेक किया और हरिवंशरूपी आकाश में चंद्रमा के समान सुशोभित सुव्रत ने भी सफेद छत्र, सफेद चामर तथा सिंहासन को अलंकृत किया ॥55॥ तदनंतर पहले जिसे भूमि पर राजाओं ने उठाया था और उसके बाद जिसे देव लोग आकाश में उठा ले गये थे ऐसी अतिशय सुंदर विचित्र पालकी पर आरूढ़ होकर भगवान् वन में गये तथा वहाँ कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन वेला का नियम लेकर दीक्षा लेने के लिए उद्यत हुए ॥ 56 ॥ उस समय एक हजार राजाओं के साथ भगवान् ने समस्त जगत् त्रय के समक्ष दीक्षा धारण की । उन्होंने अपने सिर के केश उखाड़कर फेंक दिये और इंद्र ने उन केशों को पिटारे में रखकर विधिपूर्वक क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया ॥57 । इस प्रकार देव, भगवान् का निष्क्रमण कल्याणक तथा उसकी पूजा कर यथास्थान चले गये और भगवान् भी चार ज्ञानों तथा एक हजार अनुगामी राजाओं से उस तरह सुशोभित होने लगे जिस तरह कि एक हजार किरणों से सूर्य सुशोभित होता है ॥ 58॥ वेला का उपवास धारण करने वाले भगवान् जब आगामी दिन, आहार की विधि प्रकट करने के लिए कुशाग्रपुरी में अवतीर्ण हुए तब वृषभदत्त नाम से प्रसिद्ध पुरुष ने उन्हें विधिपूर्वक खीर का आहार दिया ॥ 59॥ उस समय मर्यादा के जानने वाले भगवान् मुनिसुव्रत रूपी सूर्य ने अपने तीर्थ में निर्दोष चारित्र के धारक मुनियों के योग्य आहार की वह विधि प्रवृत्त की जो स्वाधीन थी, बाधा से रहित थी, खड़े होकर जिसमें भोजन करना पड़ता था, जिसमें पाणिपात्र में भोजन होता था और दानपति जिसमें विधिपूर्वक भोजन प्रदान करता था ॥60॥ आश्चर्य की बात थी कि उस समय शुद्धि से सहित वृषभदत्त ने मुनिराज के हाथ में जो खीर दी थी उससे बाकी बची खीर को हजारों की संख्या में अन्य मुनियों ने खाया तथा घर के अन्य लोगों ने भी बार-बार ग्रहण किया फिर भी वह समाप्ति को प्राप्त नहीं हुई ॥61॥ तदनंतर विशाल शब्द करते हुए देव दुंदुभि बजने लगे, धन्य-धन्य के शब्द ने समस्त आकाश को व्याप्त कर दिया, सुगंधित वायु बहने लगी, आश्चर्यकारी फूलों की वर्षा होने लगो और आकाश से बड़ी मोटी रत्नों की धारा पड़ने लगी ॥12॥ दूसरों के लिए अतिशय दुर्लभ इस पंचाश्चर्य को आकाश में खड़े देवों ने चिरकाल तक किया । तदनंतर पुण्यराशि का संचय करने वाले दानपति की पूजा कर वे देव लोग यथास्थान चले गये और भगवान् भी विहार के योग्यस्थान में विहार कर गये ॥63 ॥ तत्पश्चात् तेरह महीने का काल बिताकर भगवान् ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी ईंधन की विपुल राशि को दग्ध कर केवलज्ञान की प्राप्ति से मगसिर मास की शुक्ल पंचमी तिथि को पवित्र किया ॥64॥ अब केवलज्ञानरूपी एक ही विशुद्ध लोचन से भगवान् समस्त पदार्थों को एक साथ प्रत्यक्ष देखने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जब निरावरण सूर्य का उदय होता है तब वह प्रकाशित करने योग्य पदार्थों के विषय में न तो क्रम की अपेक्षा करता है और न दूसरे की सहायता की ही अपेक्षा करता है ॥65॥ उस समय समस्त अहमिंद्रों ने अपने-अपने आसनों से सात-सात डग आगे चलकर तथा हाथ जोड़ मस्तक से लगा जिनेंद्र भगवान् को परोक्ष नमस्कार किया और जिनके चित्त में विशेष हर्ष प्रकट हो रहा था ऐसे शेष समस्त इंद्र तथा देव सब ओर से वहाँ आये ॥66॥ जिनके चंपक नामक चैत्य वृक्ष प्रकट हुआ था, जो अष्ट प्रातिहार्यरूपी वैभव से अतिशय सुंदर थे, और जो आश्चर्यकारी अचिंत्य एवं अंतातीत आर्हंत्य पद को प्राप्त थे ऐसे देवाधिदेव मुनिसुव्रतनाथ की, तीनों लोकों के स्वामी तथा राजाओं ने भक्तिपूर्वक पूजा को ॥67॥
तदनंतर जब बारह गण बारह सभाओं में यथास्थान बैठ गये तब विशाख नामक गणधर ने विनयपूर्वक अनुयोगद्वार से द्वादशांग का स्वरूप पूछा उसके उत्तर में भगवान् ने धर्म का निरूपण कर पृथिवी पर तीर्थ प्रकट किया ॥68॥ इंद्रादि देव भगवान् के चतुर्थ कल्याणक की पूजा कर नमस्कार करते हुए यथास्थान चले गये और भगवान् भी अनेक प्राणियों के लिए धर्मामृत की वर्षा करते हुए अनेक देशों में विहार करने लगे ॥69॥ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के संपूर्ण चौदह पूर्वो को जानने वाले अट्ठाईस गणधर थे, और तीस हजार मुनि थे । भगवान् का यह संघ नाना गुणों से सात प्रकार का था ॥70॥ उस संघ में पाँच सौ मुनिराज पूर्व धारी थे, इक्कीस हजार शिक्षार्थी थे, अठारह सो अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, बाईस सौ विक्रियाऋद्धि के धारक थे, पंद्रह सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के धारक थे, बैर को दूर करने वाले बारह सौ प्रसिद्धवादी थे, पचास हजार आर्यिकाएं थीं, एक लाख अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों को धारण करने वाले श्रावक थे, और सम्यग्दर्शन से पवित्र हृदय को धारण करने वाली तीन लाख श्राविकाएं थीं । इन सभासद रूपी नक्षत्रों से घिरे हुए भगवानरूपी चंद्रमा अतिशय सुशोभित हो रहे थे ॥71-73 ॥ भगवान् की पूर्ण आयु तीस हजार वर्ष की थी, उसमें साढ़े सात हजार वर्ष का कुमारकाल था, पंद्रह हजार वर्ष तक उन्होंने राज्य का भोग किया और शेष साढ़े सात हजार वर्ष तक संयमी होकर विहार किया॥74॥ महामुनियों के अधिपति मुनिसुव्रत भगवान् आयु के अंत समय में हर्ष को उत्पन्न करने वाले वन-खंडों से सुशोभित सम्मेदाचल पर आरूढ़ होकर कर्मो के बंध से रहित हुए और बंध का नाश करने वाले एक हजार मुनियों के साथ वहीं से मोक्ष गये ॥75॥ मोक्ष जाने के एक माह पूर्व भगवान् ने विहार आदि बंद कर योगनिरोध कर लिया था तथा माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन अपराह्न काल में पुष्य नक्षत्र का उत्तम योग रहते हुए पद्मासन से मोक्ष प्राप्त किया था । मुक्त होने पर इंद्र ने निर्वाणकल्याणक की पूजा की थी ॥76॥ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ का धर्मतीर्थ पृथिवी पर छह लाख वर्ष तक अखंड रूप से चलता रहा । उनके तीर्थ में विद्याओं का परिज्ञान होने से मुनियों का पूर्ण प्रभाव था, और देवों का निरंतर आगमन होते रहने से लोगों का हर्ष बढ़ता रहता था ॥77॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि संसार में जो भव्य प्राणी बीसवें तीर्थंकर के पंचकल्याणक विभूति से युक्त इस चरित का चिंतवन करता है, भक्ति से इसे सुनता है, पढ़ता है, और इसका स्मरण करता है वह शीघ्र ही मोक्ष के सुख को प्राप्त होता है ॥78॥ जिनसेनाचार्य कहते हैं कि इस तरह वसंततिलका छंद से निर्मित (पक्ष में वसंतऋतु के श्रेष्ठ नाना पुष्पों से निर्मित) पुष्पों की माला समर्पित कर जिनके चरित्र की स्तुति की गयी है वे संसार को जीतने वाले धीर-वीर मुनिसुव्रत जिनेंद्र विघ्नों को नष्ट कर हमारे लिए समाधि (चित्त की स्थिरता ) और बोधि ( रत्नत्रय की प्राप्ति ) करावें ॥79॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के पंचकल्याणकों का वर्णन करने वाला सोलहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥16॥