ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 23
From जैनकोष
अथानंतर― किसी समय महल के ऊपर बैठे हुए कुमार ने लोगों का बहुत भारी कोलाहल सुनकर पास में बैठी प्रतिहारी से पूछा कि ये समस्त लोग किस कारण कोलाहल कर रहे हैं ? कुमार के इस प्रकार कहने पर अतीत वृत्तांत को जानने वाली प्रतिहारी ने कहा कि हे देव ! सुनिए, इस पर्वतपर एक शकटामुख नाम का नगर है । उसका स्वामी विद्याधरों का अधिपति नीलवान् नाम का विद्याधर है ॥1-3॥ राजा नीलवान् के नील नाम का पुत्र और नीलांजना नाम की माननीय पुत्री, इस प्रकार दो संतान हैं । एक बार नील और नीलांजना के बीच यह बात हुई कि यदि मेरे पुत्र हो और तुम्हारे पुत्री हो तो परस्पर गोत्र की प्रीति बनाये रखने के लिए दोनों का विवादरहित विवाह होगा ॥4-5॥ नीलांजना को तुम्हारे श्वसुर सिंहदंष्ट्र ने विवाहा था और उससे यह नीलयशा नाम की पुत्री हुई थी ॥6॥ कुमार नोल का भी विवाह हुआ और उसके नीलकंठ नाम का पुत्र हुआ । पूर्व वार्ता के अनुसार नील ने अपने पुत्र नीलकंठ के लिए सिंहदंष्ट्र से नीलयशा की याचना की ॥7॥ परंतु सिंहदंष्ट्र ने अमोघवादी बृहस्पति नामक मुनिराज के कथनानुसार यह कन्या आपके लिए दी है । आप अर्धचक्रवर्ती के यशस्वी पिता हैं ॥8॥ आज दुष्ट प्रकृति के धारक पिता-पुत्र-नील और नीलकंठ ने सभा के बीच सिंहदंष्ट्र के साथ विवाद ठाना था परंतु तुम्हारे श्वसुर-सिंहदंष्ट्र ने उन दोनों को न्याय मार्ग से जीत लिया इसलिए विद्याधरों ने बहुत भारी कलकल शब्द किया है ॥9-10॥ इस प्रकार प्रतिहारी के वचन सुनकर कुमार वसुदेव मुस्कुराये और नीलयशा के साथ पहले की तरह रहने लगे ॥ 11 ॥
तदनंतर वर्षा ऋतु आयी, सो कुमार वसुदेव ने स्त्री के समान उसका अनुभव किया क्योंकि जिस प्रकार स्त्री घनकृताश्लेषा― गाढ़ आलिंगन से युक्त होती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी घनकृताश्लेषा― मेघकृत आलिंगन से युक्त थी । जिस प्रकार स्त्री विषय-प्रिया-विषयों से प्रिय होती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी विषय-प्रिया-देशों के लिए प्रिय थी और जिस प्रकार स्त्री शुक्लापांगस्वनैहृद्या― सफेद-सफेद कटाक्षों और मधुर वाणी से मनोहर होती है उसी प्रकार वर्षाऋतु भी शुक्लापांगस्वनैहृद्या― मयूरों की वाणी से मनोहर थी ॥12 ॥ वर्षा के बाद, जो बाणों की मूठ को हाथ में धारण कर रहा था तथा गुंजार करते हुए भ्रमररूपी डोरी से युक्त उत्तम बाणासन जाति के वृक्ष रूपी बाणासन― धनुष की शोभा से युक्त था ऐसे अहंकारी सुभट के समान शरद् ऋतु आयी ॥ 13 ॥ उस समय मन के समान तीव्र वेग को धारण करने वाले विद्याधर अपनी-अपनी विद्याओं और औषधियों की सिद्धि के लिए मन के वेग को नियंत्रित कर बाहर निकले ॥14॥ उस समय इच्छानुसार कामभोग करने वाले एवं विद्या के द्वारा अत्यंत आलिंगित दोनों दंपती― कुमार वसुदेव और नीलयशा भी ह्रीमंत पर्वत की ओर गये । उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानो परस्पर में गाढ़ आलिंगन को प्राप्त एवं इच्छानुसार वर्षा करते हुए बिजली और मेघ ही पर्वत की ओर जा रहे हों ॥ 15 ॥ उस पर्वत का मध्य भाग वैरिरहित सपत्नीक तपस्वियों की स्त्रियों को धारण करता था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो निरंतर अतिशय कठिन असिधारावत का ही आचरण कर रहा हो ॥16॥ वह पर्वत जगह-जगह मधुपान के मद से उन्मत्त पक्षियों और भ्रमरों के शब्द से युक्त था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो कामीजनों को बेधने वाले कामदेव के बाण और प्रत्यंचा के शब्दों से ही युक्त हो ॥17॥
उत्कट सुगंधि से युक्त सप्तपर्ण वन जिसकी शोभा बढ़ा रहा था, जो स्वयं सुंदर था तथा वायु से जिसके वृक्ष हिल रहे थे ऐसे ह्रीमंत पर्वतपर उतरकर वे दोनों उसकी प्रशंसा करने लगे । चिरकाल तक इधर-उधर भ्रमण कर शोभा को देखते हुए वे तृप्त ही नहीं होते थे अतः कामाकुलित होकर दोनों ने पर्वत के सुंदर शिखरों पर बार-बार रमण किया था ॥ 18-19 ॥ उन्होंने पुष्प और पतों से निर्मित शय्या पर अत्यधिक संभोग किया था फिर भी वह उस समय उनके खेद के लिए नहीं हुआ था ॥ 20 ॥ जो रतिक्रीड़ा से उत्पन्न पसीना से सुशोभित थे तथा जिनके नेत्रों के कोण लाल-लाल हो रहे थे ऐसे वे दोनों चिरकाल बाद कदली गृह से बाहर निकले ॥21॥ बाहर निकलते ही उन्होंने एक ऐसा मयूर देखा जो के का वाणी छोड़ रहा था, चित्र-विचित्र शरीर से युक्त था, शिखंडों से सहित था और जिसके नेत्र अत्यंत मत्त थे ॥22॥ शोभा से चित्त को हरण करने वाले उस मयूर को देखकर जो अत्यंत उत्कंठित थी तथा कौतुकवश जो उसे पकड़ लेना चाहती थी ऐसी नीलयशा को कंधे पर बैठाकर वह मयूर आकाश में ले गया ॥ 23 ॥ यथार्थ में वह मयूर नहीं था किंतु मयूर का शरीर धारण करने वाला नीच नीलकंठ था । उसके द्वारा स्त्री के हरे जाने पर वसुदेव विह्वल होकर वन में घूमते रहे ॥24॥ वह भूखे थे इसलिए गोपों की एक बस्ती में गये वहाँ गोपों की स्त्रियों ने उनकी भूख-प्यास की बाधा तथा परिश्रम को दूर किया । उस बस्ती में रातभर रहकर वे प्रातःकाल दक्षिण दिशा की ओर चल दिये ॥25 ॥
वहाँ धूलिकुट्टिम तथा प्राकार से वेष्टित गिरितट नामक नगर को देखकर वसुदेव ने हर्षित हो उसमें प्रवेश किया । उस समय वह नगर विशिष्ट जनसमूह से व्याप्त था तथा वेद-पाठ की ध्वनि से उसकी समस्त दिशाएं शब्दायमान हो रही थीं । वहाँ कौतुक से भरे वसुदेव ने किसी मनुष्य से इस प्रकार पूछा ॥26-27 ॥ क्या यहाँ ब्राह्मणों के लिए किसीने महादान किया है ? जिससे वेदों को जानने वाले पृथिवी के समस्त ब्राह्मण यहाँ आकर इकट्ठे हुए हैं ॥ 28 ॥ उस मनुष्य ने कहा कि यहाँ एक वसुदेव नामक ब्राह्मण रहता है । उसके एक सोमश्री नाम की कन्या है जो चंद्रमा के समान सुंदर और अनेक कला तथा वेद-शास्त्र में निपुण है ॥29॥ ज्योतिषी ने कहा है कि जो इसे वेदों के विचार में जीत लेगा वही इसका पति होगा इसीलिए यह वेदों को जानने वाली प्रजा इकट्ठी हुई है ॥30॥ स्थूल नितंब और स्तनों के भार से पीड़ित, कमर की पतली यह अतिशय सुंदरी कन्या, भार धारण करने में समर्थ किस भाग्यशाली के ऊपर गिरती है यह हम नहीं जानते ॥31॥ यह सुनकर जिस प्रकार शब्दमात्र से कानों को हरने वाली हँसी राजहंस के मन को उत्कंठित कर देती है उस प्रकार चर्चा मात्र से कानों को हरने वाली उस कन्या ने वसुदेव के मन को उत्कंठित कर दिया ॥32॥
तदनंतर कुमार ने ब्रह्मदत्त नामक उपाध्याय के पास जाकर तथा उसे अपना गोत्र बताकर प्रार्थना की कि आप हमें वेद पढ़ा दीजिए ॥33॥ इसके उत्तर में ब्रह्मदत्त ने कहा कि यहाँ तुम धर्म को प्रकट करने वाले आर्ष वेदों को पढ़ना चाहते हो या अनार्ष वेदों को ? ॥34॥ यह सुन कुमार ने फिर पूछा कि दो वेद कैसे ? कुमार के इस तरह पूछने पर अत्यंत प्रसन्न चित्त एवं यथार्थवादी उपाध्याय पुनः इस प्रकार कहने लगा कि युग के आदि में कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर जिन्होंने शरणागत प्रजा को असि-मषि आदि छह कार्यों का उपदेश दिया था तथा अपने पूर्वज्ञान के आधार पर उनमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों का विभाग किया था ॥35-36 ॥ जिन्होंने राजा बनकर हिमाचल और विंध्याचल रूप स्तनों से युक्त, विजयार्धरूपी हार से सुशोभित और सागर रूपी मेखला से अलंकृत पृथिवीरूपी स्त्री का उपभोग किया था ॥37॥ जिन्होंने अंत में विरक्त हो श्रेष्ठ राज्य पर सौ पुत्रों को आसीन कर चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की थी ॥38॥ जो स्वयं प्रतिबुद्ध थे, धीर-वीर थे, परीषहों के जेता थे और जिन्होंने चार ज्ञान के धारक होकर एक हजार वर्ष तक कठिन तप किया था ॥39 ॥ जिन्होंने उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा समस्त पदार्थों को जान लिया था तथा धर्मरूप तीर्थ के द्वारा जिन्होंने धर्मक्षेत्र को दुष्टों से रहित कर दिया था ॥40॥ जिन्होंने स्वर्ग और मोक्षसुख की प्राप्ति के लिए गृहस्थ और मुनियों से संबंध रखने वाले दो धर्माश्रम दिखलाये थे ॥41॥ जिन्होंने मुनिधर्म का वर्णन करने के लिए द्वादशांगरूप वेदों का निर्माण किया था तथा उन्हीं वेदों के अंतर्गत (उपायकाध्ययनांग) गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के एवं अनेक नियमों का पालन करने वाले गृहस्थों के भी आचार का वर्णन किया था । उन्हीं भगवान् वृषभदेव के द्वारा उस समय जो वेद दिखाये गये थे वे आर्ष वेद कहलाते हैं ॥ 42-43॥ युग के आदि में भरत चक्रवर्ती ने जिसका सम्मान किया था ऐसा समस्त ब्राह्मणों का समूह उन्हीं आर्ष वेदों का अध्ययन कर उन्हीं में बतायी हुई विधि से धर्म-यज्ञ करता था ॥ 44॥ अब जिन में इस युग के ब्राह्मणों का तात्पर्य है उन अनार्ष वेदों की उत्पत्ति कही जाती है ॥ 45 ॥
धारण-युग्म नगर में एक राजा रहता था जिसे युद्ध-भूमि में अयोध्य होने के कारण योधा लोग अयोधन कहते थे ॥46॥ सूर्यवंश को अलंकृत करने वाले राजा अयोधन की महारानी का नाम दिति था । यह दिति चंद्रवंश की लड़की थी तथा चंद्रवंशी राजा तृणबिंदु की छोटी बहन थी ॥47॥ महारानी दिति ने कदाचित् स्त्रियों के गुणों की पिटारी स्वरूप सुलसा नाम की कन्या को जन्म दिया । जब वह यौवनवती हुई तब पिता ने उसका स्वयंवर करवाया ॥48॥ और पृथिवी के यशस्वी राजाओं को बुलवाया जिससे विशाल यश के धारक, स्वयंवर के अभिलाषी एवं आदर से युक्त सगर आदि राजा वहाँ आ पहुँचे ॥ 49 ॥
एक दिन राजा सगर की मंदोदरी नाम की प्रतिहारी रानी दिति के घर गयी थी, वहाँ उसने एकांत में दिति के यह वचन सुने कि बेटी सुलसा ! तू मुझसे बहुत स्नेह करती है क्योंकि पुत्री का माता के ऊपर जो स्नेह होता है वह दूध के अनुसार प्रकट होता है, इसलिए तू मेरी बात सुन ॥ 50-51 ॥ मेरे बड़े भाई राजा तृणबिंदु की सर्वयशा देवी से उत्पन्न हुआ मधुपिंगल नाम का पुत्र है जो अपनी शोभा से समस्त राजाओं का तिरस्कार कर स्थित है-सब से अधिक सुंदर एवं प्रतापी है ॥52॥ मैंने पहले ही उसके लिए तेरे देने का मन में संकल्प कर लिया था । इसलिए तू स्वयंवर में मेरा ही मनोरथ पूर्ण कर ॥53 ॥ इस प्रकार कहकर माता दिति आँसू छोड़ने लगी । माता को रोती देख कन्या सुलसा ने कहा कि हे माता ! तू रो मत । मैं राजाओं के सामने जो तुझे इष्ट है वही करूंगी-तेरे कहे अनुसार मधुपिंगल को ही वरूंगी ॥54॥ मंदोदरी ने यह सब सुना और जाकर कन्या की प्राप्ति के लिए उत्कंठित राजा सगर के लिए एकांत में कह सुनाया ॥55॥
तदनंतर राजा सगर ने शीघ्र ही अपने विश्वभूति नामक पुरोहित से एकांत में मनुष्यों के लक्षणों को बताने वाला एक शास्त्र बनवाया ॥ 56 ॥ और उसे धूम से धूसरित कर तथा लोहे की संदूक में भरवाकर स्वयंवर की भूमि में गडवा दिया । जब स्वयंवर का दिन आया तब सगर ने स्वयंवर की भूमि को खुदवाकर लोहे का वह संदूक निकलवाया और उससे उक्त शास्त्र निकालकर राजाओं के आगे दिखाया ॥57॥ स्वयंवर में जो राजा आये थे, वे मनुष्यों के लक्षण सुनना चाहते थे । इसलिए उन सबके आगे पुरोहित ने जोर-जोर से उस शास्त्र को बाँचना शुरू किया ॥ 58॥ उसमें लिखा था कि राजा के पैर मछली, शंख तथा अंकुश आदि के चिह्नों से युक्त होते हैं, कमल के भीतरी भाग के समान उनका मध्य भाग होता है, एड़ियों की उत्तम शोभा से वे सहित होते हैं, उनकी अँगुलियों के पौरा एक दूसरे से सटे रहते हैं, उनके नख चिकने एवं लाल होते हैं, उनकी गाँठें छिपी रहती हैं, वे नसों से रहित होती हैं, कुछ-कुछ उष्ण होते हैं, कछुए के समान उठे होते हैं और पसीना से युक्त रहते हैं ॥59-60॥ पापी मनुष्य के पैर सूपा के आकार, फैले हुए, नसों से व्याप्त, टेढ़े, रूखे नखों से युक्त, सूखे एवं विरल अंगुलियों वाले होते हैं ॥61 ॥ जो पैर छिद्र सहित एवं कषैले रंग के होते हैं वे वंश का नाश करने वाले माने गये हैं । हिंसक मनुष्य के पैर जली हुई मिट्टी के समान और क्रोधी मनुष्य के पैर पीले रंग के जानना चाहिए ॥62 ॥ जिनकी पिंडलियां थोड़े एवं अत्यंत सूक्ष्म रोमों से युक्त और ऊपर-ऊपर गोल होती जाती हैं, जिनके घुटने अच्छे हैं और जाँघें गोल हैं वे शुभ हैं― अच्छे पुरुष हैं और जिनको पिंडलियाँ, घुटने तथा जाँघे सूखी हैं वे निंदनीय हैं ॥63 ॥ राजाओं के एक रोम-कूप में एक रोम होता है, विद्वानों के एक रोम-कूप में दो रोम होते हैं और मूर्ख तथा निर्धन मनुष्यों के एक रोम-कूप में तीन को आदि लेकर अनेक रोम होते हैं । रोमों के समान ही केशों का भी फल समझना चाहिए ॥64॥
बच्चे का लिंग यदि छोटा, दाहिनी ओर कुछ टेढ़ा और मोटी गाँठ से युक्त है तो शुभ है और इससे विपरीत अशुभ है ॥65॥ जिन मनुष्यों के वृषण (अंडकोष) अत्यंत छोटे होते हैं वे शीघ्र मर जाते हैं, जिनके विषम-एक छोटे एक बड़े होते हैं वे स्त्रियों पर अपना बल रखते हैं― स्त्रियों को वश करने वाले होते हैं, जिनके एक बराबर होते हैं वे राजा होते हैं और जिनके नीचे की ओर लटकते रहते हैं वे दीर्घजीवी होते हैं ॥66 ॥ पेशाब करते समय जिनका मूत्र शब्दसहित निकलता है वे सुखी होते हैं और जिनका मूत्र शब्दरहित निकलता है वे दु:खी होते हैं । पेशाब करते समय जिनके मूत्र को पहली और दूसरी धारा दाहिनी ओर पड़ती है वे लक्ष्मी के स्वामी होते हैं और जिनकी धारा इसके विपरीत पड़ती है वे निर्धन होते हैं ॥67 ॥ जिस पुरुष का नितंब स्थल होता है वह दरिद्र होता है, जिसका पृष्ट होता है वह सुखी होता है और जिसका मंडूक के समान ऊँचा उठा होता है वह व्याघ्र से मृत्यु को प्राप्त होता है ॥68॥ जिसकी कमर सिंह की कमर के समान पतली होती है वह राजा होता है और जिसकी कमर वानर अथवा ऊँट की कमर के समान होती है वह धनी होता है । जिसका पेट न छोटा न बड़ा किंतु समान होता है वह सुखी होता है और जिसका पेट घड़ा अथवा मटका के समान हो वह दु:खी होता है ॥ 69॥ जिनकी पसलियां भरी हुई हों वे सुखी होते हैं और जिनकी पसलियाँ नीची तथा टेढ़ी हों वे भोगरहित होते हैं । जिनकी कांख नीची हो वे भोगरहित होते हैं, जिनकी काँख सम हों वे भोगी होते हैं, जिनकी कांख उठी हुई हों वे राजा होते हैं और जिनकी कांख विषम हों वे निर्धन होते हैं । जिसकी उदर सर्प के समान लंबा हो वे दरिद्र तथा बहुत भोजन करने वाले होते हैं ॥70-71 ॥
जिनकी नाभि चौड़ी, ऊँची, गहरी और गोल होती है वह सुखी होता है और जिसकी नाभि छोटी तथा कुछ-कुछ दिखने वाली होती है वह क्लेश का पात्र होता है ॥72॥ यदि मध्य भाग की रेखाएँ विषम हैं, तो वे शूल की बाधा तथा दरिद्रता को उत्पन्न करती हैं और वही रेखा यदि बायीं और दाहिनी ओर आवर्ती-भवरों से युक्त हैं तो उत्तम बुद्धि को करती हैं ॥73॥ कमल की कर्णिका के समान नाभि मनुष्य को राजा बना देती है और जिसका ऊपर, नीचे तथा आजू-बाजू का भाग विस्तृत हो ऐसी नाभि मनुष्य को धनवान्, गोमान् और दीर्घजीवी करती है ॥74॥ जिसके एक वलि होती है वह शास्त्रार्थी होता है, जिसके दो वलि होती हैं वह निरंतर स्त्री का प्रेमी होता है, जिसके तीन वलि होती हैं वह आचार्य होता है और जिसके चार वलि होती हैं वह बहुत संतान वाला होता है और जिसके एक भी वलि नहीं होती वह राजा होता है ॥ 75॥ जिन मनुष्यों की वलि सीधी होती हैं वे स्वदार-संतोषी होते हैं और जिनको वलि विषम होती हैं वे अगम्यगामी एवं पापी होते हैं ॥76॥ जिन मनुष्यों के पसवाड़े पुष्ट, कोमल एवं दाहिनी ओर आवर्ताकार रोमों से सहित होते हैं वे राजा होते हैं और जिनके इनसे विपरीत होते हैं वे दूसरों के आज्ञाकारी किंकर होते हैं ॥ 77॥ जिन मनुष्यों के स्तनों के अग्रभाग छोटे और स्थूल हों वे उत्तम भाग्यशाली होते हैं और जिनके दीर्घ अथवा विषम होते हैं वे निर्धन होते हैं ॥78॥ राजाओं का हृदय पुष्ट, चौड़ा, ऊंचा और कंपन से रहित होता है तथा पुण्यहीन मनुष्यों का हृदय इससे विपरीत तीक्ष्ण रोगों से व्याप्त होता है ॥ 79॥
जिनके वक्षःस्थल सम हों वे सम शाली होते हैं, जिनके स्थूल हों वे शूर-वीर किंतु निर्धन होते हैं और जिनके कृश तथा विषम हों वे निर्धन एवं शस्त्र से मरने वाले होते हैं ॥ 80 ॥ जो मनुष्य स्थूल घुटने से सहित होता है वह धनाढ्य होता है, जिसका घुटना ऊँचा उठा होता है वह भोगी होता है, जिसका गहरा तथा हड्डियों से बद्ध रहता है वह निर्धन होता है और जिसका विषम होता है वह विषम ही रहता है ॥ 81 ॥ धनाढ्य मनुष्यों की बगले निरंतर पसीना से रहित, पुष्ट, ऊंची, सुगंधित और समान रोमों से व्याप्त रहती हैं ॥82॥ निर्धन मनुष्य को गरदन चपटी, सूखी एवं नसों से व्याप्त रहती है । इसके विपरीत शंख के समान गरदन वाला मनुष्य राजा होता है और भैंसे के समान गरदन वाला मनुष्य शूरवीर होता है ॥ 83 ॥ जो पीठ रोमरहित एवं सीधी हो वह शुभ मानी गयी है तथा जो रोमों से व्याप्त और अत्यंत झुकी हुई हो वह अच्छी नहीं मानी गयी है ॥ 84॥ निर्धन मनुष्य के कंधे छोटे, अपुष्ट, नीचे की ओर झुके हुए और रोमों से व्याप्त होते हैं तथा पराक्रमी और धनवान् मनुष्यों के कंधे सटे हुए एवं पुष्ट होते हैं ॥85 ॥ राजाओं के हाथ स्थूल, सम, लंबे और हाथी की सूंड के समान होते हैं परंतु निर्धन मनुष्यों के हाथ छोटे और रोमों से युक्त रहते हैं ॥86॥ दीर्घायु मनुष्यों की अंगुलियां लंबी तथा अत्यंत कोमल होती हैं, भाग्यशाली मनुष्यों की बलिरहित और बुद्धिमान् मनुष्यों की छोटी-छोटी होती हैं ॥ 87॥ निर्धन मनुष्यों के हाथ स्थूल रहते हैं, सेवकों के हाथ चिपटे होते हैं, वानरों के समान हाथ वाले मनुष्य धनाढ्य होते हैं और व्याघ्र के समान हाथ वाले मनुष्य शूर-वीर होते हैं ॥ 88॥
जिनकी कलाइयां अत्यंत गूढ़ एवं सुश्लिष्ट संधियों से युक्त होती हैं वे राजा होते हैं और जिनकी कलाइयां ढोली तथा शब्दों से सहित हैं वे दरिद्रता से युक्त होते हैं ॥89॥ जिनकी हथेलियाँ गहरी-भीतर को दबी हुई हों वे नपुंसक तथा पिता के धन से रहित होते हैं, जिनकी हथेलियां भरी हुईं तथा गहरी हों वे धनाढ्य होते हैं और जिनकी हथेलियां ऊपर को उठी हुई हों वे दानी होते हैं ॥90 ॥ जिनकी हथेलियाँ लाख के समान लाल हों वे धनाढ̖य होते हैं, जिनकी विषम होती हैं वे दरिद्र तथा विषम होते हैं, जिनकी पीली हों वे अगम्यगामी होते हैं और जिनकी रूक्ष होती हैं वे सौंदर्य से रहित कुरूप होते हैं ॥91 ॥ जिनके नख तुष के समान हों वे नपुंसक, जिनके फटे हों वे निर्धन, जिनके कुछ-कुछ लाल हों वे सेनापति और जिनके भद्दे हों वे तर्क-वितर्क करने वाले होते हैं ॥ 92 ॥ जिनके अंगूठे पर यव का चिह्न हो वे धनाढ्य होते हैं, जिनके अंगूठे के मूल में यव का चिह्न हो वे अधिक पुत्र वाले होते हैं, जिनके अंगूठे में गहरी तथा चिकनी रेखाएं होती हैं वे धनाढ्य होते हैं और जिनके इससे विपरीत रेखाएँ हैं वे निर्धन होते हैं ॥93॥
जिनकी अंगुलियाँ अत्यंत सघन होती हैं वे धन-संपन्न होते हैं और जिनकी अंगुलियां विषम होती हैं वे निधन होते हैं । जिनकी कलाई से लेकर हाथ तक तीन रेखाएँ होती हैं वे राजा होते हैं ।꠰94॥ प्रदेशिनी अंगुली तक लंबी रेखा दीर्घायु का चिह्न है अर्थात् जिसकी रेखा कनिष्ठा से लेकर प्रदेशिनी तक लंबी चली जाती है वह दीर्घायु होता है और जिसकी रेखाएँ कटी तथा छोटी होती हैं वह अल्प आयु का धारक होता है ॥ 95॥ तलवार, शक्ति, गदा, भाला, चक्र और तोमर आदि रेखाएं हाथ में हों तो वे स्पष्ट कहती हैं कि यह व्यक्ति सेनापति होगा ॥ 96 ॥ जिनकी दाढ़ी पतली और लंबी होती है वे दरिद्र होते हैं तथा जिनकी पुष्ट होती है वे धनी होते हैं । जिनके ओठ बिना फटे, सीधे और बिंबी फल के समान लाल होते हैं वे राजा होते हैं ॥ 97॥ जिनकी डाढ़ें तीक्ष्ण, सम और स्निग्ध होती हैं, दांत सफेद और सघन रहते हैं एवं जीभ लाल, लंबी और कोमल होती है वे भोगी होते हैं ॥ 98॥
जिनका मुख भरा हुआ, सौम्य, सम और कुटिलता रहित होता है वे राजा होते हैं । जिनका मुख बहुत बड़ा होता है वे अभागे होते हैं और जिनका मुख गोलाकार होता है वे मूर्ख होते हैं ॥99॥ संतान-रहित मनुष्यों का मुख स्त्री के समान तथा नीचा होता है । कंजूस मनुष्यों का मुख छोटा और निर्धन मनुष्यों का मुख लंबा होता है ॥100 ॥ जिनके कान कीला के समान हों वे राजा होते हैं, जिनके कानों पर रोम होते हैं वे दीर्घायु होते हैं, जिनकी नाक सीधी समान पुट वाली एवं छोटे छिद्रों से युक्त होती है वे भोगी होते हैं ॥101॥ जिनको एक छींक आवे वे धनाढ̖य, जिनको दो-तीन छींकें एक साथ आवें वे विद्वान् तथा जिनको लगातार अनेक खुली छींकें आवें दीर्घायु होते हैं ॥102॥ जिनके नेत्र अंत में लाल और कमलपत्र के समान हों वे लक्ष्मीमान् और जिनके गजेंद्र एवं बैल के समान हों वे राजा होते हैं ॥ 103 ॥ जो मनुष्य पिंगल वर्ण के नेत्रों से युक्त हैं वे अमांगलिक और पापी हैं उनके साथ न कभी बात करना चाहिए और न उनकी ओर खासकर देखना चाहिए ॥104॥ जिनके नेत्र मार्जार के नेत्रों के समान रहते हैं वे सदा मानसिक, वाचनिक और कायिक पापों से युक्त होते हैं तथा दुर्जन, अभागे, क्रूर और पापी माने गये हैं ॥105॥ समस्त लक्षणों के गुण और दोष का विचार करते समय चक्षु के लक्षण का पूर्ण विचार करना चाहिए क्योंकि फल की सिद्धि के लिए यही पर्याप्त कारण है ॥106॥ विद्वान् को चाहिए कि वह मनुष्य के मान, उन्मान, देह, चाल-ढाल, वंश, उत्तमवर्ण और प्रकृति को देखकर फल का प्रतिपादन करे ॥107॥
इस प्रकार पुस्तक बाँचे जाने पर मधुपिंगल को यह आशंका हो गयी कि हमारे नेत्र में दोष है इसीलिए वह सभा से निकलकर चला गया ॥108॥ यद्यपि मधुपिंगल नवयौवन से युक्त था तथापि सुलसा को छोड़कर दीक्षित हो गया और मुनिचर्या को धारणकर अनेक देशों में विहार करने लगा ॥109॥ इधर राजा सगर बड़ा चतुर था इसलिए वह कमल के समान सुंदर नेत्रों वाली सुलसा को स्वयंवर में स्वयं प्राप्त कर सुख का उपभोग करने लगा ॥110॥ आचार्य कहते हैं कि ऐसी प्रवृत्ति तत्काल तो चतुराई कही जाती है परंतु वह सदा छिपी नहीं रहती इसलिए इसका करने वाला प्राणी आगामी काल में अवश्य ही दुष्परिणाम को प्राप्त होता है― उसका खोटा फल भोगता है ॥111॥
तदनंतर एक दिन मध्याह्न के समय पारणा के लिए किसी नगर में आये हुए दिगंबर मुद्रा धारी मधुपिंगल को एक सामुद्रिक शास्त्री ने देखा ॥112॥ वह पैर से लेकर मस्तक तक मुनिराज के समस्त अवयवों को देखकर बहुत भारी आश्चर्य में पड़ गया और सिर हिलाता हुआ कहने लगा कि इन मुनि के शरीर में तिल बराबर भी ऐसा अवयव नहीं दिखाई देता जो सामुद्रिक शास्त्र की शुद्ध दृष्टि से दूषित किया जा सके अर्थात् जिसमें सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार दोष बताया जा सके ॥113-114 ॥ इनके शरीर में जो उत्तमोत्तम अन्य लक्षणों का समूह है वह तो एक ओर रहे एक नेत्रों की पीलाई ही इनके राज्य तथा सौभाग्य को सूचित कर रही है ॥ 115॥ क्योंकि ऐसे लक्षणों से युक्त होने पर भी जब यह नयी जवानी में भिक्षा के लिए इधर-उधर भ्रमण कर रहा है तब ऐसे सामुद्रिक शास्त्र को धिक्कार हो ॥116 ॥ यदि दुर्दैव इसे पीड़ित ही करना चाहता है तो फिर निर्दोष लक्षणों के समूह से इसे युक्त क्यों किया ? ॥117॥ अथवा यह भी हो सकता है कि जो मनुष्य सुख की इच्छा रखते हैं वे दुःख से भयभीत होने के कारण फलों से लदी किंतु खोटा फल देने वाली विष लता के समान प्राप्त हुई लक्ष्मी को छूते भी नहीं ॥118॥ यथार्थ में यह मुनि शुभ लक्षणों से पूर्ण और शुद्ध कुल का है तथा मोक्ष को इच्छा से तप कर रहा है इसलिए इसका दीक्षा द्वारा संतोष धारण करना युक्त ही है ॥ 119 ॥
सामुद्रिक के उक्त वचन सुनकर किसी मनुष्य ने उससे कहा कि क्या आपने इसके सामुद्रिक शास्त्र की बात सुनी नहीं ? वह तो समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध है ॥ 120 ॥ सुलसा के स्वयंवर में इकट्ठे हुए दुष्ट राजाओं ने यह नेत्र के लक्षणों से हीन है यह कहकर इसे सभा में दूषित ठहराया था ॥121 ॥ उस समय कहा गया था कि जिस प्रकार पीठ पीछे दूसरे की बुराई करने वाला चुगल और अपनी प्रशंसा स्वयं करने वाला मनुष्य निंदित है उसी प्रकार यह पिंगल भी निंदित है दोषयुक्त है ॥122 ॥ यह मधुपिंगल भोला-भाला था तथा दूसरों को प्रमाण मानता था इसलिए शुभ नेत्रों का धारक होने पर भी अपने आपको अशुभ लक्षणवाला मान बैठा और लज्जित हो तप करने लगा ॥123 ॥ ठीक ही है जो मनुष्य प्रमाद, आलस्य और अहंकार के कारण स्वयं शास्त्रों को नहीं देखते हैं वे देखे-अनदेखे पदार्थों के विषय में धूर्तों के द्वारा ठगे जाते हैं ॥124॥ मधुपिंगल के चले जाने पर कन्या ने स्वयंवर में राजा सगर को वर लिया जिससे वह क्षत्रियों के समूह से घिरा भोगों में आसक्त है ॥125॥
यह सुनकर मधुपिंगल को बहुत भारी क्रोध उत्पन्न हुआ और उसी समय मरकर वह व्यंतर देवों में महाकाल नाम का नीच देव हुआ ॥126॥ आचार्य कहते हैं कि अहो ! कषायरूपी कषैले शरबत की बड़ी विषमता है क्योंकि वह सम्यग्दर्शनरूपी ओषधि के शरबत को अत्यंत दूषित कर देता है । भावार्थ-जिस प्रकार कषैला रस पीने से उसके पूर्व पिया हुआ मीठा रस दूषित हो जाता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायों की तीव्रता से सम्यग्दर्शनरूप औषधि का रस दूषित हो जाता है― सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥127 ॥ राजा सगर ने उपाय भिड़ाकर सुलसा का अपहरण किया था इसका ध्यान आते ही महाकाल, हृदय में क्रोधरूपी अग्नि से अत्यंत जलने लगा ॥128 ॥ उसका हृदय स्त्री के वैररूपी विष से जलकर तीव्र दाह उत्पन्न कर रहा था इसलिए वह शांतिरूपी जल से उसकी दाह को शांत करने के लिए समर्थ नहीं हो सका ॥129 ॥ वह विचार करने लगा कि जिससे शत्रु को दीर्घ संसार में दुःखों की परंपरा प्राप्त होती रहे में उसी उपाय को करता हूँ ॥130॥ आचार्य कहते हैं कि यह प्राणी अपने अपकारी मनुष्य का उन उपायों से अपकार करने की― बदला लेने की चेष्टा करता है कि जिनसे वह मूर्ख स्वयं नीचे की ओर जाता है― अधोगति को प्राप्त होता है ॥131 ॥ इस प्रकार राजा सगर के ऊपर क्रोध से देदीप्यमान होता हुआ महाकाल पृथिवी पर आया और आते ही उसने शास्त्रार्थ में नारद के द्वारा जीते हुए पर्वत को देखा ॥132॥ महाकाल ने शांडिल्य का रूप धारणकर पर्वत को विश्वास दिलाते हुए उससे कहा कि हे पर्वत ! तुम इस बात का खेद मत करो कि मैं शास्त्रार्थ में हार गया हूँ ॥133 ॥ ध्रौव्य नामक गुरु के मैं शांडिल्य, तुम्हारे पिता क्षीरकदंबक, वैन्य, उदंच और प्रावृत ये पाँच शिष्य थे ॥134 ॥ तुम क्षीरकदंबक के पुत्र हो इसलिए जो तुम्हारा पराभव है वह मेरा पराभव है और इसीलिए मैं उसे दूर करने के लिए उद्यत हूँ ॥135॥ तुम मेरी सहायता पाकर अपने क्षेत्र को निष्कंटक करो, क्योंकि वायु से प्रज्वलित भयंकर अग्नि को क्या कार्य कठिन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥136 ॥ इस प्रकार दुर्बुद्धि के धारक महाकाल ने पर्वत से कहकर तथा उसे आगे कर राजाओं सहित समस्त भरतक्षेत्र को सैकड़ों बीमारियों से व्याकुल कर दिया ॥137॥ उन बीमारियों को नष्ट करने के लिए पर्वत शांति कर्म करता था जिससे लोग विश्वास कर उसकी शरण में आने लगे ॥138 ॥ राजा सगर भी अनेक राजाओं के साथ आदरपूर्वक उसके पास आया और बताये हुए होम तथा मंत्र-विधान से नीरोग हो गया ॥139 ॥ दुष्ट महाकाल देव हिंसा की प्रेरणा देने के लिए स्वयं बनाये हुए अनार्ष वेद ब्राह्मणों को पढ़ाता था और उन्हें शीघ्र अपने वश कर लेता था ॥140॥ उसने यज्ञ के फल की इच्छा रखने वाले एवं साक्षात् विश्वास करने वाले क्षत्रिय आदि जनों को अश्वमेध, अजमेघ तथा गोमेध यज्ञ बतलाये ॥141 ॥ जिसमें सैकड़ों-हजारों राजा होमे जाते थे ऐसा राजसूय यज्ञ भी उस राजाओं के वैरी महाकाल ने दिखलाया था ॥142॥ यद्यपि प्रागदिवाकर देव नाम का विद्याधर नारद के साथ आकर महाकाल के इस पाप कार्य में विघ्न करने के लिए उद्यत था तथापि देव की माया ने उसके इस कार्य में विघ्न डाल दिया ॥143 ॥ सो ठीक ही है क्योंकि अणिमादि गुणों से उत्कृष्ट नोच देव जब अपनी विक्रिया दिखाने में तत्पर है तब मनुष्य विद्याबल से समृद्ध होने पर भी क्या कर सकता है ? ॥144 ॥ इस प्रकार निज और पर का अहित करने वाले उस दुष्ट देव ने आज्ञापालन करने में उद्यत ब्राह्मण आदि के द्वारा बहुत जीवों का घात कराकर उन्हें यज्ञ में होम दिया । यही नहीं उस निर्दय ने राजा सगर और सुलसा को भी यज्ञ में होम दिया और इस प्रकार हिंसानंद नामक रौद्र ध्यान को प्राप्त होता हुआ अपने स्थान पर चला गया ॥145-146 ॥ क्रोध से युक्त महाकाल देव ने उन अनार्ष वेदों को चलाया और पर्वत आदि ने समस्त पृथिवी पर उनका विस्तार किया ॥147॥ नारद का एक सम्यग्दृष्टि पुत्र था । उसे प्रागदिवाकर देव नामक विद्याधर ने विद्याओं से सहित अपनी परम कल्याणी पुत्री प्रदान की थी ॥148॥ उसी वंश में वसुदेव ब्राह्मण को क्षत्रिय स्त्री से यह सोमश्री नाम की उत्तम कन्या उत्पन्न हुई है ॥149॥ कराल ब्रह्मदत्त नामक अवधिज्ञानी मुनिराज ने कहा था कि जो इसे वेदों में जीतेगा उसी महापुरुष की यह स्त्री होगी ॥150॥
यह सुनकर श्रीमान् कुमार वसुदेव ने उस समय समस्त वेदों का अध्ययन किया और सोमश्री को जीतकर विधिपूर्वक उसके साथ विवाह किया ॥151॥ जिस प्रकार नववधू का कुमार वसुदेव में दृढ़ प्रेम था उसी प्रकार कुमार वसुदेव का भी नववधू में दृढ़ प्रेम था । इसलिए उनके सुख का क्या वर्णन किया जाये ? ॥152॥ कुमार वसुदेव ने एकांत स्थान में अपने वक्षःस्थल से उसके स्थूल स्तनों का पीडन किया, केश खींचते हुए चुंबन किया, नखक्षत करते हुए नितंब का आस्फालन किया और अधर को डंसा परंतु कामातुर सोमश्री ने उस प्रकार की बाधा को कुछ भी नहीं जाना ॥153 ॥ जो अपने सौंदर्य तथा गुणरूपी संपदा के द्वारा विद्याधरों से भी श्रेष्ठ थे, जो विद्याधरियों के साथ भ्रमण करते थे, जो रतिक्रिया में अत्यंत कुशल एवं युवा थे और जो सुबुद्धि रूपी सुंदर स्त्री के सखा थे, ऐसे कुमार वसुदेव ने गिरितट नामक नगर में स्वतंत्र एवं जिनभक्त रमणी सोमश्री के साथ अत्यधिक क्रीड़ा की ॥ 154॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में सोमश्री के लाभ का वर्णन करने वाला तेईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥23॥