ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 5
From जैनकोष
तनुवातवलय के अंतभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक स्थित है । मेरुपर्वत एक लाख योजन विस्तार वाला है । उसी मेरुपर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक की अवधि निश्चित है । भावार्थ― मेरुपर्वत कुल एक लाख योजन विस्तार वाला है । उसमें एक हजार योजन तो पृथिवी तल से नीचे है और निन्यानवे हजार योजन पृथिवी तल से ऊपर है । तिर्यग्लोक की सीमा इसी मेरुपर्वत से निश्चित है अर्थात् तिर्यग्लोक पृथिवीतल के एक हजार योजन नीचे से लेकर निन्यानवे हजार योजन ऊँचाई तक है ॥1॥ इसी मध्यम लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्रों से वेष्टित गोल तथा जंबूवृक्ष से युक्त जंबूद्वीप स्थित है ॥2॥ यह जंबूद्वीप लवण समुद्र का स्पर्श करने वाला है, वज्रमयी वेदिका से घिरा हुआ है, महा मेरुरूपी नाभि से युक्त है अर्थात् महामेरु इसके मध्यभाग में अवस्थित है तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है ॥3॥ जंबूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल है ॥4-5॥ विभाग करने पर गणितज्ञ मनुष्य इस जंबू-द्वीप का घनाकार क्षेत्र सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख, चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन बतलाते हैं ॥6-7॥ इस जंबूद्वीप में सात क्षेत्र, एक मेरु, दो कुरु, जंबू और शाल्मली नामक दो वृक्ष, छह कुलाचल, कुलाचलों पर स्थित छह महासरोवर, चौदह महानदियां, बारह विभंगा नदियां, बीस वक्षारगिरि, चौंतीस राजधानी, चौंतीस रूप्याचल, चौंतीस वृषभाचल, अड़सठ गुहाएँ, चार गोलाकार नाभिगिरि और तीन हजार सात सौ चालीस विद्याधर राजाओं के नगर हैं । ऊपर कही हुई इन सभी चीजों से यह जंबूद्वीप अत्यधिक सुशोभित है । जंबूद्वीप से दूने क्षेत्र तथा मेरु आदि से दूसरा धातकीखंड द्वीप देदीप्यमान है और पुष्करार्ध भी धातकीखंड के समान समस्त क्षेत्रों तथा पर्वतों आदि से युक्त है ॥8-12॥ जंबू द्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं । इनमें भरत क्षेत्र सबसे दक्षिण में है और ऐरावत क्षेत्र उत्तर में है । प्रारंभ से लेकर विदेह क्षेत्र तक के क्षेत्र विस्तार को अपेक्षा पूर्व क्षेत्र से चौगुने-चौगुने विस्तार वाले हैं । भावार्थ भरत क्षेत्र से चौगुना विस्तार हैमवत क्षेत्र का है, हैमवत क्षेत्र से चौगुना विस्तार हरि क्षेत्र का है और हरि क्षेत्र से चौगुना विस्तार विदेह क्षेत्र का है । विदेह क्षेत्र से आगे के क्षेत्रों का विस्तार चौथा भाग है अर्थात् विदेह क्षेत्र के विस्तार से चौथा भाग विस्तार रम्यक क्षेत्र का है, रम्यक क्षेत्र से चौथा भाग विस्तार हैरण्यवत का है और उससे चौथा भाग विस्तार ऐरावत क्षेत्र का है ॥13-14॥ हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं । इनमें आगे-आगे का कुलाचल पूर्व-पूर्व कुलाचल से चौगुने-चौगुने विस्तार वाला है । यह क्रम निषध कुलाचल तक ही चलता है । इसके आगे उत्तर के तीन कुलाचल दक्षिण के कुलाचलों के समान कहे गये हैं ॥15-16॥ प्रथम भरत क्षेत्र का विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में छह भाग प्रमाण है ॥17॥ जंबू दीप की चौड़ाई एक लाख योजन में यदि एक सौ नब्बे योजन का भाग दिया जाय तो भरत क्षेत्र का उक्त विस्तार स्पष्ट हो जाता है । भावार्थ-भरत क्षेत्र का जो विस्तार 526 योजन बतलाया है । वह जंबू द्वीप के विस्तार का एक सौ नब्बेवां भाग है ॥18॥ क्षेत्र से पर्वत दूने विस्तार वाला है और पर्वत से क्षेत्र दूने विस्तार वाला है । दूने विस्तार का यह क्रम विदेह क्षेत्र तक चलता है । उसके आगे के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार ह्रास को लिये हुए है अर्थात् आगे के क्षेत्र और पर्वत अर्ध-अर्ध विस्तार वाले हैं ॥19॥ भरत क्षेत्र के ठीक मध्य भाग में विजयार्ध नाम से प्रसिद्ध एक दूसरा पर्वत सुशोभित है । इसके दोनों अंतभाग पूर्व और पश्चिम के दोनों समुद्रों को प्राप्त हैं तथा इस पर विद्याधरों का निवास है ॥20॥ यह पर्वत पृथिवी से पचीस योजन ऊंचा है, सवा छह योजन पृथिवी के नीचे स्थित है, पचास योजन चौड़ा है और चाँदी के समान सफेद वर्ण वाला है ॥21॥ पृथिवी से दस योजन ऊपर चलकर इस पर्वत की दो श्रेणियाँ हैं जो पर्वत के ही समान लंबी हैं तथा जिन में अनेक विद्याधरों का निवास है ॥22॥ दक्षिण महाश्रेणी में पचास और उत्तर महाश्रेणी में साठ नगर हैं, ये सब नगर स्वर्गपुरी के समान हैं ॥ 23 ॥ यहाँ से दस योजन और ऊपर चलकर आभियोग्य जाति के देवों की क्रीड़ा के योग्य अनेक नगर स्थित हैं ॥24॥ यहाँ से पांच योजन और ऊपर चढ़कर एक पूर्णभद्र नाम की श्रेणी है जो दस योजन चौड़ी है तथा विजयार्ध नामक देव से आश्रित है अर्थात जहाँ विजयार्ध देव का निवास है ॥ 25 ॥ इस विजया पर्वतपर नौ कूट हैं जिन में पहला सिद्धायतन, दूसरा दक्षिणार्धक, तीसरा खंडकप्रपात, चौथा पूर्णभद्र, पांचवां विजयार्धकुमार, छठवां मणिभद्र, सातवाँ तामिस्रगुहक, आठवाँ उत्तरार्ध और नौवां वैश्रवण कूट है । ये नौ कूट पर्वत के अग्रभाग पर सुशोभित हैं तथा सवा छह योजन ऊँचाई को धारण करते हैं ॥26-28॥ इन पर्वतों का विस्तार मूल में सवा छह योजन, मध्य में कुछ कम पाँच योजन और ऊपर कुछ अधिक तीन योजन कहा गया है ॥ 29 ॥ सिद्धायतन कूट पर पूर्व दिशा को ओर सिद्धकूट नाम से प्रसिद्ध अत्यंत उज्ज्वल जिनमंदिर सुशोभित है ॥30॥ इस अविनाशी जिनमंदिर की ऊँचाई पौन कोस, चौड़ाई आधा कोस और लंबाई एक कोस है ॥31॥ भरत क्षेत्र के अर्ध भाग में विजया पर्वत की दक्षिण प्रत्यंचा नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह कला प्रमाण विस्तृत है ॥32॥ प्रत्यंचा के धनुःपृष्ठ का विस्तार नौ हजार सात सौ छयासठ योजन तथा कुछ अधिक एक कला प्रमाण कहा गया है । 33 ॥ इस निकटस्थ धनुष का बाण दो सौ अड़तीस योजन और तीन कला प्रमाण है ॥ 34 ॥ विजयार्ध पर्वत की उत्तर प्रत्यंचा दस हजार सात सौ सत्ताईस योजन तथा ग्यारह कला प्रमाण है ॥ 35 ॥ इस उत्तर प्रत्यंचा का धनु:पृष्ठ दस हजार सात सौ तैंतालीस योजन तथा कुछ अधिक पंद्रह कला प्रमाण है ॥36॥ विजयार्ध के इस उत्तर धनु:पृष्ठ का बाण दो सौ अठासी योजन तथा तीन कला प्रमाण है ॥37॥ जिनेंद्रदेव ने विजयार्ध पर्वत की चूलिका कुछ कम चार सौ छियासी योजन बतलायी है ॥38॥ विजयार्ध पर्वत की पूर्व-पश्चिम भुजाओं का विस्तार चार सौ अठासी योजन तथा कुछ अधिक सोलह कला प्रमाण है ॥39॥ भरतक्षेत्र को प्रत्यंचा चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और कुछ कम छह कला है ॥40॥ इसका धनु:पृष्ठ चौदह हजार पाँच सौ अट्ठाईस योजन तथा ग्यारह कला प्रमाण है ॥41॥ भरतक्षेत्र संबंधी धनुःपृष्ठ के बाण का विस्तार पाँच सौ छब्बीस योजन और छह कला प्रमाण प्रसिद्ध है ॥ 42 ॥ भरतक्षेत्र की चूलिका अठारह सौ पचहत्तर योजन तथा कुछ अधिक साढ़े छह भाग बतलायी है ॥ 43 ॥ इसकी पूर्व-पश्चिम भुजाओं का विस्तार एक हजार आठ सौ बानवे योजन तथा कुछ अधिक साढ़े सात भाग है ॥44॥ हिमवान् कुलाचल की ऊँचाई सौ योजन, गहराई पचीस योजन और चौड़ाई एक हजार बावन योजन तथा बारह कला प्रमाण कही गयी है ॥ 45-46॥ इस हिमवत् कुलाचल की प्रत्यंचा का प्रमाण चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन तथा कुछ कम एक कला प्रमाण बतलाया है ॥ 47-48॥ इसका बाण एक हजार पाँच सौ अठहत्तर योजन तथा अठारह कला प्रमाण कहा है ॥49॥ हिमवत् कुलाचल की चूलिका का विस्तार पाँच हजार दो सौ तीस योजन तथा कुछ अधिक सात कला है ॥50॥ इसको पूर्व-पश्चिम दोनों भुजाओं का विस्तार पाँच हजार तीन सौ पचास योजन साढ़े पंद्रह भाग है ॥51॥ इस सुवर्णमय हिमवत् कुलाचल के शिखर पर पूर्व से पश्चिम तक पंक्तिरूप से स्थित ग्यारह कूट सुशोभित हो रहे हैं ॥ 52 ॥ उन कूटों के नाम इस प्रकार हैं― 1 सिद्धायतनकूट, 2 हिमवत् कूट, 3 भरतकूट, 4 इलाकूट, 5 गंगाकूट, 6 श्रीकूट, 7 रोहितकूट, 8 सिंधुकूट, 9 सुरादेवीकूट, 10 हैमवतकूट और 11 वैश्रवणकूट । इन सभी कूटों की ऊँचाई पचीस योजन प्रमाण है ॥53-55॥ इन सबका मूल में पचीस योजन, मध्य में पौने उन्नीस योजन और ऊपर साढ़े बारह योजन विस्तार है ॥ 56 ॥
इसके आगे दूसरा हैमवत क्षेत्र है इसका विस्तार दो हजार एक सौ पाँच योजन तथा पांच कला प्रमाण माना गया है ॥57 ॥ इसकी प्रत्यंचा सैंतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन तथा कुछ कम सोलह कला प्रमाण है ॥58॥ इस प्रत्यंचा का धनुष पृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन तथा कुछ अधिक दस कला प्रमाण है ॥56॥ और इसका बाण तीन हजार छह सौ चौरासी योजन तथा चार कला है ॥60꠰। इसकी चूलिका छह हजार तीन सौ इकहत्तर योजन तथा कुछ अधिक सात कला है ॥61॥ पूर्व-पश्चिम भुजाओं का मान छह हजार सात सौ पचपन योजन और कुछ अधिक तीन भाग है ॥62 ॥
इसके आगे महाहिमवान् कुलाचल है इसका,विस्तार चार हजार दो सौ दस योजन तथा दस कला है ॥63॥ यह पर्वत पृथिवी से दो सौ योजन ऊपर उठा है तथा पचास योजन पृथिवी के नीचे गया है ॥ 64॥ इसकी प्रत्यंचा का विस्तार तिरपन हजार नौ सौ इकतीस योजन तथा कुछ अधिक छह कला है ॥65॥ इस प्रत्यंचा के धनुःपृष्ठ का विस्तार सत्तावन हजार दो सौ तिरानवे योजन तथा कुछ अधिक दस अंश है ॥66 ॥ इसके बाण की चौड़ाई सात हजार आठ सौ चौरानवे योजन तथा चौदह भाग है ॥67॥ इस महाहिमवान् पर्वत की चूलिका आठ हजार एक सौ अट्ठाईस योजन तथा साढ़े चार कला है ॥68॥ इसकी दोनों भुजाएँ नौ हजार दो सौ छिहत्तर योजन तथा साढ़े नौ कला प्रमाण हैं ॥69 ॥ चाँदी के समान श्वेतवर्ण वाले इस पर्वत के शिखर पर रत्नों से शिखरों को अनुरंजित करने वाले उत्तम एवं स्थायी आठ कूट सुशोभित हो रहे हैं ॥70॥ उन कूटों के नाम इस प्रकार हैं―1 सिद्धायतनकूट, 2 महाहिमवत् कूट, 3 हैमवत कूट, 4 रोहिता कूट, 5 ह्री कूट, 6 हरिकांत कूट, 7 हरिवर्ष कूट और 8 वैडूर्य कूट । सब कूटों की ऊंचाई पचास योजन प्रमाण है ॥ 71-72 ॥ मूल में इन कूटों का विस्तार पचास योजन, मध्य में साढ़े सैंतीस योजन और ऊपर पचीस योजन है ॥73 ॥
इसके आगे हरिवर्ष क्षेत्र है इसका विस्तार आठ हजार चार सौ इक्कीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से एक भाग प्रमाण है ॥ 74॥ इसकी प्रत्यंचा का विस्तार तिहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और सत्रह कला है ॥ 75 ॥ इस प्रत्यंचा का धनुःपृष्ठ आठ हजार चार सौ सोलह योजन तथा कुछ अधिक चार कला है ॥76 ॥ इसके बाण का विस्तार सोलह हजार तीन सौ पंद्रह योजन तथा पंद्रह कला है ॥ 77॥ इसकी चूलिका नौ हजार नौ सौ पचासी योजन तथा साढ़े पाँच कला है ॥ 78 ॥ और इसकी भुजाओं का प्रमाण तेरह हजार तीन सौ इकसठ योजन साढ़े छह कला है ॥ 79॥
इसके आगे निषध पर्वत है इसका विस्तार सोलह हजार आठ सौ बयालीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में दो भाग प्रमाण है ॥80॥ इसकी ऊंचाई चार सौ योजन है और पृथिवी के नीचे गहराई सौ योजन प्रमाण है ॥81॥ इस पर्वत की प्रत्यंचा चौरानवे हजार एक सौ छप्पन योजन तथा कुछ अधिक दो कला है ॥ 8 ॥ इसका धनुःपृष्ठ एक लाख चौबीस हजार तीन सौ छियालीस योजन तथा कुछ अधिक नौ कला है ॥83॥ इस धनुःपृष्ठ के बाण का विस्तार तैंतीस हजार एक सौ सत्तावन योजन तथा सत्रह कला है ॥ 84॥ इस निषध कुलाचल की चूलिका दस हजार एक सौ सत्ताईस योजन तथा कुछ अधिक दो कला है ॥ 85 । इसकी भुजाओं का प्रमाण बीस हजार एक सौ पैंसठ योजन तथा कुछ अधिक अढ़ाई कला है ॥ 86॥ इस स्वर्णमय निषधाचल के मस्तक पर नौ कूट हैं जो कि सब प्रकार के रत्नों की किरणों से सुशोभित हो रहे हैं ॥ 87॥ उन कूटों के नाम इस प्रकार हैं-1 सिद्धायतन कूट, 2 निषध कूट, 3 हरिवर्ष कूट, 4 पूर्व विदेह कूट, 5 ह्री कूट, 6 धृति कूट, 7 सीतोदा कूट, 8 विदेह कूट और 9 रुचक कूट ॥ 88-89॥ इन सबकी ऊंचाई और मूल की चौड़ाई सौ योजन है, बीच की चौड़ाई पचहत्तर योजन और मस्तक― ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई पचास योजन है ॥10॥
इसके आगे विदेह क्षेत्र है इसका विस्तार तैंतीस हजार छह सौ चौरासी योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में चार भाग प्रमाण है ॥91॥ इसकी प्रत्यंचा का प्रमाण मानो समानता के कारण स्पर्धा करने वाले जंबू द्वीप के बराबर एक लाख योजन है ॥92॥ इसके धनुःपृष्ठ का विस्तार एक लाख अठावन हजार एक सौ तेरह योजन तथा कुछ अधिक साढ़े सोलह कला है ॥13॥ बाण का विस्तार पचास हजार योजन है सो ठीक ही है क्योंकि उतने बड़े धनुष का उतना बड़ा बाण होना उचित ही है ॥94॥ विदेहार्ध की चूलिका दो हजार नौ सौ इक्कीस योजन तथा कुछ अधिक अठारह कला है ॥95 ॥ इसकी दोनों भुजाओं का विस्तार सोलह हजार आठ सौ तिरासी योजन तथा सवा तेरह कला से कुछ अधिक है ॥ 16 ॥ जंबू द्वीप के दक्षिणार्ध भाग में क्षेत्र तथा पर्वत आदि का जो प्रमाण बतलाया है वही उत्तरार्ध भाग में भी जानना चाहिए ॥97॥ प्रत्यंचा, धनु:पृष्ठ, बाण, भुजा तथा चूलिका का जो विस्तार दक्षिणार्ध में बतलाया गया है वही शेषार्ध में भी है ॥98॥ उत्तरार्ध के पर्वतों में जो विशेषता है उसे बतलाते हैं― विदेह क्षेत्र के आगे जो वैडूर्यमणिमय नील पर्वत है उसके ऊपर निम्नलिखित नौ कूट हैं― 1 सिद्धायतन कूट, 2 नील कूट, 3 पूर्व विदेह कूट, 4 सीताकूट, 5 कीर्ति कूट, 6 नरकांतककूट, 7 अपर विदेह कूट, 8 रम्यक कूट और 9 अपदर्शन कूट । इन सब कूटों की ऊँचाई तथा मूल, मध्य और ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई निषधाचल के कूटों के समान है ॥ 99-101॥ रुक्मी पर्वत चाँदी का है उसके अग्रभाग पर निम्नलिखित आठ कूट हैं-पहला सिद्धायतन कूट, दूसरा रुक्मि कूट, तीसरा रम्यक कूट, चौथा नारी कुट, पांचवां बुद्धि कूट, छठा रूप्य कूट, सातवाँ हैरण्यवत कूट और आठवाँ मणिकांचनकूट । इन सबकी सामान्य ऊँचाई मूल मध्य तथा अग्र भाग का विस्तार महाहिमवान् पर्वत के कूटों के समान जानना चाहिए ॥102-104॥ शिखरी पर्वत सुवर्णमय है उसके अग्रभाग पर निम्नलिखित ग्यारह कूट हैं-1 सिद्धायतन कूट, 2 शिखरी कूट, 3 हैरण्यवत कूट, 4 सुरदेवी कूट, 5 खत्ता कूट, 6 लक्ष्मी कूट, 7 सुवर्ण कूट, 8 रक्तवती कूट, 9 गंधदेवी कूट, 10 ऐरावत कूट और 11 मणिकांचन कूट । ये सब कूट शोभा, मूल, मध्य और अंत संबंधी विस्तार तथा सुंदर ऊंचाई से हिमवत् पर्वत के कूटों के समान हैं ॥105-108॥ ऐरावत क्षेत्र के मध्य में जो विजयार्ध पर्वत है उसके अग्रभाग पर भी नौ कूट हैं जो कि उत्तमोत्तम रत्न तथा मणियों के समूह से देदीप्यमान हो रहे हैं । उन कूटों के नाम इस प्रकार हैं-1 सिद्धायतन कूट, 2 उत्तरार्ध कूट, 3 तामिस्रगुह कूट, 4 मणिभद्र कूट, 5 विजयार्ध कुमार कूट, 6 पूर्णभद्र कूट, 7 खंडकप्रपात कूट, 8 दक्षिणार्ध कूट और 9 वैश्रवण कूट । ये सब कूट प्रमाण की अपेक्षा भरत क्षेत्र संबंधी विजयार्ध पर स्थित कूटों के तुल्य हैं ॥ 109-112 ॥ सात क्षेत्रों का विभाग करने वाले तथा पूर्व से पश्चिम तक लंबे जिन छह कुलाचलों का वर्णन पहले कर आये हैं उनमें से प्रत्येक के दोनों अंत भाग में वन खंड सुशोभित हैं । ये वन खंड समस्त ऋतुओं के फूलों से भरे तथा फलों के भार से नम्रीभूत वृक्षों और पक्षिसमूह तथा भ्रमरों के मधुर शब्दों से मनोहर हैं, आधा योजन विस्तृत हैं, चित्र-विचित्र मणियों की वेदिकाओं से सहित हैं और पर्वत की लंबाई के बराबर हैं ॥113-155॥ व्यास-विस्तार के रहस्य को जानने वाले आचार्यों ने इन वन खंडों की वेदिका की ऊंचाई आधा योजन और चौड़ाई पाँच सौ धनुष बतलायी है ॥116॥ वेदिकाओं के ऊपर योग्य स्थानों पर चारों ओर उत्तमोत्तम रत्नों से निर्मित नाना रंग के तोरण हैं ॥117॥ कुलाचलों के ऊपर चारों ओर मणि तथा रत्नों से बनी हुई दिव्य तथा दो कोस ऊंची पद्म-वेदि का है ॥ 118॥ मध्य लोक में गृह, द्वीप, समुद्र, पृथिवी, नदी, ह्रद और पर्वतों की जो वेदिकाएँ हैं उनकी ऊँचाई और विस्तार भी इसी प्रकार समझना चाहिए अर्थात् सबकी ऊंचाई आधा योजन और चौड़ाई पाँच सौ धनुष हैं ॥ 119॥
उक्त छह महाकुलाचलों के मध्यभाग में पूर्व से पश्चिम तक लंबे छह विशाल सरोवर हैं ॥ 120॥ उनके नाम इस प्रकार हैं-1 पद्म, 2 महापद्म, 3 तिगिंछ, 4 केसरी, 5 महापुंडरीक और 6 पुंडरीक ॥21॥ उन सरोवरों से चौदह नदियाँ निकली हैं जिन में सात तो पूर्व सागर में प्रवेश करती हैं और सात पश्चिम सागर में ॥ 122 ॥ उन नदियों के नाम इस प्रकार हैं 1 गंगा, 2 सिंधु, 3 रोह्या (रोहित ), 4 रोहितास्या, 5 हरित्, 6 हरिकांता, 7 सीता, 8 सीतोदा, 9 नारी, 10 नरकांता, 11 सुवर्णकूला, 12 रूप्यकूला, 13 रक्ता और 14 रक्तोदा । ये सब नदियां पृथिवीतल पर हजारों सहायक नदियों से युक्त हैं ॥123-125॥ पद्म सरोवर एक हजार योजन लंबा, पांच सौ योजन चौड़ा और दस योजन गहरा है ॥ 126 ॥ शुभ एवं शीतल जल से भरे हुए इस सरोवर को हिमवत् कुलाचल की वेदिका के तुल्य एक वेदि का चारों ओर से घेरे हुए है ॥127॥ इस पद्म सरोवर में एक योजन विस्तार वाला कमल है । यह कमल पानी से निकलकर आधा योजन ऊपर उठा हुआ है तथा एक कोस की उसकी कणिका सुशोभित है ॥ 128 ॥ दक्षिण तथा उत्तर भाग में जो अन्य सरोवर हैं उनको लंबाई-चौड़ाई आदि पूर्व-पूर्व के सरोवरों से दुगुनी-दुगुनी है तथा उन सब सरोवरों में कमल सुशोभित हैं ॥129 ॥ कमलों पर जो ऊँचे-ऊंचे भवन बने हुए हैं उनमें यथाक्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियां निवास करती हैं ॥130॥ ये सब देवियां एक पल्य की आयु वाली हैं । इनमें दक्षिण भाग की देवियाँ सौधर्मेंद्र की और उत्तर भाग की देवियाँ ऐशानेंद्र की आज्ञाकारिणी हैं । ये सब सामानिक देवों की सभा से सहित हैं ॥131॥
पद्म सरोवर के पूर्व द्वार से गंगा, पश्चिम द्वार से सिंधु और उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकली है । ये नदियाँ सरोवर से निकलकर कुछ दूर तक पर्वत पर ही बहती हैं ॥132॥ महापद्म सरोवर से रोह्या और हरिकांता, तिगिंछ से हरित् और सीतोदा, केशरी सरोवर से सीता और नरकांता, महापुंडरीक सरोवर से नारी और रूप्यकूला और पुंडरीक सरोवर से सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा नदी निकली हैं । इन नदियों के निकलने के द्वार तोरणों से सुशोभित हैं ॥133-135॥ जिस वज्र मुखद्वार से गंगा निकलती है उसका विस्तार छह योजन और एक कोस है तथा उसकी गहराई आधे कोस की है ॥136॥ उस द्वार पर चित्र-विचित्र मणियों से देदीप्यमान एक तोरण बना हुआ है जो नौ योजन तथा एक योजन के आठ भागों में तीन भाग प्रमाण ऊंचा है ॥ 137 ॥ गंगा नदी अपने निर्गम स्थान से निकलकर पांच सौ योजन तो पूर्व दिशा की ओर बही है फिर बलखाती हुई गंगा कूट से लौटकर दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र में आयी है ॥138 ॥ वह गंगा कुछ अधिक सौ योजन आकाश से उलंघकर पर्वत से पचीस योजन की दूरी पर गिरी है ॥139॥
हिमवत् पर्वत के दक्षिण तट पर एक जिह्विका नाम की प्रणाली है जो छह योजन तथा एक कोस चौड़ी है, दो कोस ऊंची तथा उतनी ही लंबी हैं और वृषभाकार अर्थात् गोमुख के आकार को है ॥140॥ इस प्रणाली द्वारा गंगा, गोशृंग का आकार धारण करती हुई श्रीदेवी के भवन के आगे गिरी है और वहाँ भूमि पर इसका विस्तार दस योजन हो गया है ॥ 141 ॥ भूमि पर साठ योजन चौड़ा तथा दस योजन गहरा एक वज्रमुख नाम का कुंड है इस कुंड के मध्य में एक द्वीप है जो आठ योजन चौड़ा है तथा पानी से दो कोस ऊंचा है । इस द्वीप के ऊपर एक वज्रमय पर्वत है जो मूल में चार योजन, मध्य में दो योजन, तथा अंत में एक योजन चौड़ा एवं दस योजन ऊंचा है ॥142-144॥ उस पर्वत के शिखर पर एक सुशोभित वज्रमय भवन है जो मूल में तीन हजार, मध्य में दो हजार और अंत में एक हजार धनुष विस्तृत है तथा भीतर पांच सौ धनुष लंबा, दो सौ पचास धनुष चौड़ा और दो हजार धनुष ऊँचा है ॥ 145-146॥ उस भवन का अस्सी योजन ऊँचा तथा चालीस योजन चौड़ा वज्रकपाट नाम का वज्रमय द्वार है ॥ 147॥ वज्रमुख कुंड से दक्षिण की ओर जाकर कहीं कुंडल के आकार गमन करती हुई गंगा विजयार्ध पर्वत की गुफा में आठ योजन चौड़ी हो गयी है ॥ 148॥ चौदह हजार नदियों के साथ जहाँ यह गंगा पूर्व लवण समुद्र में प्रवेश करती है वहाँ इसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजन की हो गयी है ॥ 149 ॥ गंगा जिस तोरण द्वार से लवण समुद्र में प्रवेश करती है वह तेरानवें योजन तीन कोस ऊँचा है तथा आधा योजन गहरा है ॥150॥
सिंधु नदी सब प्रकार से गंगा नदी के समान है केवल विशेषता यह है कि यह पश्चिम लवण समुद्र में मिली है । गंगा-सिंधु से लेकर विदेह क्षेत्र तक की समस्त नदियों की जिह्विका आदि का विस्तार दूना-दूना जानना चाहिए ॥151॥ समस्त नदियों के तोरण गहराई की अपेक्षा समान हैं तथा उन समस्त तोरणों में यथायोग्य दिक्कुमारी देवियाँ निवास करती हैं ॥152॥ रोहितास्या नदी दो सौ छिहत्तर योजन छह कला पर्वत पर बहती है । तदनंतर पर्वत से गिरकर श्री देवी के भवन की ओर गयी है ॥153 ॥ रोह्या नदी एक हजार छह सौ पाँच योजन पाँच कला पर्वतपर बहकर उससे पचास योजन दूर गिरी है ॥154॥ इसी प्रकार हरिकांता नदी भी महाहिमवान् पर्वतपर एक हजार छह सौ पचास योजन पाँच कला उत्तर दिशा की ओर बहकर सौ योजन दूर कुंड में गिरी है और वहाँ से पश्चिम समुद्र की ओर गयी है ॥155॥ हरित् नदी सात हजार चार सौ इक्कीस योजन एक कला निषध पर्वतपर बहकर सौ योजन दूर पर गिरी है ॥156॥ सीतोदा नदी भी इतनी ही दर पर्वतपर बहती है । तदनंतर चार सौ योजन ऊंचे आकाश को उल्लंघ कर पर्वत से दो सौ योजन दूर गिरती है ॥157॥ सीता नदी भी इतनी ही दूर नील पर्वत पर बहती है और इतनी ही दूर आकाश में उछलकर पूर्व विदेह क्षेत्र को भेदन करती है ॥158॥ उत्तर दिशा की छह नदियां दक्षिण दिशा की छह नदियों के समान हैं इसलिए उनके प्रपात आदि का वर्णन दो-दो नदियों के युगल रूप में यथायोग्य करना चाहिए ॥159 ॥ गंगा, रोह्या, हरित्, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व समुद्र की ओर जाती हैं और शेष सात नदियाँ पश्चिम समुद्र की ओर ॥160 ॥ हैमवत आदि चार क्षेत्रों के मध्य में क्रम से श्रद्धावान्, विजयावान्, पद्मवान् और गंधवां नाम के चार गोलाकार विजया पर्वत हैं ॥161॥ ये पर्वत मूल में एक हजार योजन, मध्य में सात सौ पचास योजन और मस्तक पर पाँच सौ योजन चौड़े हैं तथा एक हजार योजन ऊँचे हैं ॥162 ॥ इन पर्वतों का दूसरा नाम नाभि गिरि है जिस प्रकार सीता, सीतोदा नदी मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देती हुई गयी है इसी प्रकार रोह्या, रोहितास्या आदि नदियाँ भो आधा योजन दूर रहकर इन पर्वतों की प्रदक्षिणा देती हुई गयी हैं ॥163॥ इन पर्वतों के शिखरों पर निर्मित भवनों में क्रम से स्वाति, अरुण, पद्म और प्रभास नाम के व्यंतर देव निवास करते हैं ॥164 ॥
जंबू द्वीप में जिन क्षेत्र, पर्वत तथा नदी आदि का वर्णन किया है, धातकीखंड तथा पुष्करार्ध में वे सब दूने-दूने हैं ॥165 ॥ संख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन कर एक दूसरा जंबू द्वीप भी है । इस जंबू द्वीप में जिन देवों का कथन किया है उस दूसरे जंबू द्वीप में भी इन देवों के नगर हैं ॥166॥ नील कुलाचल और सुमेरु पर्वत के मध्य में जो प्रदेश स्थित हैं वे उत्तरकुरु माने जाते हैं और सुमेरु तथा निषध कुलाचल के बीच के प्रदेश देवकुरु कहे जाते हैं ॥167॥ ये दोनों कुरु विस्तार की अपेक्षा ग्यारह हजार आठ सौ योजन दो कला प्रमाण माने गये हैं ॥168 ॥ इनकी प्रत्यंचा त्रेपन हजार और धनुःपृष्ठ छह हजार चार सौ अठारह योजन बारह कला है ॥169 ॥ इन कुरु प्रदेशों का वृत्त क्षेत्र इकहत्तर हजार एक सौ तैंतालीस योजन तथा एक योजन के नौ अंशों में चार अंश प्रमाण है ॥ 170॥
विदेहक्षेत्र का समस्त विस्तार तैंतीस हजार छह सौ चौरासी योजन चार कला है ॥171॥ मेरुपर्वत की पूर्वोत्तर (ऐशान) दिशा में, सीता नदी के पूर्व तट पर नील कुलाचल के समीप जंबूस्थल कहा गया है ॥172॥ पाँच सौ धनुष चौड़ी और दो कोस ऊँची रत्नमयी वेदिका इस स्थल को चारों ओर से घेरे हुए है ॥173॥ इस स्थल की चौड़ाई मूल में पाँच सौ कोस, मध्य में आठ कोस और अंत में दो कोस कही गयी है ॥174॥ इस स्वर्णमय स्थल में आठ कोस ऊँची एक पीठिका स्थित है जो मूल में बारह कोस, मध्य में आठ कोस और अंत में चार कोस चौड़ी है ॥175॥ इस पीठिका के नीचे-नीचे चारों ओर रत्न निर्मित छह वेदिकाएं और हैं तथा उन सभी वेदिकाओं पर दो-दो रत्नमयी वेदिकाएं हैं । उन छहों वेदिकाओं पर जो लघु वेदिकाएँ हैं वे पद्म वेदिका कहलाती हैं ॥176॥
इस पूर्वोक्त पीठिका के ऊपर जंबू वृक्ष सुशोभित है । वह जंबू वृक्ष मूल में एक कोस चौड़ा है, उसका स्कंध दो योजन ऊँचा है, उसको गहराई दो कोस है, उसकी शाखाएँ आठ योजन तक फैली हुई हैं, उसका महास्कंध नीलमणि का बना हुआ है, वह हीरा की शाखाओं से शोभित है, चाँदी के सुंदर पत्तों से युक्त है, उसके फूल-फल तथा अंकुर मणिमय हैं, और उसने अपने लाल-लाल पल्लवों के समूह से समस्त दिशाओं के अंतराल को लाल-लाल कर दिया है ॥177-179॥ पृथिवीकाय रूप तथा नाना शाखाओं से सुशोभित इस महावृक्ष की चारों दिशाओं में चार महाशाखाएँ हैं ॥180॥ इनमें उत्तरदिशा की शाखा पर आश्चर्य उत्पन्न करने वाला जिनमंदिर है और शेष तीन दिशाओं की शाखाओं पर भवन बने हुए हैं जिनमें आदर-अनादर का निवास है ॥181॥ उस जंबूवृक्ष के नीचे उन दोनों देवों के तीस योजन चौड़े और पचास योजन ऊँचे अनेक भवन बने हुए हैं ॥182॥ वेदिकाओं के सात अंतरालों में एक-एक प्रधान वृक्ष से सहित जो अनेक वृक्ष हैं वे ही इस जंबूवृक्ष के परिवार― वृक्ष कहलाते हैं ॥183॥ प्रथम वृक्ष के परिवार वृक्ष चार हैं, दूसरे के एक सौ आठ, तीसरे के चार हजार, चौथे के सोलह हजार, पाँचवें के बत्तीस हजार, छठे के चालीस हजार और सातवें के अड़तालीस हजार हैं । सात प्रधान वृक्षों को साथ मिलाने पर इन समस्त वृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ उन्नीस होती है ॥184-186 ॥
मेरुपर्वत की दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) दिशा में सीतोदा नदी के दूसरे तट पर निषधाचल के समीप रजतमय एक शाल्मली स्थल है ॥187॥ जंबूस्थल की समानता रखने वाले इस शाल्मली स्थल में शाल्मली वृक्ष है । उसका सब वर्णन जंबूवृक्ष के वर्णन के समान जानना चाहिए ॥188॥ शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर अविनाशी जिन-मंदिर है और शेष तीन शाखाओं पर जो भवन बने हुए हैं उनमें वेणु और वेणुदारी देव निवास करते हैं । जिस प्रकार उत्तरकुरु में आदर और अनादर देव इष्ट माने गये हैं उसी प्रकार देवकुरु में वेषु और वेणुदारी देव इष्ट माने गये हैं ॥189-190॥
नील पर्वत की दक्षिण दिशा में सीता नदी के पूर्व तट पर एक हजार योजन विस्तार वाले चित्र और विचित्र नाम के दो कूट हैं ॥191 ॥ इसी प्रकार निषध पर्वत की उत्तर दिशा में सीतोदा नदी के दोनों तटों पर यम कूट और मेघ कूट नाम के दो कूट हैं ॥192॥ ये कूट नाभि पर्वतों के समान विस्तार वाले हैं तथा इन कूटों पर कूटों के ही समान नाम वाले देव अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं ॥ 193॥ नील पर्वत से साढ़े पांच सौ योजन दूरी पर नदी के मध्य में नीलवान्, उत्तरकुरु, चंद्र, ऐरावण और माल्यवान् नाम के पांच ह्रद हैं । ये समस्त ह्रद पांच-पांच सौ योजन के अंतर से हैं तथा इनको दक्षिणोत्तर लंबाई पद्म ह्रद के समान मानी गयी है ॥ 194-195 ॥ इसी प्रकार निषध पर्वत से उत्तर को ओर नंदी के बीच निषध, देवकुरु, सूर्य, सुलस और तडित्प्रभ नाम के पाँच महाह्रद हैं । इन सबके तट रत्नों से चित्र-विचित्र हैं तथा सबके मूल भाग वज्रमय हैं । इन महाह्रदों में कमलों पर जो भवन बने हैं उनमें नागकुमार देव निवास करते हैं ॥196-197॥ प्रत्येक महाह्रद में एक-एक प्रधान कमल है जो जल से दो कोस ऊंचा है, एक योजन विस्तृत है और एक कोस विस्तृत कणिका से युक्त है ॥198॥ प्रत्येक प्रधान कमल के साथ परिवार रूप में एक लाख चालीस हजार एक सौ सत्रह कमल और भी हैं ॥199॥ तथा एक-एक महाह्रद के सम्मुख सीता,सीतोदा नदियों के तट पर कांचनकूट नाम के दस-दस पर्वत हैं ॥200॥ इन पर्वतों की ऊंचाई सौ योजन है तथा विस्तार मूल में सौ योजन, मध्य में पचहत्तर योजन और अग्रभाग में पचास योजन है ॥201॥ उन कांचन कूटों में प्रत्येक के ऊपर एक-एक अकृत्रिम शुभ जिन-प्रतिमाएं हैं जो निराधार हैं, मोक्ष मार्ग को प्रकाशित करने वाली हैं, पाँच सौ धनुष ऊंची हैं, मणिमयी, सुवर्णमयी तथा रत्नमयी हैं । एक-एक मेरु पर दो-दो सौ कूट हैं और पांचों मेरुओं के एक हजार कूट प्रसिद्ध हैं ॥202-203 ॥ इन पर्वतों के शिखरों पर अनेक क्रीड़ागृह बने हुए हैं उनमें महाकांति के धारक कांचनक नाम के देव सब ओर क्रीड़ा करते रहते हैं ॥204॥ मेरु पर्वत से पूर्व की ओर सीता नदी के उत्तर तट पर पद्मोत्तर और दक्षिण तट पर नीलवान् नाम का कूट है ॥205॥ मेरु पर्वत से दक्षिण की ओर सीतोदा नदी के पूर्व तट पर स्वस्तिक और पश्चिम तट पर अंजनगिरि कूट है ॥206 । इसी सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर कुमुद कूट और उत्तर तट पर पलाश कूट है, ये दोनों ही कूट मेरु से पश्चिम दिशा में माने गये हैं ॥ 207॥ सीता नदी के पश्चिम तट पर वतंस कूट और पूर्व तट पर रोचन नाम का विशाल कूट है, ये दोनों कूट मेरु पर्वत से उत्तर को ओर हैं । ये समस्त कूट भद्रशाल वन में सुशोभित हैं, कांचन कूटों के समान हैं तथा इनमें दिग्गजेंद्र नाम के देव निवास करते हैं ॥208-209 ॥ मेरु पर्वत को पश्चिमोत्तर दिशा में गंधमादन नाम का प्रसिद्ध पर्वत है । यह पर्वत सब ओर से सुवर्णमय है ॥210॥ मेरु को पूर्वोत्तर दिशा में माल्यवान् नाम का प्रसिद्ध पर्वत है । यह पर्वत वैडूर्यमणिमय है तथा स्वयं देदीप्यमान होता हुआ अतिशय प्रिय मालूम होता है ॥211 ॥ मेरु की पूर्व-दक्षिण दिशा में रजतमय सौमनस्य पर्वत और दक्षिण-पश्चिम कोण में सुवर्णमय विद्युत्प्रभ नाम का पर्वत है ॥212॥ ये चारों पर्वत नील और निषध पर्वत के समीप चार सौ योजन तथा मेरु पर्वत के समीप पाँच सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं ॥213॥ इनकी गहराई अपनी ऊंचाई का चतुर्थ भाग है, तथा देवकुरु और उत्तरकुरु के समीप इनकी चौड़ाई पाँच सौ योजन है ॥214॥ इन चारों की लंबाई तीस हजार दो सौ नौ योजन तथा छह कला प्रमाण कही गयी है ॥215 ॥ इन चारों पर्वतों पर मेरु पर्वत से लेकर अंत तक क्रम से सात, नौ, सात और नौ कूट हैं अर्थात् गंधमादन पर सात, माल्यवान् पर नौ, सौमनस्य पर सात और विद्युत्प्रभ पर नौ कूट हैं ॥216 ॥ 1 सिद्धायतन कूट, 2 गंधमादन कूट, 3 उत्तरकुरु कूट, 4 गंधमालिनि का कूट, 5 लोहिताक्ष कूट, 6 स्फटिक कूट और 7 आनंद कूट, ये सात कूट गंधमादन पर्वत पर हैं ॥ 217-218॥ 1 सिद्ध कूट, 2 माल्यवत् कूट, 3 उत्तरकुरु कूट, 4 कच्छा कूट, 5 सागर कूट, 6 रजत कूट, 7 पूर्णभद्र कूट, 8 सीता कूट और 9 हरिसह कूट, ये नौ कूट माल्यवान् पर्वत पर हैं ॥ 219-220॥ 1 सिद्ध कूट, 2 सौमनस कूट, 3 देवकुरु कूट, 4 मंगल कूट, 5 विमल कूट, 6 कांचन कूट और 7 विशिष्टक कूट, ये सात कूट सौमनस्य पर्वत पर हैं ॥221॥ 1 सिद्ध कूट, 2 विद्युत्प्रभ कूट, 3 देवकुरु कूट, 4 पद्मक कूट, 5 तपन कूट, 6 स्वस्तिक कूट, 7 शतज्वल कूट, 8 सीतोदा कूट और 9 हरिसह कूट, ये नौ कूट विद्युत्प्रभ पर्वत पर हैं ॥222-223॥ इन सब कूटों की ऊँचाई यथायोग्य अपनी-अपनी गहराई के समान कही गयी है ॥224॥ इन चारों पर्वतों के सिद्धायतन कूटों पर जो मंदिर हैं वे श्री सिद्ध भगवान् की प्रतिमाओं से सहित हैं तथा यथायोग्य सुशोभित हो रहे हैं ॥225॥ शेष तीन पर्वतों के अंतिम दो कूटों में व्यंतर देव क्रीड़ा करते हैं और मध्य में बने हुए सुंदर कोड़ा-भवनों में दिक्कुमारी देवियां रमण करती हैं ॥ 226 ॥ चारों पर्वतों के बीच-बीच के दो-दो कूट मिलकर आठ कूट होते हैं उनमें क्रम से 1 भोगंकरा, 2 भोगवती, 3 सुभोगा, 4 भोगमालिनी, 5 वत्समित्रा, 6 सुमित्रा, 7 वारिषेणा और 8 अचलावती ये आठ देवियां क्रीड़ा करती हैं ॥227॥
विदेह क्षेत्र में सोलह वक्षार गिरि हैं, उनमें 1 चित्रकूट, 2 पद्मकूट, 3 नलिन और 4 एकशैल ये चार पर्वत पूर्व विदेह में हैं तथा नील पर्वत और सीता नदी के मध्य हैं ॥228॥ 1 त्रिकूट, 2 वैश्रवण, 3 अंजन और 4 आत्मांजन ये चार भी पूर्व विदेह में हैं तथा सीता नदी और निषध कुलाचल का स्पर्श करने वाले हैं अर्थात् उनके मध्य हैं ॥229॥ 1 श्रद्धावान्, 2 विजयावान्, 3 आशीविष और4 सुखावह ये चार पश्चिम विदेह क्षेत्र में हैं । ये चारों देशों का भेद करने वाले हैं और अपनी प्रसिद्ध लंबाई से सीतोदा नदी तथा निषध पर्वत का स्पर्श करने वाले हैं ॥230-231॥ 1 चंद्रमाल, 2 सूर्यमाल, 3 नागमाल और 4 मेघमाल ये चार पश्चिम विदेहक्षेत्र में हैं तथा नील और सीतोदा के मध्य में स्थित हैं ॥232॥ इन समस्त वक्षार पर्वतों की ऊंचाई नदी तट पर पांच सौ योजन की और अन्यत्र सब जगह पूर्व वर्णित वक्षारों के समान चार सौ योजन है ॥233॥ इन सोलह वक्षार पर्वतों में प्रत्येक के शिखर पर चार-चार कूट हैं उनमें कुलाचलों के समीपवर्ती कूटों पर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं । नदी के समीपवर्ती कूटों पर जिनेंद्र भगवान् के चैत्यालय हैं और बीच के कूटों पर व्यंतर देवों के क्रीडागृह बने हुए हैं ॥234-235॥
मेरु की पूर्व-पश्चिम दिशा में लंबा तथा नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त एक सुंदर भद्रशाल वन है । यहाँ क्रम से उसका वर्णन किया जाता है ॥236॥ उसकी पूर्व-पश्चिम भाग की लंबाई बाईस हजार योजन और दक्षिण-उत्तर चौड़ाई ढाई सौ योजन है ॥237॥ वन के पूर्व-पश्चिम भाग में एक वेदिका है । यह वेदि का एक योजन ऊँची, एक कोस गहरी और दो कोस चौड़ी जानना चाहिए ॥238॥ 1 ग्राहवती, 2 ह्रदवती और 3 पंकवती ये तीन नदियाँ नील पर्वत से निकलकर सीता नदी की ओर जाती हैं तथा वक्षार पर्वतों के मध्य में स्थित हैं ॥239 ॥ 1 तप्तजला, 2 मत्तजला, 3 उन्मत्तजला ये तीन नदियाँ निषध पर्वत से निकलकर सोता नदी की ओर जाती हैं ॥240॥ 1 क्षीरोदा, 2 सीतोदा और 3 स्रोतोऽंतर्वाहिनी ये तीन नदियां निषध पर्वत से निकलकर सीतोदा नामक महानदी में प्रवेश करती हैं ॥24॥ उत्तर विदेह क्षेत्र में 1 गंधमादिनी, 2 फेनमालिनी और ऊर्मिमालिनी ये तीन नदियां नीलाचल से निकलकर सीतोदा नदी में मिली हैं ॥242॥ ऊपर कही हुईं बारह नदियां विभंगा नदी कहलाती हैं । ये प्रमाण में रोह्या नदी के समान हैं तथा इनके संगम स्थानों में जो तोरण द्वार हैं उनमें दिक्कुमारी देवियां निवास करती हैं ॥243 ॥
वक्षारगिरि और विभंगा नदियों के मध्य में सीता-सीतोदा नदियों के दोनों तटों पर मेरु की पूर्व और पश्चिम दिशा में बत्तीस विदेह हैं ॥ 244॥ उनमें 1 कक्षा, 2 सुकच्छा, 3 महाकच्छा, 4 कच्छकावती, 5 आवर्ता, 6 लांगलावर्ता, 7 पुष्कला और 8 पुष्कलावती ये आठ देश पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीता नदी और नील कुलाचल के मध्य प्रदक्षिणा रूप से स्थित हैं तथा प्रत्येक देश के छह खंड हैं ॥245-246 ॥ 1 वत्सा, 2 सुवत्सा, 3 महावत्सा, 4 वत्सकावती, 5 रम्या, 6 रम्यका, 7 रमणीया और 8 मंगलावती ये आठ देश पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी और निषध पर्वत के मध्य स्थित हैं । ये चक्रवतियों के देश हैं और दक्षिणोत्तर लंबे हैं ॥247-248॥ 1 पद्मा, 2 सुपद्मा, 3 महापद्मा, 4 पद्मकावती, 5 शंखा, 6 नलिनी, 7 कुमुदा और 8 सरिता ये आठ देश पूर्व विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी और निषध पर्वत के मध्य स्थित हैं तथा दक्षिणोत्तर लंबे हैं ॥249-250॥ 1 वप्रा, 2 सुवप्रा, 3 महावप्रा, 4 वप्रकावती, 5 गंधा, 6 सुगंधा, 7 गंधिका और 8 गंधमालिनी ये आठ देश पश्चिम विदेह क्षेत्र में नील पर्वत और सीतोदा नदी के मध्य स्थित हैं तथा दक्षिणोत्तर लंबे हैं । ये चक्रवर्तियों के क्षेत्र कहे गये हैं अर्थात् इनमें चक्रवतियों का निवास रहता है ॥251-252॥ इन सबका पूर्वा पर विस्तार योजन के आठ भागों में से एक भाग कम दो हजार दो सो तेरह योजन है ॥253॥ समस्त विदेह क्षेत्र के विस्तार में से नदी का विस्तार घटा देने पर जो शेष रहे उसका आधा भाग किया जाये । यही देश, वक्षारगिरि और विभंगानदियों की लंबाई है भावार्थ― समस्त विदेहक्षेत्र का विस्तार तैंतीस हजार छह सौ चौरासी योजन चार कला है, उसमें सीता नदी का पाँच सौ योजन का विस्तार घटा देने पर तैंतीस हजार एक सौ चौरासी योजन चार कला का विस्तार शेष रहता है । इसका आधा करने पर सोलह हजार पाँच सौ बानवे योजन दो कला क्षेत्र बचता है । यही कच्छा आदि देश वक्षारगिरि और विभंगानदियों की लंबाई का है ॥254॥ इन बत्तीस विदेहों में बत्तीस विजयार्ध पर्वत हैं । इनकी लंबाई कच्छादि देशों की चौड़ाई के समान है अर्थात् ये कुलाचल से लेकर नदी तक लंबे हैं । प्रत्येक विजयार्ध पर नौ-नौ कूट हैं और इन सबका वर्णन भरतक्षेत्र के विजयार्ध के समान है ॥255 ॥ इन विजयार्धों की दो-दो श्रेणियां हैं, प्रत्येक श्रेणी में पचपन-पचपन नगर हैं और उन नगरों में भरत तथा ऐरावत क्षेत्र के समान विद्याधर निवास करते हैं ॥ 256 ॥ 1 क्षेमा, 2 क्षेमपुरी, 3 रिष्टा, 4 रिष्टपुरी, 5 खड्गा, 6 मंजूषा, 7 औषधि और 8 पुंडरीकिणी ये आठ नगरियाँ क्रम से कच्छा आदि देशों की राजधानियां कही गयी हैं । इनमें शलाका पुरुषों की उत्पत्ति होती है ॥257-258॥ 1 सुसीमा, 2 कुंडला, 3 अपराजिता, 4 प्रभंकरा, 5 अंकावती, 6 पद्मावती, 7 शुभा और 8 रत्नसंचया ये आठ क्रम से वत्सा आदि देशों की राजधानियां जानना चाहिए ॥259-260॥ 1 अश्वपुरी, 2 सिंहपुरी, 3 महापुरी, 4 विजयापुरी, 5 अरजा, 6 विरजा, 7 अशोका और 8 वीतशोका ये आठ नगरियां क्रम से पद्मा आदि देशों की राजधानियां प्रसिद्ध हैं ॥261-262॥ 1 विजया, 2 वैजयंती, 3 जयंती, 4 अपराजिता, 5 चक्रा, 6 खड्गा, 7 अयोध्या और 8 अवध्या ये आठ वप्रा आदि देशों की राजधानियाँ हैं । ये सभी नगरियाँ दक्षिणोत्तर दिशा में बारह योजन लंबी हैं, पूर्व-पश्चिम में नौ योजन चौड़ी हैं, सुवर्णमयी कोट और तोरणों से युक्त हैं । रत्नमयी चित्र-विचित्र किवाड़ों से युक्त पाँच सौ छोटे और एक हजार बड़े दरवाजों तथा सात सौ झरोखों से सहित हैं ॥ 263-265 ॥ इन अविनाशी नगरियों में बारह हजार गलियां और एक हजार चौक हैं ॥ 266 ॥
कच्छा आदि प्रत्येक क्षेत्र में गंगा-सिंधु नाम की दो नदियाँ हैं जो नील पर्वत से निकलकर विजयार्ध पर्वत की दोनों गुफाओं को उल्लंघन करती हुई सीता नदी में प्रवेश करती हैं ॥ 267 ॥ प्रत्येक विजयार्ध पर्वत में उसकी चौड़ाई के समान लंबी, आठ योजन ऊँची और बारह योजन चौड़ी दो-दो गुफाएँ हैं ॥ 268॥ ये गंगा आदि सोलह नदियाँ, भरत क्षेत्र की गंगा नदी के समान हैं । इसी प्रकार निषधाचल से निकली हुई सोलह रक्ता, रक्तोदा नदियाँ भी ऐरावत की रक्ता-रक्तोदा के समान हैं ॥ 269 ॥ पश्चिम विदेह क्षेत्र में भी इसी प्रकार गंगा, सिंधु और रक्ता-रक्तोदा नाम की सोलह-सोलह नदियां निषधाचल और नीलाचल से निकलकर सीतोदा नदी की ओर जाती हैं ॥ 270 ॥ समान नाम से जिनका कथन किया गया है ऐसी ये समस्त नदियाँ अत्यंत प्रीति को बढ़ाने वाली हैं तथा प्रत्येक नदी चौदह हजार नदियों से युक्त है ॥ 271 ॥ सीता और सीतोदा नदियों का परिवार देवकुरु और उत्तरकुरु में चौरासी हजार नदियों का है । दोनों नदियों में प्रत्येक नदी के तट से बयालीस हजार नदियों का प्रवेश होता है ॥ 272 ॥ सीता, सीतोदा नामक उक्त नदियों में से प्रत्येक नदी में पाँच लाख बत्तीस हजार अड़तीस नदियाँ मिली हैं ॥273 ॥ पूर्व और पश्चिम विदेह में इन समस्त नदियों का प्रमाण दस लाख चौंसठ हजार अठहत्तर कहा गया है ॥ 274 ॥ गंगा, सिंधु एवं रक्ता रक्तोदा नदियों में प्रत्येक का परिवार चौदह-चौदह हजार नदियों का है ॥ 275॥ रोह्या, रोहितास्या और सुवर्णकूला, रूप्यकुला में प्रत्येक का अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियों का परिवार है ॥ 276 ॥ हरित्, हरिकांता और नारी, नरकांता में प्रत्येक नदी का परिवार छप्पन हजार नदियों का है ॥ 277॥ विदेह क्षेत्र को छोड़ अन्य क्षेत्रों की गंगा, सिंधु आदि नदियों की समस्त परिवार-नदियाँ मिलकर तीन लाख बानवे हजार बारह हैं ॥ 278॥ विदेह क्षेत्र से समुद्र तक जाने वाली समस्त नदियों को संख्या चौदह लाख छप्पन हजार नब्बे है ॥279 ॥
जंबू द्वीप में कांचन कूटों के समान वैडूर्य मणिमय तथा श्रेष्ठ देवों के द्वारा सेवनीय चौंतीस वृषभाचल हैं ॥ 280॥ सीता और सीतोदा दोनों नदियों के तट पर पूर्व-पश्चिम विदेहार्यंत लंबे तथा समुद्र तट से मिले हुए चार देवारण्य [दो देवारण्य, दो भूतारण्य] वन के प्रदेश हैं ॥281॥ इन वनों की वेदिकाएँ भद्रशाल वन के समान बाईस हजार दो सौ नौ योजन विस्तृत हैं ॥ 282॥ विदेह क्षेत्र के मध्य में प्रसिद्ध मेरु पर्वत स्थित है, उसकी सीमा देवकुरु और उत्तरकुरु तक फैली हुई है, वह निन्यानवे हजार योजन ऊँचा है, तीन मेखलाओं से युक्त है, चालीस योजन ऊँची चूलिका से सुशोभित है, उसकी गहराई एक हजार योजन है और पृथिवी तल पर चौड़ाई दस हजार नब्बे योजन तथा एक योजन के ग्यारह भागों में दस भाग प्रमाण है ॥ 283-285 ॥ उसकी परिधि इकतीस हजार नौ सौ दस योजन तथा कुछ अधिक दो भाग प्रमाण है ॥286॥ तल भाग से एक हजार योजन ऊपर चलकर पृथिवी पर इस पर्वत की चौड़ाई दस हजार योजन है ॥287 ॥ भद्रशाल वन के समीप इसकी परिधि इकतीस हजार छह सौ बाईस योजन तीन कोस बारह धनुष तीन हाथ और कुछ अधिक तेरह अंगुल है ॥288-289 ॥ भद्रशाल वन से पांच सौ योजन ऊपर चलकर मेरु पर्वत की चारों ओर मेखला पर पांच सौ योजन चौड़ा दूसरा नंदन वन है ॥ 290 ॥ वहाँ इस पर्वत की चौड़ाई नौ हजार नौ सौ चौवन योजन छह कला है ॥291॥ नंदन वन के समीप इस पर्वत को बाह्य परिधि इकतीस हजार चार सौ उन्यासी योजन से कुछ अधिक है ॥292 ॥ भीतरी चौड़ाई आठ हजार नौ सौ चौवन योजन छह कला है ।
अब इसकी अभ्यंतर परिधि कहते हैं ॥293 ॥ नंदन वन के समीप मेरु की अभ्यंतर परिधि अट्ठाईस हजार तीन सौ सोलह योजन तथा कुछ अधिक आठ कला है ॥ 294॥ नंदन वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर चलकर तीसरा सौमनस वन है । यह वन नंदन वन के ही समान है ॥295॥ सौमनस वन में पर्वत की बाह्य चौड़ाई चार हजार दो सौ बहत्तर योजन आठ कला है ॥296॥ और बाह्य परिधि तेरह हजार पांच सौ ग्यारह योजन छह कला है ॥ 297॥ पर्वत की जो बाह्य चौड़ाई बतलायी है उसमें एक हजार योजन कम करने पर भीतरी चौड़ाई निकलती है ऐसा मुनिगण कहते हैं ॥298 ॥ पर्वत की भीतरी परिधि दस हजार तीन सौ उनचास योजन तथा एक योजन के ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण है ॥299॥ यहाँ से छत्तीस हजार योजन ऊपर चलकर पर्वत के ऊपर चौथा पांडुक वन है, यहाँ पर्वत चार सौ चौरानवे योजन चौड़ा है ॥300꠰। यहाँ पर्वत की परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन कुछ अधिक एक कोस है ॥301॥ मेरुपर्वत के मस्तक पर चालीस योजन ऊंची वैडूर्य मणिमयी चूलिका है । यह चूलिका मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन और अंत में चार योजन चौड़ी है ॥302॥ चुलिका की परिधि मूल में सैंतीस योजन, मध्य में पच्चीस योजन और अग्रभाग में कुछ अधिक बारह योजन है ॥303॥ मेरुपर्वत को चूलिका से लेकर नीचे तक 1 लोहिताक्षमय, 2 पद्मरागमय, 3 वज्रमय, 4 सर्वरत्नमय, 5 वैडूर्यमय और 6 हरितालमय ये छह पृथिवी कायरूप परिधियाँ हैं । इन परिधियों में प्रत्येक का विस्तार सोलह हजार पाँच सौ योजन है । इनके सिवाय वनों के द्वारा की हुई एक सातवीं परिधि और भी है तथा उसके नीचे लिखे अनुसार ग्यारह भाग परीक्षकों के द्वारा जानने योग्य हैं― 1 भद्रशालवन, 2 मानुषोत्तर, 3 देवरमण, 4 नागरमण, 5 भूतरमण, 6 नंदन, 7 उपनंदन, 8 सौमनस, 9 उपसौमनस, 10 पांडुक और 11 उपपांडुक । इनमें से पृथिवी पर जो भद्रशालवन है उसमें भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण ये पाँच वन हैं । उससे ऊपर चलकर नंदनवन में नंदन और उपनंदन, सौमनसवन में सौमनस और उपसौमनस तथा पांडुकवन में पांडुक और उपपांडुक वन हैं ॥304-309॥ इन भागों में यदि ग्यारह भाग मेरु पर चढ़ा जाये तो वहाँ मूल भाग की चौड़ाई से एक भाग कम चौड़ाई हो जाती है । इसी प्रकार सब जगह योजन पर्यंत अंगुल हाथ आदि प्रमाणों में भी मेरु के विस्तार में हानि तथा वृद्धि समझना चाहिए । भावार्थ― ऊपर जो ग्यारह भाग बतलाये हैं उनमें प्रथम भाग से यदि ग्यारह योजन ऊँचा चढ़ा जाये तो मेरु की चौड़ाई मूलभाग की चौड़ाई से एक योजन कम हो जाती है और यदि ग्यारह हाथ या ग्यारह अंगुल चढ़ा जाये तो वहाँ की चौड़ाई मूलभाग की चौड़ाई से एक हाथ या एक अंगुल कम हो जाती है । इसी प्रकार यदि ऊपर से नीचे की और आया जाये तो वहाँ उसकी चौड़ाई वृद्धिंगत हो जाती है ॥310-311॥ परंतु विशेषता यह है कि यदि नंदन वन और सोमनस वन से ग्यारह योजन ऊँचा चढ़ा जाये तो वहाँ को चौड़ाई मूलभाग की चौड़ाई से कम नहीं होती किंतु बराबर ही रहती है ॥312॥ चूलिका से पाँच योजन ऊपर चढ़ने पर एक योजन चौड़ाई कम हो जाती है और पाँच अंगुल अथवा पाँच हाथ चढ़ने पर एक अंगुल अथवा एक हाथ चौड़ाई घट जाती है ॥313॥ एक लाख योजन विस्तार वाले मेरु पर्वत की दोनों पार्थ भुजाओं की लंबाई एक लाख सौ योजन तथा ग्यारह भागों में दो भाग प्रमाण है ॥314॥ नंदन वन को पूर्व दिशा में पण्य नाम का, दक्षिण दिशा में चारण नाम का, पश्चिम दिशा में गंधर्व नाम का और उत्तर दिशा में चित्रक नाम का भवन है । इन भवनों की चौड़ाई तीस योजन, ऊँचाई पचास योजन और परिधि नब्बे योजन है ॥315-316 ॥ इनमें पण्य नामक भवन में सोम, चारण नामक भवन में यम, गांधर्व नामक भवन में वरुण और चित्रक नामक भवन में कुबेर सपरिवार क्रीड़ा करता है ॥317 ॥ ये चारों लोकपाल पृथक्-पृथक् दिशाओं में साढ़े तीन करोड़ साढ़े तीन करोड़ स्त्रियों के साथ निरंतर क्रीड़ा करते हैं ॥318 ॥
सौमनसवन की चारों दिशाओं में क्रम से वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण भवन और सुवर्णप्रभ नाम के चार भवन हैं ॥319 ॥ इन भवनों की परिधि तथा अग्रभाग की चौड़ाई और ऊँचाई नंदनवन के भवनों से आधी समझनी चाहिए ॥320॥ इन भवनों में भी वे ही सोम, यम आदि लोकपाल अपनी इच्छानुसार उतनी ही स्त्रियों के साथ यथायोग्य क्रीड़ा करते हैं ॥ 321 ॥ पांडुकवन की चारों दिशाओं में लोहित, अंजन, हारिद्र और पांडु नाम के चार भवन हैं । इन भवनों की ऊँचाई आदि सौमनसवन के भवनों के समान है तथा इनमें वे ही लोकपाल उतनी ही स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हैं ॥322॥ इन लोकपालों में सोम नाम का लोकपाल पूर्व दिशा का स्वामी तथा स्वयंप्रभ विमान का अधिपति है । इसके वाहन तथा वस्त्राभूषण आदि सब लाल रंग के हैं और इसकी आयु अढ़ाई पल्य प्रमाण है । यह छह लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ देदीप्यमान भवनों का भोग करने वाला है अर्थात् इतने भवनों का यह स्वामी है ॥323-324॥ यम दक्षिण दिशा का राजा तथा अरिष्ट विमान का स्वामी है । इसके वाहन तथा वस्त्राभूषण आदि काले रंग के हैं और इसकी आयु ढाई पल्य प्रमाण है ॥325 ॥ वरुण पश्चिम दिशा का राजा है तथा जलप्रभ विमान का स्वामी है । उसकी वेषभूषा पीले रंग की है और वह तीन भाग कम तीन पल्य की आयु वाला है ॥326 ॥ कुबेर उत्तरदिशा का राज्य तथा वल्गुप्रभ विमान का स्वामी है । इसकी वेषभूषा शुक्ल रंग की है तथा आयु तीन पल्य प्रमाण है ॥327॥ मेरु की पूर्वोत्तर दिशा में नंदनवन के बीच कांचनकूट के समान एक बलभद्रक नाम का कूट है और उसमें कूट नामधारी बलभद्रक देव का निवास है ॥328॥ वहीं पर 1 नंदन, 2 मंदर, 3 निषध, 4 हिमवत्, 5 रजत, 6 रजक, 7 सागर और 8 चित्रक नाम के आठ कूट और हैं । ये प्रत्येक दिशा में क्रम से दो-दो हैं ॥ 329-330 ॥ इन कूटों की ऊँचाई पाँच सौ योजन है तथा मूलभाग की चौड़ाई पाँच सौ योजन, मध्यभाग की तीन सौ पचहत्तर योजन और ऊर्ध्वभाग की ढाई सौ योजन है ॥ 331 ॥ इन कूटों में क्रम से 1 मेघंकरा, 2 मेघवती, 3 सुमेधा, 4 मेघमालिनी, 5 तोयधारा, 6 विचित्रा, 7 पुष्पमाला और 8 अनिंदिता ये आठ प्रसिद्ध दिक्कुमारी देवियाँ निवास करती हैं ॥332-333 ॥ मेरुपर्वत की पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) दिशा में 1 उत्पलगुल्मा, 2 नलिना, 3 उत्पला और 4 उत्पलोज्ज्वला ये चार वापिकाएँ हैं । इनकी लंबाई पचास योजन, गहराई दस योजन और चौड़ाई पचीस योजन है ॥334-335 ॥ इन वापिकाओं के मध्य में इंद्र का भवन स्थित है । इस भवन की चौड़ाई इकतीस योजन एक कोस ऊँचाई साढ़े बासठ योजन और गहराई अर्ध योजन प्रमाण है ॥336-337॥ उस भवन के मध्य में इंद्र का सिंहासन है तथा चारों दिशाओं में चार लोकपालों के आसन हैं ॥338॥ इंद्रासन से उत्तर-पूर्व तथा पश्चिमोत्तर दिशा में सामानिक देवों के भद्रासन हैं ॥339 ॥ आगे आठ पट्टरानियों के भद्रासन हैं, पूर्व-दक्षिणदिशा में सभा के मुख्य-मुख्य अधिकारी देव बैठते हैं, दक्षिण में मध्यम अधिकारी, दक्षिण-पश्चिम में सामान्य अधिकारी एवं त्रायस्त्रिंश देव तथा उनके पीछे सैन्य के महत्तर देव आसन ग्रहण करते हैं ॥340-341 ॥ चार दिशाओं में आत्मरक्ष देवों के भद्रासन हैं । इंद्र अपने आसन पर पूर्वाभिमुख बैठता है और आत्मरक्ष उसकी सेवा करते हैं ॥342 ॥ पश्चिम-दक्षिण (नैऋत्य ) दिशा में उक्त वापिकाओं के समान 1 भंगा, 2 भंगनिभा, 3 कज्जला और 4 कज्जलप्रभा ये चार वापिकाएँ हैं ॥343॥ पश्चिमोत्तर (वायव्य) दिशा में 1 श्रीकांता, 2 श्रीचंद्रा, 3 श्रीमहिता और 4 श्रीनिलया ये चार वापिकाएं हैं । इनमें ऐशानेंद्र क्रीड़ा करता है ॥ 344॥ उत्तर-पूर्व (ऐशान) दिशा में 1 नलिना, 2 नलिनगुल्मा, 3 कुमुदा और 4 कुमुदप्रभा ये चार वापिकाएँ हैं । इनमें भवन आदि की समस्त रचना पूर्ववत् जाननी चाहिए । जिस प्रकार नंदन वन में इन सबकी रचना है उसी प्रकार सौमनस वन में भी जानना चाहिए ॥ 345-346 ॥
पांडुक वन की उत्तर-पूर्वादि दिशाओं में क्रम से 1 पांडुक, 2 पांडुकंबला, 3 रक्ता और 4 रक्तकंबला ये चार शिलाएँ हैं । ये शिलाएँ विदिशाओं में हैं तथा क्रम से सुवर्णमयी, रजतमयी, संतप्त स्वर्णमयी और लोहिताक्ष मणिमयी हैं एवं इनका अर्धचंद्र के समान आकार है ॥ 347-348 ॥ ये शिलाएं आठ योजन ऊंची, सौ योजन लंबी और पचास योजन चौड़ी हैं तथा इन पर जंबू द्वीप में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है ॥342 ॥ इनमें रक्ता और पांडुक शिला की लंबाई दक्षिणोत्तर दिशा में है तथा रक्ता और रक्तकंबला की लंबाई पूर्व-पश्चिम दिशा में है ॥ 350 ।꠰ उन शिलाओं पर रत्नमयी तीन-तीन सिंहासन हैं जो पांच सौ धनुष ऊँचे तथा उतने ही चौड़े हैं ॥351॥ तीन सिंहासनों में दक्षिण सिंहासन सौधर्मेंद्र का, उत्तर सिंहासन ऐशानेंद्र का तथा मध्य स्थित सिंहासन जिनेंद्र देव का है । इन सब सिंहासनों का मुख पूर्व दिशा की ओर होता है । भावार्थ-मध्य के सिंहासन पर श्री जिनेंद्र देव विराजमान होते हैं और दक्षिण तथा उत्तर के सिंहासनों पर क्रम से सौधर्मेंद्र और ऐशानेंद्र खड़े होकर उनका अभिषेक करते हैं ॥352॥ उन पांडुक आदि शिलाओं के सिंहासनों पर क्रम से भरत, पश्चिम विदेह, ऐरावत और पूर्व विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हुए तीर्थंकर बाल्यकाल में देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होते हैं । भावार्थ― भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का पांडुकशिला पर, पश्चिमविदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों का रक्ता पर और पूर्वविदेह के तीर्थंकरों का रक्तकंबला शिला पर जन्माभिषेक होता हैं ॥ 353 ॥ पांडुक वन की चारों महादिशाओं में चार जिनालय हैं जो सर्वरत्नमय हैं, दिव्य हैं तथा अकृत्रिम होने से नित्य हैं ॥354॥ इनकी पचीस योजन लंबाई, साढ़े बारह योजन चौड़ाई, आधा कोस गहराई और पोनें उन्नीस योजन ऊँचाई है ॥355 ॥ प्रत्येक मंदिर में एक बड़ा तथा आजू बाजू में दो लघु द्वार हैं । इनमें बड़े द्वार की ऊंचाई चार योजन और चौड़ाई दो योजन है तथा लघु द्वारों की ऊंचाई और चौड़ाई इससे आधी है ॥ 356 ॥ पांडुक वन के समान सौमनस वन की चारों दिशाओं में भी चार जिनालय हैं और उनके द्वारों की लंबाई-चौड़ाई आदि पांडुक वन के चैत्यालयों से दूनी है । कुलाचल तथा वक्षार गिरियों पर जो जिनालय हैं उनकी लंबाई-चौड़ाई आदि भी सौमनस वन के चैत्यालयों के समान कही गयो है ॥357॥ इसी प्रकार नंदन वन और भद्रशाल वन में भी चार-चार जिनालय हैं उनकी ऊँचाई तथा चौड़ाई आदि का प्रमाण सौमनस वन के जिनालयों से दूना है ॥ 358 ॥ समस्त विजयार्ध पर्वतों पर जो सिद्धायतन-जिनमंदिर हैं उनका प्रमाण वही जानना चाहिए जो कि भरत क्षेत्र संबंधी विजयार्ध के जिन-मंदिरों का है ॥ 359॥ उन समस्त जिनालयों में आठ योजन लंबा, दो योजन चौड़ा, चार योजन ऊँचा और एक कोस गहरा देवच्छंद नाम का एक गर्भगृह है ॥360॥ वह गर्भगृह, देदीप्यमान रत्नों से बने हुए विशाल स्तंभों, सुवर्णमयी दीवालों तथा उनमें खींचे हुए चंद्र, सूर्य, उड़ते हुए पक्षी एवं हरिण-हरिणियों के जोड़ों से अलंकृत है ॥361 ॥ उस गर्भगृह में सुवर्ण तथा रत्नों से निर्मित पाँच सौ धनुष ऊँची एक सौ आठ जिन-प्रतिमाएं विद्यमान हैं ॥ 362 ॥ उन प्रतिमाओं के समीप चमर लिये हुए नागकुमार और यक्षों के युगल खड़े हुए हैं तथा समस्त प्रतिमाएं सनत्कुमार और सर्वाह्ल यक्ष तथा निर्वृत्ति और श्रुत देवी की मूर्तियों से युक्त हैं ॥363 ॥ झारी, कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कुर्च, पाटलि का आदि तथा झाँझ-मंजीरा आदि एक सौ आठ-एक सौ आठ उपकरण उन प्रतिमाओं के परिवार स्वरूप जानना चाहिए अर्थात् ये सब उनके समीप यथायोग्य विद्यमान रहते हैं ॥364-365 ॥ उन जिनालयों में झरोखे, गृहजाली, मोतियों की झालर, रतन तथा मूंगारूप कमल और छोटी-छोटी घंटियों के समूह सुशोभित रहते हैं ॥366॥ प्रत्येक जिनमंदिर में एक-एक प्राकार-कोट है जो मूल में छह योजन, मध्य में चार योजन और मस्तक पर दो योजन चौड़ा है, चार योजन ऊँचा है, एक कोस गहरा है तथा सुवर्ण निर्मित है ॥367॥ इसकी चारों दिशाओं में आठ योजन ऊँचे, तथा चार योजन चौड़े चार तोरण द्वार हैं और पचास योजन ऊंचा इसका गोपुर है ॥368॥ सिंह, हंस, गज, कमल, वस्त्र, वृषभ, मयूर, गरुड़, चक्र और माला के चिह्नों से सुशोभित दस प्रकार की पंचवर्णी महाध्वजाओं से उन चैत्यालयों की दसों दिशाएं ऐसी जान पडती हैं मानो लहलहाते हुए नूतन पत्तों से ही युक्त हों । वे ध्वजाएं एक-एक जाति की एक सौ आठ-एक सौ आठ तथा दसों दिशाओं की मिलाकर एक हजार अस्सी होती हैं ॥339-370॥ चैत्यालयों के आगे विशाल सभामंडप, उसके आगे लंबा-चौड़ा प्रेक्षा-गृह, उसके आगे स्तूप और स्तूपों के आगे पद्मासन से विराजमान प्रतिमाओं से सुशोभित चैत्यवृक्ष हैं ॥371॥ जिनालयों से पूर्वदिशा में मच्छ तथा कछुआ आदि जल-जंतुओं से रहित, एवं स्वच्छ जल से भरा हुआ नंद नाम का सरोवर है ॥372॥ वज्रमूक, सवैडूर्य चूलिक, मणिचित, विचित्राश्चर्यकीर्ण, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मंदर, शैलराज, वसंत, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामंत्य, दिशामुत्तर, सूर्यावरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ और सुरगिरि इस प्रकार विद्वानों ने अनेक नामों के द्वारा सुमेरुपर्वत का वर्णन किया है ॥373-376॥
इस प्रकार से वर्णित जंबूद्वीप को चारों ओर से जगती घेरे हुए है । यह जगती इसी जंबूद्वीप का अंतिम अवयव-भाग है ॥377॥ वह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन, और अग्रभाग में चार योजन चौड़ी है, आठ योजन ऊँची है तथा पृथिवी के नीचे आधा योजन गहरी है ॥378॥ उसका मूल भाग वज्रमय है, मध्य भाग सब प्रकार के रत्नों से निर्मित है और मस्तक-अग्रभाग वैडूर्य मणियों का बना है । वह जगती अपनी कांति से दसों दिशाओं को देदीप्यमान करती हुई स्थित है ॥ 379 ॥ जगती के मध्य में एक वेदिका है जो मूल और अग्रभाग में पाँच सौ धनुष चौड़ी है तथा दो कोस ऊंची है ॥380 ॥ वेदिका के आभ्यंतर तथा बाह्य दोनों भागों में सुवर्णमय उत्तम शिला पट्टों से युक्त, एवं वापिकाओं और भवनों से सुशोभित देवारण्य नाम का सुंदर वन है ॥381॥ इनमें निम्नश्रेणी को वापियाँ सौ धनुष, मध्यम श्रेणी की डेढ़ सौ धनुष और उत्तम श्रेणी की दो सौ धनुष चौड़ी हैं । इन सबकी गहराई अपनी-अपनी चौड़ाई का दसवां भाग हैं ॥382 ॥ देवारण्य वन में जो लघु प्रासाद हैं वे पचास धनुष चौड़े, सौ धनुष लंबे और पचहत्तर धनुष ऊंचे हैं ॥383 ॥ इन प्रासादों के द्वार छह धनुष चौड़े, बारह धनुष ऊँचे और चार धनुष गहरे हैं ॥384॥ मध्यम और उत्तम प्रासादों तथा उनके द्वारों की लंबाई-चौड़ाई एवं ऊँचाई लघु प्रासादों से क्रमशः दूनी और तिगुनी है किंतु द्वारों की गहराई दूनी-दूनी है ॥385 ॥ उस वन में मालाओं की पंक्ति कदली आदि वृक्ष, प्रेक्षागृह, सभागृह, वीणागृह, गर्भगृह, लतागृह, चित्रगृह, प्रसाधनगृह तथा मोहनास्थान नाम के अनेक रत्नमयी सुंदर-सुंदर गृह सब ओर सुशोभित हैं । ये सब स्थान व्यंतर देवों के द्वारा सेवित हैं ॥ 386-387॥ ये भवन देवों के मन को हर्षित करने वाले रत्नखचित हंसासन, क्रौंवासन, मुंडासन, मृगेंद्रासन, मकरासन, प्रबालासन, गरुडासन, विशाल इंद्रासन और गंधासन आदि अनेक आसनों से युक्त हैं । ये आसन स्फटिकमणि के बने हैं, इनमें कितने ही आसन ऊँचे हैं, कितने ही नीचे हैं, कितने ही लंबे हैं, कितने ही स्वस्तिक के समान हैं और कितने ही गोल हैं ॥388-382॥ जगती को पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार द्वार हैं ॥390 ॥ इनमें प्रत्येक द्वार आठ योजन ऊँचा, चार योजन चौड़ा, नाना रत्नों को किरणों से अनुरंजित और वज्रमयी देदीप्यमान किवाड़ों से युक्त है ॥391 ॥ जगती के अभ्यंतर भाग में उन द्वारों की अंतरज्या का प्रमाण सत्तर हजार सात सौ दस योजन तीन कोस, चौदह सौ चौबीस धनुष, तीन हाथ और इक्कीस अंगुल है ॥392-393 ॥ इस ज्या के धनुष पृष्ठ का परिमाण, उन्यासी हजार छप्पन योजन, तीन कोस, एक हजार पाँच सौ बत्तीस धनुष तथा सात अंगुल है ॥ 394-395 ॥ अंतर के जानने वाले आचार्यों ने उन द्वारों का पारस्परिक अंतर धनुःपृष्ठ के प्रमाण से चार योजन कम निश्चित किया है ॥ 396॥
संख्यात द्वीपों के अनंतर जंबूद्वीप के समान एक दूसरा जंबूद्वीप है उसकी पूर्वदिशा में विजयद्वार के रक्षक विजयदेव का नगर सुशोभित है ॥397॥ वेदिका से युक्त वह नगर बारह योजन चौड़ा है । चारों दिशाओं के चार तोरणों से विभूषित, सब ओर से सुंदर और आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है ॥ 398॥
उस नगर के चारों ओर एक प्राकार है, उसका विस्तार अग्रभाग में एक धनुष के आठ भागों में तीन भाग तथा मूल में उससे चौगुना है । इस प्राकार की गहराई आधा योजन है ॥399॥ ऊँचाई साढ़े सैंतीस योजन है और इसकी प्रत्येक दिशा में पचीस-पचीस गोपुर हैं ॥400॥ प्रत्येक गोपुर की ऊँचाई इकतीस योजन एक कोस है, चौड़ाई उससे दूनी है और गहराई आधा योजन प्रमाण है ॥401॥ उन गोपुरों पर सत्रह-सत्रह खंड के भवन बने हुए हैं । ये भवन सब प्रकार के रत्नों से व्याप्त तथा स्वर्णमय हैं ॥402॥ गोपुरों के मध्य में देवों के उत्पन्न होने का स्थान है जो एक कोस मोटा और बारह योजन चौड़ा है ॥ 403 ॥ उस उत्पत्ति स्थान के चारों ओर एक वेदिका है जो पाँच सौ धनुष चौड़ी, दो कोस ऊंची और चार तोरणों से युक्त है ॥404॥
उस नगर के मध्य में एक विशाल भवन है जो प्रमाण में गोपुर के समान है और उसका दरवाजा आठ योजन ऊंचा, चार योजन चौड़ा तथा विजय नामक देव के द्वारा सेवित है ॥405॥ उस भवन के द्वार का तोरण हीरे का बना है तथा स्वर्ण और रत्नमय उसके किवाड़ हैं । उसकी चारों दिशाओं में उसी के समान विस्तार वाले और भी अनेक भवन बने हुए हैं ॥406॥ दूसरे मंडल में उन भवनों की चारों दिशाओं में उन्हीं के समान विस्तार वाले, रत्नों के देदीप्यमान भवन बने हुए हैं ॥ 407॥ तीसरे मंडल में भी इसी प्रकार भवनों को रचना है परंतु उनका प्रमाण पूर्व प्रमाण से आधा है । चौथे मंडल की चारों दिशाओं में जो भवन-रचना है वह तीसरे मंडल को भवन-रचना के समान है ॥408॥ पांचवें मंडल में जो भवन हैं वे चौथे मंडल के भवनों से अर्ध प्रमाण हैं और छठे मंडल के भवन पांचवें मंडल के भवनों के समान हैं ॥ 409 ॥ आदि के दो मंडलों में उत्पत्ति स्थान की वेदि का के तुल्य वेदि का है और उसके आगे दो-दो मंडलों की वेदिकाएँ पूर्व-पूर्व वेदि का के प्रमाण से आधी-आधी विस्तार वाली जानना चाहिए ॥410॥
बीच के भवन में चमर और सफेद छत्रों से युक्त विजयदेव का उत्तम सिंहासन है । उस पर वह विजयदेव पूर्वाभिमुख होकर बैठता है ॥411 ॥ उसकी उत्तर दिशा में छह हजार सामानिक देव बैठते हैं तथा आगे और दो दिशाओं में छह पट्ट देवियां आसन ग्रहण करती हैं ॥412 ॥ पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) दिशा में आठ हजार उत्तम परिषद देव बैठते हैं । मध्यम परिषद् के दस हजार देव दक्षिण दिशा में स्थित होते हैं । बाह्य परिषद् के बारह हजार देव, पश्चिम-दक्षिण (नैऋत्य) दिशा में आसनारूढ़ होते हैं और सात सेनाओं के महत्तर देव पश्चिम दिशा में आसन ग्रहण करते हैं ॥413-414॥ चारों दिशाओं में अठारह हजार अंग-रक्षक रहते हैं और चारों दिशाओं में उतने ही उनके भद्रासन हैं ॥415॥ विजयदेव के अठारह हजार परिवार देव हैं । इन सबके द्वारा सेवित होता हुआ वह कुछ अधिक एक पल्य तक जीवित रहता है ॥ 416 ॥ विजयदेव के भवन से उत्तर दिशा में एक सुधर्मा नाम को सभा है जो छह योजन लंबी, तीन योजन चौड़ी, नौ योजन ऊंची और एक कोस गहरी है ॥417॥ सुधर्मा सभा से उत्तरदिशा में एक जिनालय है जिसकी लंबाई चौड़ाई आदि का विस्तार सुधर्मा सभा के समान है । पश्चिमोत्तर दिशा में उपपार्श्व सभा है ॥418॥ उसके आगे अभिषेक सभा, उसके आगे अलंकार सभा, और उसके आगे व्यवसाय सभा है । ये सब सभाएं सुधर्मा सभा के समान हैं ॥419॥ विजयदेव के नगर में सब मिलाकर पाँच हजार चार सो सड़सठ भवन हैं ॥420॥
विजयदेव के नगर से बाहर पचीस योजन चलकर पूर्वादि दिशाओं में चार वन हैं ॥421॥ उनमें पहला अशोकवन, दूसरा सप्तपर्ण वन, तीसरा चंपकवन और चौथा आम्रवन है ॥422॥ ये वन बारह योजन लंबे और पाँच सौ योजन चौड़े हैं । इन वनों के मध्य में क्रम से अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आम के प्रधान वृक्ष हैं । इन वृक्षों की पीठिका जंबू वृक्ष की पीठिका से आधी है तथा इनका निज का विस्तार जंबू वृक्ष से आधा है ॥423-424॥ उन चारों वनों की चारों दिशाओं में यथायोग्य अशोकादि देवों के द्वारा पूजित जिनेंद्र देव की रत्नमयी चार प्रतिमाएं हैं ॥ 425 ॥ अशोक वन की उत्तर-पूर्व दिशा में अशोकपुर नाम का नगर है इसमें अशोक नामक देव का भवन है जिसका विस्तार विजयदेव के भवन के समान है ॥426 ॥ सप्तपर्ण वन की पूर्व-दक्षिण दिशा में सप्तपर्णपुर है उसमें पूर्व प्रमाण को धारण करने वाला सप्तपर्ण देव का भवन है ॥427॥ चंपक वन की दक्षिण-पश्चिम दिशा में चंपक देव का चंपकपूर और आम्रवन की पश्चिमोत्तर दिशा में आम्रदेव का आम्र नगर है ॥428॥ वैजयंत आदि तीन देव दक्षिणादि दिशाओं में बने हुए नगरों के स्वामी हैं तथा अपने भवन और परिवार आदि की अपेक्षा विजयदेव के समान है ॥429 ॥ इस प्रकार जंबू द्वीप का वर्णन किया ।
अब लवणसमुद्र का वर्णन करते हैं --
वेदिका से सहित लवणसमुद्र, दो लाख योजन विस्तार वाला है और वह परिखा के समान जंबूद्वीप को घेरकर स्थित है ॥430॥ इसकी परिधि पंद्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन में कुछ कम है ॥431॥ तथा इसके गणित का प्रकीर्णक पद (क्षेत्रफल) अठारह हजार नौ सौ तिहत्तर करोड़, छियासठ लाख, उनसठ हजार छह सौ योजन है ॥ 432-433 ॥ इसकी ऊपर-नीचे चौड़ाई दस हजार योजन, गहराई एक हजार योजन और अवस्थितरूप से ऊँचाई ग्यारह योजन प्रमाण है ॥434॥ वह लवणसमुद्र, तटांत से पंचानवे हाथ जाने पर एक हाथ, पंचानवे अंगुल जाने पर एक अंगुल और पंचानवे योजन जाने पर एक योजन गहरा है ॥435॥ और पंचानवे अंगुल, पंचानवे हाथ या पंचानवे योजन जाने पर यह समुद्र सोलह अंगुल, सोलह हाथ या सोलह योजन ऊँचा है अर्थात् तटांत से पंचानवे अंगुल जाने पर सोलह अंगुल ऊँचा है, पंचानवे हाथ जाने पर सोलह हाथ ऊँचा है और पंचानवे योजन जाने पर सोलह योजन ऊँचा है ॥436 ॥ शुक्ल पक्ष में समुद्र का जल पाँच हजार योजन तक ऊँचा बढ़ जाता है और कृष्ण पक्ष में स्वाभाविक ऊंचाई जो ग्यारह हजार योजन है वहाँ तक घट जाता है ॥437॥ शुक्ल पक्ष में समुद्र प्रतिदिन तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भाग बढ़ता है तथा कृष्ण पक्ष में उतना ही घटता है ॥438॥ वेदि का के अंत में समुद्र मक्षिका के पंख के समान अत्यंत सूक्ष्म है परंतु जब उसके जल में वृद्धि होती है तब आधा योजन तक बढ़ जाता है ॥ 439॥ शुक्लपक्ष में वेदि का के अंत में प्रतिदिन समुद्र की वृद्धि दो सौ छयासठ धनुष, दो हाथ और सोलह अंगुल होती है और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन उतनी ही हानि होती है ॥440॥ संकुचित होता हुआ समुद्र नीचे भाग में नाव के समान रह जाता है और ऊपर पृथिवी पर विस्तीर्ण हो जाता है तथा आकाश में इसके विपरीत जुड़ी हुई दो नौकाओं के पुट के समान अथवा जौ की राशि के समान नीचे चौड़ा और ऊपर संकीर्ण हो जाता है ॥ 441॥
वेदी से पंचानवे हजार योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में नीचे चार पाताल विवर हैं ॥442॥ उनमें पूर्व दिशा में पाताल, दक्षिण में बडवामुख, पश्चिम में कदंबुक और उत्तर में यूपकेसर नाम का पाताल है ॥443 ॥ इन चारों पातालों के मूल और अग्रभाग का विस्तार दस हजार योजन है तथा गहराई और अपने मध्य भाग का विस्तार एक-एक लाख योजन प्रमाण माना गया है ॥444॥ ये पाताल-विवर गोली के समान हैं अर्थात् इनका तल और ऊपर का विस्तार अल्प है तथा मध्य का अधिक है । इनकी वज्रमयी दीवालों की मोटाई सब ओर से पांच-पांच सौ योजन है ॥445॥ इन विवरों के तीन-तीन भाग हैं उनमें से एक भाग तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक कला प्रमाण है ॥ 446॥ इनके तीसरे ऊर्ध्व भाग में केवल जल रहता है, नीचे के भाग में बलवान् वायु रहती है और बीच के भाग में क्रम से जल तथा वायु दोनों रहते हैं ॥447॥ पातालों में जो वायु है उसका उच्छवास-ऊँचा उठना और निःश्वास-नीचे आना स्वाभाविक है उसी के कारण उनमें जल का ऊँचा-नीचा परिवर्तन होता रहता है अर्थात् जब वायु ऊपर उठती है तब जल ऊपर उठ जाता है और जब वायु नीचे बैठती है तब जल नीचे बैठ जाता है ॥ 448॥ पातालों का पंद्रहवां भाग शुक्लपक्ष में धीरे-धीरे वायु से भरता रहता है और कृष्णपक्ष में जल से । अमावस्या और पूर्णिमा के दिन उनकी स्वाभाविक स्थिति हो जाती है ॥ 449 ॥ इन पाताल-विवरों का पृथक्-पृथक् अंतर
दो लाख सत्ताईस हजार एक सौ पौने इकहत्तर योजन है ॥450꠰꠰
चारों विदिशाओं में चार क्षुद्र पाताल-विवर हैं इनका ऊपर और नीचे एक-एक हजार तथा मध्य में दस हजार योजन विस्तार है एवं उनकी ऊँचाई भी दस हजार योजन है ॥451॥ इन चारों की दीवालों की चौड़ाई पचास योजन है तथा प्रत्येक के तीन-तीन भाग हैं और उनमें पूर्व को भांति जल तथा वायु का सद्भाव है ॥ 452 ॥ तीनों भागों में प्रत्येक भाग तीन हजार तीन सौ तीस योजन तथा एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥453॥ दिशाओं और विदिशाओं के पाताल-विवरों का परस्पर अंतर एक लाख तेरह हजार पचासी योजन है ॥454॥ लवण समुद्र में इन आठ पाताल-विवरों के आठ अंतरालों में एक हजार क्षुद्र पाताल और भी हैं जो मोतियों की माला के समान सुंदर जान पड़ते हैं ॥455 ॥ इन क्षुद्र पाताल-विवरों की गहराई एक हजार योजन है और विस्तार मध्य में एक हजार योजन तथा ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन है ॥456॥ ये क्षुद्र पाताल विवर एक-एक अंतराल के बीच में एक सौ पचीस-एक सौ पचीस हैं तथा इनका पारस्परिक अंतर सात सौ अठानवें योजन एवं कुछ अधिक एक कोश है ॥457॥ जिनमें यथायोग्य पानी का प्रवेश तथा निर्गम होता रहता है, ऐसे ये मस्त पाताल-विवरों के समूह क्षुद्र पाताल कहे गये हैं ॥45॥
तट से बयालीस हजार योजन चलकर चारों दिशाओं में एक-एक हजार योजन ऊंचे दो-दो पर्वत हैं ॥459॥ पूर्व दिशा के पाताल-विवर की दोनों ओर कौस्तुभ और कौस्तुभास नाम के अर्ध कुंभाकार चांदी के दो पर्वत हैं इनके अधिष्ठाता (उदक और उदवास) देव विजयदेव के समान वैभव को धारण करने वाले हैं ॥460॥ दक्षिण दिशा के कदंबुक पातालविवर के समीप उदक और उदवास नाम के दो पर्वत हैं । क्रम से शिव तथा शिवदेव उनके अधिष्ठाता देव हैं ॥ 461 ॥ पश्चिम दिशा के बडवामुख पातालविवर के समीप शंख और महाशंख नाम के दो पर्वत हैं तथा शंख के समान आभा वाले शिव और शिवदेव नामक देव अधिष्ठाता हैं ॥ 462 ॥ उत्तर दिशा के भूपकेसर पाताल विवर के समीप उदक और उदवास ये दो पर्वत हैं तथा रोहित और लोहितांक उनके अधिष्ठाता देव हैं ॥463॥ इन पर्वतों का अपने-अपने पाताल-विवरों से एक लाख सोलह हजार योजन अंतर है ॥464॥ इन पर्वतों के ऊपर अनेक नगर बने हुए हैं उनमें वेलंधर जाति के नागकुमार देवों के साथ उनके स्वामी निवास करते हैं ॥ 465 ॥
लवण समुद्र में बयालीस हजार नागकुमार अपने नियोग के अनुसार उसकी अभ्यंतर वेला को धारण करते हैं और बहत्तर हजार नागकुमार जल से भरी बाह्य वेला को सदा धारण करते हैं । ये नागकुमार जलक्रीड़ा करने में दृढ़ आदर रखते हैं ॥ 466-467 ॥ अट्ठाईस हजार नागकुमार लवण समुद्र की उन्नत अग्र शिखा को धारण करते हैं ॥468॥ लवण समुद्र की पश्चिमोत्तर दिशा में बारह योजन दूर चलकर बारह हजार योजन विस्तार वाला एक गोतम नाम का द्वीप है । यह द्वीप सब ओर से सम है तथा गोतम नाम का देव उसका अधिष्ठाता है । परिवार आदि की अपेक्षा गोतम देव कौस्तुभ देव के समान हैं ॥469-470॥
लवण समुद्र की पूर्व दिशा में एक टाँग वाले, दक्षिण में सींग वाले, पश्चिम में पूंछ वाले और उत्तर में गूंगे मनुष्य रहते हैं ॥471 ॥ चारों विदिशाओं में खरगोश के समान कान वाले मनुष्य कहे गये हैं । एक टाँग वालों की उत्तर और दक्षिण दिशा में क्रम से घोड़े और सिंह के समान मुख वाले मनुष्य रहते हैं ॥ 472 ॥ सींग वाले मनुष्यों की दोनों ओर शष्कुली के समान कान वाले और पूंछ वालों के दोनों ओर क्रम से कुत्ते और वानर के समान मुख वाले मनुष्य रहते हैं ॥ 473 ॥ गूंगे मनुष्यों के दोनों ओर शष्कुली के समान कान वाले रहते हैं । विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों पर जो कि पूर्व-पश्चिम समुद्र में निकले हुए हैं क्रम से गौ और भेड़ के समान मुख वाले रहते हैं ॥ 474॥ हिमवत् पर्वत के पूर्व और पश्चिम कोणों पर क्रम से उल्का मुख और कृष्ण मुख तथा शिखरी पर्वत के पूर्व-पश्चिम कोणों पर मेघमुख और विद्युन्मुख मनुष्य रहते हैं ॥ 475 ॥ और ऐरावत क्षेत्र में जो विजयार्ध है उसके दोनों कोणों पर दर्पण तथा हाथी के समान मुख वाले मनुष्य माने गये हैं । इस प्रकार उक्त चौबीस द्वीप ही ऊपर कहे हुए मनुष्यों के आश्रय हैं ॥476॥
दिशाओं और विदिशाओं के अंतर्द्वीप समुद्रतट से पाँच सौ योजन, अंतर दिशाओं के साढ़े पाँच सौ योजन और पर्वतों के कोण वर्ती द्वीप छह सौ योजन आगे चलकर हैं । इन द्वीपों के अग्रभाग में एक-एक पर्वत हैं ॥477॥ दिशाओं के द्वीप सौ योजन, विदिशाओं तथा अंतर दिशाओं के पाँच सौ योजन और पर्वतों के तटांतवर्ती द्वीप पचीस योजन विस्तार वाले हैं ॥478॥ इनका पंचानवेवां भाग जल में डूबा है तथा ये एक योजन जल से ऊपर उठी हुई वेदिकाओं से घिरे हुए हैं ॥ 479॥ पंचानवें भाग को सोलह से गुणा करने पर गुणित भागों के बराबर इनके ऊपर-नीचे का क्षेत्र जल से आवृत कहना चाहिए ॥480॥ लवण समुद्र के जितने अंतर्द्वीप जंबूद्वीप के निकटवर्ती हैं उतने ही धात की खंड के निकटवर्ती हैं । भावार्थ― दिशाओं में चार, विदिशाओं में चार, अंतरालों में आठ और हिमवत् शिखरी तथा दोनों विजयार्ध पर्वतों के आठ इस प्रकार चौबीस अंतद्वीप जंबूद्वीप के निकटवर्ती लवणसमुद्र में हैं तथा चौबीस धातकीखंड के निकटवर्ती लवण समुद्र में सब मिलाकर लवण समुद्र में 48 अंतद्वीप हैं ॥481॥ उनमें अठारह कुल कुभोगभूमियां जीवों की है और वे एक पल्य की आयु वाले हैं ।
एक टाँग वाले मनुष्य गुफाओं में रहते हैं तथा मधुर मिट्टी का भोजन करते हैं ॥ 482 ॥ शेष मनुष्य फूल और फलों का आहार करते हैं तथा वृक्षों के नीचे निवास करते हैं । ये सब एक दिन के अंतर से भोजन करते हैं और मरकर व्यंतर तथा भवनवासी देव होते हैं ॥483 ॥ लवण समुद्र की जगती ( वेदी) जंबू द्वीप की जगती के समान हैं उसके भीतरी भाग में शिलापट्ट हैं और बाहरी भाग में वन-पंक्तियां हैं ॥484॥ किसी भी द्वीप अथवा समुद्र का जितना विस्तार है उसे चौगुना कर उसमें से तीन घटा देने पर उसके अंतिम मंडल की सूची का प्रमाण निकलता है ॥485 ॥ इस करण सूत्र के अनुसार लवण समुद्र को सूची पांच लाख है उसमें से विस्तार के दो लाख घटा देने पर तीन लाख रहे । उसमें चार का गुणा करने पर बारह लाख हुए और उसमें विस्तार का प्रमाण जो दो लाख है उसका गुणा करने पर चौबीस लाख हुए । इस तरह लवण समुद्र के जंबू द्वीप के बराबर चौबीस खंड हैं । धातकी खंड में इससे छह गुने-एक सौ चालीस हैं । कालोदधि में धातकीखंड के खंडों से सत गुने-छह सौ बहत्तर हैं और पुष्करार्ध में कालोदधि के खंडों से चौगुने-दो हजार आठ सौ अस्सी हैं ॥ 486-488 । इस प्रकार लवण समुद्र का वर्णन हुआ ।
अब धातकीखंड का वर्णन करते हैं --
चार लाख योजन विस्तार वाला चूड़ी के आकार का दूसरा धातकीखंड द्वीप भी चारों ओर से लवण समुद्र को घेरे हुए है ॥489॥ धातकी अर्थात् आंवले के वृक्षों से सुशोभित, इस धातकीखंड द्वीप की अभ्यंतर सूची पाँच लाख, मध्यम सूची नौ लाख और बाह्य सूची तेरह लाख योजन की है ॥490॥ इनमें पूर्व-अभ्यंतर सूची की परिधि पंद्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन है ॥491॥ मध्यम सूची की परिधि अट्ठाईस लाख छियालीस हजार पचास योजन की है ॥ 492 ॥ और बाह्य सूची की परिधि इकतालीस लाख दस हजार नौ सौ इकसठ योजन की है ॥ 493॥
इस द्वीप में जंबू द्वीप के महामेरु से पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मेरु पर्वत हैं तथा दक्षिण और उत्तर के भेद से दो इष्वाकार पर्वत इसका विभाग करने वाले हैं ॥ 494॥ वे दोनों इष्वाकार पर्वत एक हजार योजन चौड़े, द्वीप की चौड़ाई के बराबर चार लाख योजन लंबे तथा ऊँचाई और गहराई की अपेक्षा निषध पर्वत के समान (चार सौ योजन ऊँचे और सौ योजन गहरे) हैं ॥ 495 ॥ द्वीप के समान इस धातकीखंड में भी प्रत्येक मेरु की अपेक्षा भरत को आदि लेकर सात क्षेत्र तथा हिमवान् आदि छह कुलाचल हैं ॥496 ॥ यहाँ के समस्त पर्वत, नदी और सरोवर जंबू द्वीप के पर्वत, नदी और सरोवर के समान नाम वाले हैं तथा उन्हीं के समान ऊंचाई और गहराई से युक्त हैं । केवल विस्तार उनका दूना-दूना है ॥497॥ इस द्वीप के पर्वत और क्षेत्र भीतर की ओर नौ गाड़ी के पहिये में लगे आरों तथा उनके बीच के अंतर के समान हैं और बाहर की ओर क्षुरा के समान हैं अर्थात् इनका अभ्यंतर भाग संक्षिप्त और बाह्य भाग विस्तृत है ॥ 498॥ इस धातकीखंड में एक लाख अठहत्तर हजार आठ सौ बयालीस योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतों से रुका हुआ है ॥499॥ भरत क्षेत्र का अभ्यंतर विस्तार छह हजार छह सौ चौदह योजन तथा एक योजन के दो सौ बारह भागों में एक सौ उनतीस भाग प्रमाण है ॥ 500॥ धातकीखंड द्वीप में पर्वत रहित क्षेत्रों के दो सौ बारह खंड और पर्वत विरुद्ध क्षेत्र के एक सौ उन्नीस खंड होते हैं ॥501॥ भरत क्षेत्र के मध्यम भाग का विस्तार बारह हजार पांच सौ इक्यासी योजन छत्तीस भाग है ॥502 ॥ और बाह्य विस्तार अठारह हजार पांच सौ सैंतालीस योजन एक सौ पचपन भाग है ॥ 503 ॥ यह तीनों प्रकार का विस्तार विदेह क्षेत्र तक के क्षेत्रों में भरत क्षेत्र के विस्तार से आगे-आगे चौगुना-चौगुना अधिक है और उसके आगे ऐरावत क्षेत्र तक क्रम से चौगुना-चौगुना कम होता गया है ॥ 504॥ धातकीखंड द्वीप में हिमवान् आदि बारह पर्वतों का विस्तार जंबू द्वीप के पर्वतों से दूना-दूना है । इसी प्रकार पुष्करवर द्वीप में भी उनसे दूना-दूना विस्तार है ॥ 505 ॥ अढ़ाई द्वीप में मेरु पर्वत को छोड़कर कुलाचल, वृक्ष, वक्षार पर्वत और वेदिकाओं की गहराई अपनी ऊंचाई से चौथा भाग है ॥ 506 ॥ धातकीखंड के कुंडों का विस्तार उनकी गहराई से छह गुना, और नदी-सरोवरों का विस्तार उनकी गहराई से पचास गुना है ॥ 507॥ धातकीखंड के चैत्यालयों की ऊंचाई डेढ़ सौ योजन है और जंबू आदि दसों महावृक्ष एक समान विस्तार वाले हैं ॥ 508 ॥ नदी, सरोवर, वन, कुंड, पद्म, पर्वत और सरोवर गहराई की अपेक्षा जंबू द्वीप की नदी आदि के समान हैं तथा विस्तार को अपेक्षा दूने-दूने हैं ॥ 509 ॥ चैत्य, चैत्यालय, वृषभाचल, नाभि पर्वत, चित्रकूट कांचनगिरि आदि पर्वत, दिग्गजेंद्रों के कूट, तथा वेदिका आदि हैं वे सब विस्तार, गहराई तथा ऊँचाई को अपेक्षा तीनों द्वीपों में समान हैं ॥510-511 ॥ धातकीखंड में समस्त कूटों के रत्नमयी तोरण आधा योजन ऊंचे और पाँच सौ धनुष चौड़े हैं ॥512 ॥ धातकीखंड और पुष्कर इन दोनों द्वीपों के चारों मेरु पर्वतों की ऊँचाई चौरासी हजार योजन है ॥ 593 ॥ वे मेरु पर्वत एक हजार योजन नीचे तो पृथिवी में गहरे हैं और नौ हजार पाँच सौ योजन उनके मूल का विस्तार है ॥514॥ उनके मूल भाग की परिधि तीस हजार बयालीस योजन है ॥ 515 ॥
तथा पृथिवी पर का विस्तार नौ हजार चार सौ योजन है ॥516॥ पृथिवी तल पर उनकी परिधि उनतीस हजार सात सौ पच्चीस योजन है ॥517॥ भूमितल से पाँच सौ योजन ऊपर चलकर अत्यंत विस्तृत नंदन वन है तथा पचपन हजार पाँच सौ योजन ऊपर सौमनस वन है ॥518॥ सौमनस वन से अट्ठाईस हजार चार सौ चौरानवे योजन पर जाकर विशाल पांडुक वन है ॥ 519॥ नंदन वन में मेरु का विस्तार नौ हजार तीन सौ पचास योजन कहा गया है ॥ 520॥ इसी वन में मेरु की बाह्य परिधि का विस्तार उनतीस हजार पाँच सौ सड़सठ योजन है ॥521॥ नंदन वन को छोड़कर मेरु पर्वत का भीतरी विस्तार आठ हजार तीन सौ पचास योजन है ॥522॥ मेरु पर्वत की नंदन वन संबंधी परिधि छब्बीस हजार चार सौ पाँच योजन है ॥523 ॥ सौमनस वन में मेरु पर्वत का बाह्य विस्तार तीन हजार आठ सौ योजन है और अभ्यंतर विस्तार इससे एक हजार योजन कम है ॥524 ॥ सौमनस वन में मेरु पर्वत की बाह्य परिधि बारह हजार सोलह योजन है ॥ 525 ।꠰ और अभ्यंतर परिधि आठ हजार आठ सौ चौवन योजन है ॥ 526॥ पांडुक वन में मेरु पर्वत की परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन तथा कुछ अधिक एक कोश जानना चाहिए ॥ 527॥ ये चारों मेरु पर्वत नंदन वन से दस हजार ऊपर तक जो समरुंद्र हैं अर्थात् समान चौड़ाई वाले हैं और उसके बाद क्रम से कम-कम होते जाते हैं । यह क्रम सौमनस वन के आगे भी जानना चाहिए ।
क्रम यह है कि मूल से लेकर दस हजार योजन की वृद्धि होने पर अंगुल हस्त तथा योजन का दसवां-दसवां भाग कम होता जाता है अर्थात् दस हजार योजन की ऊँचाई पर एक हजार योजन, दस हाथ की ऊँचाई पर एक हाथ और दस अंगुल की ऊँचाई पर एक अंगुल विस्तार कम हो जाता है ॥524-529॥ पांचों मेरुओं की वापियाँ, शिला, कूट, प्रासाद, चैत्य और चूलिकाएँ, चौड़ाई, गहराई और ऊंचाई की अपेक्षा एक समान हैं ॥ 530॥ धातकीखंड के भद्रशाल वन की चौड़ाई बारह सौ पचीस योजन है ॥ 531 ॥ और इसकी लंबाई एक लाख सात हजार आठ सौ उन्यासी योजन है ॥ 532॥ धातकीखंड के गंधमादन और विद्युद् गजदंत पर्वतों की लंबाई तीन लाख छप्पन हजार दो सौ सत्ताईस योजन है ॥533॥ तथा माल्यवान् और सौमनस्य गजदंतों की लंबाई पाँच लाख उनहत्तर हजार दो सौ उनसठ योजन है ॥534॥ कुलाचलों के समीप कुरुक्षेत्र का विस्तार दो लाख तेईस हजार एक सौ अठावन योजन है ॥535॥ धातकी खंडद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध दोनों भागों में मेरु पर्वत से लेकर कुलाचलों तक कुरु प्रदेशों की वक्र लंबाई तीन लाख सत्तानवे हजार आठ सौ सत्तानवे योजन और बानवे भाग है ॥536-537॥ और दोनों ओर सीधी लंबाई तीन लाख छियासठ हजार छह सौ अस्सी योजन है ॥538॥
जिस प्रकार जंबूद्वीप में एक मेरुपर्वत के बत्तीस विदेह हैं उसी प्रकार धातकी खंड में भी प्रत्येक मेरु की अपेक्षा बत्तीस-बत्तीस विदेह हैं । इनमें पूर्व की ओर पूर्व विदेह और पश्चिम की ओर पश्चिम विदेह स्थित हैं ॥539॥ मेरु पर्वत से पूर्व में कच्छा नाम का देश है और पश्चिम में सूची से युक्त गंधमालिनी देश है । वह सूची ग्यारह लाख पचीस हजार एक सौ अठावन योजन है ॥540-541॥ इस सूची की परिधि पैंतीस लाख अठावन हजार बासठ योजन प्रमाण है ॥542॥ पद्मा देश को आदि लेकर मंगलावती देश तक वह सूची ली जाती है जो पूर्व-पश्चिम मेरु पर्वतों के अंतराल में स्थित है ॥543॥ यह सूची छह लाख चौहत्तर हजार आठ सौ बयालीस योजन प्रमाण है ॥ 544 ॥ इस सूची की परिधि का प्रमाण इक्कीस लाख चौंतीस हजार अड़तीस योजन है ॥545॥ इसके देश का विस्तार नौ हजार छह सौ तीस योजन तथा एक योजन के आठ भागों में तीन भाग प्रमाण है ॥546 ॥ क्षेत्र, वक्षारगिरि, विभंगा नदी और देवारण्य इनकी लंबाई आदि, मध्य और अंत के भेद से तीन-तीन प्रकार की है ॥ 547 ॥ कच्छा देश की आदि लंबाई पाँच लाख नौ हजार पाँच सौ सत्तर योजन तथा एक योजन के दो सौ बारह भागों में दो सौ भाग है ॥548॥ इसकी आदि लंबाई में देश की लंबाई मिला देने पर मध्य लंबाई हो जाती है और मध्य लंबाई में देश की लंबाई मिल जाने पर अंत लंबाई हो जाती है । यही क्रम पर्वतादिक में जानना चाहिए ॥549 ॥
पूर्व में देश, वक्षार पर्वत और विभंग नदी की जो अंत्य लंबाई है वही आगे के देश, वक्षार पर्वत और विभंग नदी की आदि लंबाई है ॥550॥ देश की आयाम वृद्धि चार हजार पांच सौ चौरासी योजन कही गयी है ॥551॥ वक्षार गिरियों की आयाम वृद्धि चार सौ सतहत्तर योजन साठ कला है ॥ 552॥ विभंग नदियों की आयाम वृद्धि एक सौ उंतीस योजन बावन कला है, ऐसा वृद्धि के जानने वाले आचार्य कहते हैं ॥553॥ और देवारण्य की वृद्धि दो हजार सात सौ नवासी योजन बानवे कला है ॥554॥ पद्मा देश की लंबाई दो लाख चौरानवे हजार छह सौ तेईस योजन एक सौ छियानवे कला है ॥ 555॥ यहाँ के वक्षार पर्वत, क्षेत्र तथा नदी आदि की आयाम वृद्धि हीन जो आदि लंबाई है वही इनकी मध्य लंबाई है और आयाम वृद्धि हीन जो मध्य लंबाई है वही इनकी अंत्य लंबाई यथाक्रम से जानने योग्य है ॥ 556 ॥ देश, वक्षारगिरि और विभंग नदियाँ सीता, सीतोदा नदियों के दोनों तटों पर आमने-सामने स्थित हैं तथा एक समान आयाम के धारक हैं ॥ 557॥ पश्चिम मेरु से पूर्व और पश्चिम में जो विदेह हैं वे क्रमशः पूर्व मेरु से पूर्व तथा पश्चिम के विदेहों के समान हैं ॥ 558॥ इस धातकीखंड में जंबूद्वीप के समान एक-एक लाख विस्तार वाले एक सौ चवालीस खंड हैं और समस्त धातकीखंड द्वीप का क्षेत्रफल एक लाख तेरह हजार आठ सौ इकतालीस करोड़ निन्यानवे लाख सत्तावन हजार छह सौ इकसठ योजन है ॥ 559-561॥ इस प्रकार धात को खंड का वर्णन किया ।
अब कालोदधि का वर्णन करते हैं --
धातकी खंडद्वीप से दूने विस्तार वाला काले रंग का कालोदधि सागर धातकी खंडद्वीप को सब ओर से घेरे हुए है ॥562॥ इसकी परिधि इकानवे लाख सत्तर हजार छह सौ पाँच योजन से कुछ अधिक मानी गयी है ॥563॥ विद्वानों ने कालोदधि समुद्र में जहां-तहाँ जंबूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार वाले छह सौ बहत्तर खंड संकलित किये हैं ॥564॥ कालोदधि समुद्र का समस्त क्षेत्रफल पाँच लाख उनहत्तर हजार अस्सी योजन है ॥565-566॥ कालोदधि समुद्र की पूर्वदिशा में पानी के समान मुख वाले, दक्षिण दिशा में घोड़े के समान कान वाले, पश्चिम दिशा में पक्षियों के समान मुख वाले और विदिशाओं में शूकर के समान मुख वाले मनुष्य रहते हैं । पूर्व दिशा में जो पानी के समान मुख वाले मनुष्य रहते हैं उनके दक्षिण और उत्तर में दोनों ओर क्रम से ऊँट तथा गौ के समान कान वाले मनुष्य रहते हैं । गज कर्ण और अश्वकर्ण मनुष्यों की दोनों ओर बिल्ली के समान मुख वाले तथा पक्षियों के समान मुख वालों को दोनों ओर हाथी के समान मुख वाले मनुष्य स्थित हैं । इन मनुष्यों के कान इतने लंबे होते हैं कि ये उन्हीं को ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं ॥567-569 ॥ कालोदधि समुद्र में विजयार्ध पर्वत के जो दो छोर निकले हुए हैं उनपर शिशुमार के समान तथा मगर के समान मुख वाले मनुष्य रहते हैं ॥570॥ हिमवान् पर्वत के दोनों छोरों पर भेड़िया और व्याघ्र के समान मुख वाले तथा शिखरी पर्वत के दोनों भागों पर शृगाल और भालू के समान मुख वाले मनुष्य स्थित हैं ॥ 571 ॥ ऐरावत क्षेत्र संबंधी विजयार्ध पर्वत के दोनों भागों पर चीता तथा भंगार ( झारी ) के समान मुख वाले और बाह्य एवं अभ्यंतर जगती पर चीते के समान मुख वाले मनुष्य निवास करते हैं । ये समस्त मनुष्य आयु, वर्ण, गृह, आहार और गति की अपेक्षा लवण समुद्र के मनुष्यों के समान हैं । ये द्वीप एक हजार योजन गहरे हैं तथा जहाँ स्थित हैं वहाँ समुद्र का तट कटा हुआ है ॥ 572-573 ॥ कालोदधि में स्थित रहने वाले ये द्वीप प्रवेश की अपेक्षा पाँच सौ योजन से अधिक हैं अर्थात् दिशाओं के द्वीप समुद्रतट से पाँच सौ योजन प्रवेश करने पर, विदिशाओं के द्वीप पांच सौ पचास योजन प्रवेश करने पर और अंत दिशाओं के द्वीप छह सौ योजन प्रवेश करने पर स्थित हैं । इन सभी का विस्तार लवण समुद्र के द्वीपों से दूना माना गया है तथा कुमानुष कुभोग भूमिया जीव इनमें रहते हैं ॥574॥ चौबीस द्वीप कालोदधि की अभ्यंतर (धातकीखंड की समीपवर्ती) सीमा में और चौबीस द्वीप बाह्य (पुष्करार्ध की समीपवर्ती) सीमा में स्थित हैं । इस प्रकार कालोदधि के अड़तालीस द्वीप लवण समुद्र के अड़तालीस द्वीपों के साथ मिलकर सब अंतद्वीप छियानवे हो जाते हैं ॥ 575 ॥ इस प्रकार कालोदधि का वर्णन किया ।
अब पुष्कर द्वीप का वर्णन करते हैं―
जिसकी पूर्व-पश्चिम दिशाओं में दो मेरु हैं, कालोदधि की अपेक्षा जिसका दूना विस्तार है और जो पुष्कर अर्थात् कमल के विशाल चिह्न से युक्त है ऐसा पुष्करवरद्वीप कालोदधि को चारों ओर से घेरकर स्थित है ॥ 576 ॥ पुष्करवरद्वीप का अर्धभाग, मनुष्य क्षेत्र की सीमा निश्चित करने वाले मानुषोत्तर पर्वत से घिरा हुआ है इसलिए पुष्करार्ध माना गया है ॥ 577॥ यह द्वीप उत्तर और दक्षिण दिशा में पड़े हुए इष्वाकार पर्वतों से विभक्त है इसलिए इसके पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध इस प्रकार दो भेद हो जाते हैं ॥578॥ इन दोनों ही खंडों के मध्य में धातकीखंड के समान मेरु पर्वत है तथा पहले के ही समान नाम वाले क्षेत्र पर्वत तथा नदी आदि से दोनों खंडयुक्त हैं ॥579॥
पुष्करार्ध के भरत क्षेत्र का अभ्यंतर विस्तार इकतालीस हजार पांच सौ उन्यासी योजन तथा एक सौ तिहत्तर भाग है मध्य विस्तार त्रेपन हजार पांच सौ बारह योजन एक सौ निन्यानवे भाग है और बाह्य विस्तार पैंसठ हजार चार सौ छियालीस योजन तेरह भाग कहा जाता है ॥ 580-583 ॥ गणितज्ञ आचार्यों ने विदेह क्षेत्र तक पूर्व क्षेत्र से आगे के क्षेत्र का और पूर्व भवन से आगे के पर्वत का चौगुना विस्तार बतलाया है ॥ 584॥ समस्त पुष्करार्ध की बाह्य परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक कही गयी है ॥ 585-586 ॥ पुष्करार्ध का तीन लाख पचपन हजार छह सौ चौरासी योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतों से रुका हुआ है ॥ 587॥ पुष्करार्ध के विजयार्ध नाभिगिरि तथा कुलाचल आदि अपनी-अपनी ऊँचाई और गहराई की अपेक्षा जंबू द्वीप के विजयार्ध आदि के समान हैं ॥ 588॥ परंतु विस्तार को अपेक्षा धातकीखंड के विजयार्ध आदि के दूने-दूने हैं ।
पुष्करार्ध के दोनों इष्वाकार तथा दोनों मेरु धातकीखंड के इष्वाकार और मेरुओं के समान हैं ॥589॥ अढाई द्वीप तथा लवणोदधि और कालोदधि ये दो समुद्र मनुष्यक्षेत्र कहलाते हैं । इसका विस्तार पैंतालीस लाख योजन है ॥ 590 ॥ उत्तम शोभा से संपन्न मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई एक हजार सात सौ इक्कीस योजन है ॥ 591 ॥ गहराई चार सौ तीस योजन एक कोश है । मूल विस्तार एक हजार बाईस योजन, मध्य विस्तार सात सौ तेईस योजन और उपरितन भाग का विस्तार चार सौ चौबीस योजन है ॥ 592-593 ॥ मानुषोत्तर पर्वत की परिधि का विस्तार एक करोड़ बयालीस लाख छत्तीस हजार सात सौ तेरह है ॥594 ॥ यह मानुषोत्तर पर्वत भीतर की ओर छिन्न तट टाँकी से कटे हुए के समान एक सदृश है और इसका बाह्य भाग पिछली ओर से क्रम से ऊंचा उठता गया है अतः भीतर की ओर मुख कर बैठे हुए सिंह के समान उसका आकार जान पड़ता है ॥ 595 ॥ यह पर्वत चौदह गुफारूपी दरवाजों के द्वारा निकलने का मार्ग देकर पूर्व-पश्चिम की नदीरूपी स्त्रियों को पुष्करोदधि के पास भेजता रहता है ॥ 596॥ जिन गुफाओं से नदियां निकलती हैं वे पचास योजन लंबी, पचीस योजन चौड़ी और साढ़े सैंतीस योजन ऊंची हैं ॥597॥ मानुषोत्तर पर्वत के उपरितन भाग पर चारों दिशाओं में आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े गृह-द्वारों से सुशोभित चार जिनालय हैं ॥598॥ इसी मानुषोत्तर पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणा रूप से इष्ट स्थानों पर बने हुए अठारह कूट हैं ॥ 599 ॥ ये कूट पाँच सौ योजन ऊंचे हैं । इनके मूल भाग का विस्तार पाँच सौ योजन और ऊर्ध्वभाग का ढाई सौ योजन है ॥600 ॥
मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं में तीन-तीन तथा विदिशाओं में चार-चार कूट हैं । इन चार के सिवाय ऐशान दिशा में वज्रकूट और आग्नेय दिशा में तपनीयक कूट और भी हैं ॥601॥ पूर्व दिशा के वैडूर्य नामक पहले कूट पर यशस्वान् देव, दूसरे अश्मगर्भ कूट पर यशस्कांत और तीसरे सौगंधिक कूट पर सुपर्णकुमारों का स्वामी यशोधर देव रहता है । तदनंतर दक्षिण दिशा के रुचक कूट पर नंदन, लोहिताक्ष कूट पर नंदोत्तर और अंजन कूट पर अशनिघोष देव रहता है । पश्चिम दिशा के अंजनमूल कूट पर सिद्धदेव, कनक कूट पर क्रमण देव और रजत कूट पर मानुष नाम का देव रहता है । उत्तर दिशा के स्फटिक कूट पर सुदर्शन, अंक कूट पर मोघ और प्रवाल नामक कूट पर सुप्रवृद्ध देव रहता है । आग्नेय विदिशा के पूर्वोक्त तपनीयक कट पर स्वाति देव तथा ऐशान दिशा के वज्रक कट पर हनुमान नाम का देव रहता है । मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व-दक्षिण कोण में निषधाचल से स्पृष्ट भाग में रत्न नाम का कूट है और उस पर नागकुमारों का स्वामी वेणुदेव रहता है । पूर्वोत्तर कोण में नीलाचल से स्पृष्ट भाग में सर्वरत्न नाम का कूट है उस पर गरुडकुमारों का इंद्र वेणुदारी रहता है । दक्षिण-पश्चिम कोण में निषधाचल से स्पृष्ट भाग में वेलंब नाम का कूट है उस पर वरुण कुमारों का अधिपति अतिवेलंब देव रहता है तथा पश्चिमोत्तर दिशा में नीलाचल से स्पष्ट भाग में प्रभंजन नाम का कूट है और उसके ऊपर वायु कुमारों का इंद्र प्रभंजन नाम का देव रहता है ॥602-610॥ इस प्रकार अनेक आश्चर्यों से भरा हुआ यह सुवर्णमय मानुषोत्तर पर्वत मनुष्य क्षेत्र के कोट के समान जान पड़ता है ॥611॥ समुद्धात और उपपाद के सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वत के आगे नहीं जा सकते ॥612॥
जिस प्रकार जंबूद्वीप को लवण समुद्र घेरे हुए है उसी प्रकार पुष्करवर द्वीप को पुष्करवर समुद्र घेरे हुए है ॥613 ॥ उसके आगे वारुणीवर द्वीप को वारुणीवर सागर, क्षीरवर द्वीप को क्षीरोद सागर, घृतवर द्वीप को घृतवर सागर, इक्षुवर द्वीप को इक्षुवर सागर, आठवें नंदीश्वर द्वीप को नंदीश्वर सागर, नौवें अरुण द्वीप को अरुणसागर, अरुणोद्भास द्वीप को अरुणोद्भास सागर, कुंडलवर द्वीप को कुंडलवर सागर, शंखवर द्वीप को शंखवर सागर, रुचकवर द्वीप को रुचकवर सागर, भुजगवर द्वीप को भुजगवर सागर, कुशवर द्वीप को कुशवर सागर, और क्रौंचवर द्वीप को क्रौंचवर सागर ये सब ओर से घेरे हुए हैं । जिस प्रकार दूने-दूने विस्तार वाले इन सोलह द्वीप सागरों का नामोल्लेख पूर्वक वर्णन किया है उसी प्रकार दूने-दूने विस्तार वाले असंख्यात द्वीप-सागर इनके आगे और हैं ॥614-621॥
सोलहवें द्वीपसागर के आगे असंख्यात द्वीप सागरों का उल्लंघन कर 1 मनःशिल नाम का द्वीप है उसके बाद 2 हरिताल, 3 सिंदूर, 4 श्यामक, 5 अंजन, 6 हिंगुलक, 7 रूपवर, 8 सुवर्णवर, 9 वज्रवर, 10 वैडूर्यवर, 11 नागवर, 12 भूतवर, 13 यक्षवर, 14 देववर 15 इंदुवर तथा सबसे अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभू रमण सागर है । ये सभी द्वीप अपने समान नाम वाले सागरों से वेष्टित हैं ॥622-626 ॥ आदि के सोलह और अंत के सोलह इन दोनों राशियों के बीच अनादि कालिक शुभ नामों को धारण करने वाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात सागर हैं । इनमें द्वीपों के बीच सागर का और सागरों के बीच द्वीप का अंतर विद्यमान है अर्थात् द्वीप के बाद सागर और सागर के बाद द्वीप इस क्रम से इनका सद्भाव है ॥627 ॥ इन समुद्रों में लवणसमुद्र के जल का स्वाद नमक के समान है, वारुणीवर समुद्र के जल का स्वाद वारुणी-शराब के तुल्य है, घृतवर और क्षीर समुद्र का जल क्रम से घृत और दूध के समान है । कालोदधि और अंतिम स्वयंभूरमण का जल पानी के समान है । पुष्करवर समुद्र मधु और पानी दोनों के स्वाद से युक्त है तथा बाकी समस्त समुद्र इक्षुरस के समान स्वाद वाले हैं ॥628-629॥ लवण समुद्र के तीर पर सम्मूर्छन जन्म से उत्पन्न हुए महामच्छ नौ योजन लंबे हैं तथा मध्य में इससे दूने अर्थात् अठारह योजन लंबे हैं । कालोदधि समुद्र में नदियों के प्रवेश स्थान पर अठारह योजन और मध्य में छत्तीस योजन लंबे हैं । गर्भजन्म से उत्पन्न होने वाले मच्छों की लंबाई सम्मूर्च्छजन मत्स्यों से आधी है ॥630-631 ॥ स्वयंभूरमण समुद्र के तीर पर मच्छों की लंबाई पांच सौ योजन और मध्य में एक हजार योजन है । लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण इन तीन समुद्रों के सिवाय अन्य समुद्रों में मच्छ आदि जलचर जीव नहीं हैं ॥632 ॥ इस ओर विकलेंद्रिय जीव (दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय ) मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं । उस ओर स्वयंभूरमण द्वीप के अर्ध भाग से लेकर अंत तक पाये जाते हैं ॥633॥
यदि किसी द्वीप या सागर का विस्तार जानना है तो उसके पहले जो भी द्वीप और सागर निकल चुके हैं उन सबके विस्तार को इकट्ठा कर लीजिए उससे एक लाख योजन अधिक विस्तार उस विवक्षित द्वीप या सागर का होता है ॥634॥ मेरु पर्वत की अर्ध चौड़ाई से लेकर स्वयंभू रमण समुद्र के अंत तक आधी राजू होती है । इस आधी राजू का मध्य स्वयंभूरमण समुद्र में पचहत्तर हजार योजन प्रवेश करने पर होता है । भावार्थ-समस्त मध्यम लोक का विस्तार एक राजू है । मेरु पर्वत की जो चौड़ाई है उसके अर्ध भाग से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र के अंत तक आधी राजू होती है । आधी राजू के आधे भाग में आधा जंबूद्वीप तथा असंख्यात द्वीप सागर और अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र के पचहत्तर हजार योजन तक का प्रदेश आता है, बाकी आधी राजू में स्वयंभूरमण समुद्र का अवशिष्ट भाग है ॥635-636 ॥
जंबू द्वीप का रक्षक अनावृत्त यक्ष है, लवण समुद्र का स्वामी सुस्थित देव कहा गया है ॥ 637॥ धातकीखंड के स्वामी प्रभास और प्रियदर्शन, कालोदधि के काल और महाकाल, पुष्करवर द्वीप के पद्म और पुंडरीक, मानुषोत्तर पर्वत के चक्षुष्मान् और सुचक्षु, पुष्करवर समुद्र के श्रीप्रभ और श्रीधर, वारुणीवर द्वीप के वरुण और वरुणप्रभ, वारुणीवर समुद्र के मध्य और मध्यम, क्षीरवर द्वीप के पांडुर और पुष्पदंत, क्षीरवर समुद्र के विमल और विमलप्रभ, घृतवर द्वीप के सुप्रभ और महाप्रभ, घृतवर समुद्र के कनक और कनकाभ, इक्षुवर द्वीप के पूर्ण और पूर्णप्रभ, इक्षुवर समुद्र के गंध और महागंध, नंदीश्वर द्वीप के नंदी और नंदिप्रभ, नंदीश्वर समुद्र के भद्र और सुभद्र, अरुण द्वीप के अरुण और अरुणप्रभ और अरुण समुद्र के सुगंध और सर्वगंध देव स्वामी हैं । इसी प्रकार आगे भो प्रत्येक द्वीप और सागर के दो-दो देव स्वामी हैं । उनमें एक दक्षिण का और दूसरा उत्तर का स्वामी है ॥638-646॥
जिनेंद्र भगवान् ने आठवें नंदीश्वर द्वीप का विस्तार एक सौ तिरसठ करोड़ चौरासी लाख योजन कहा है ॥647 ॥ नंदीश्वर द्वीप की अभ्यंतर परिधि एक हजार छत्तीस करोड़ बारह लाख दो हजार सात सौ योजन है तथा बाह्य परिधि दो हजार बहत्तर करोड़ तैंतीस लाख चौवन हजार एक सौ नब्बे योजन है ॥648-651॥ नंदीश्वर द्वीप के मध्य में चारों दिशाओं में चार अंजनगिरि हैं । ये पर्वत चौरासी हजार योजन ऊंचे, उतने ही चौड़े और एक हजार योजन गहरे हैं ॥ 652॥ ये सभी पर्वत ढोल के आकार हैं, चित्र-विचित्र हैं, वज्रमय मूल के धारक हैं, प्रभा से उज्ज्वल हैं और सब ओर से मन को हरण करते हुए देदीप्यमान हैं ॥653꠰। सुंदर काले शिखरों से युक्त वे सुवर्णमयी पर्वत, दिशाओं में सब ओर उत्तम कांति बिखेरते रहते हैं ॥654॥ एक लाख योजन आगे चलकर इन पर्वतों की चारों दिशाओं में चार चौकोर अविनाशी वापियां हैं ॥655 ॥ ये वापियाँ कमलों से आच्छादित हैं, स्फटिक के समान स्वच्छ जल से युक्त हैं, मगरमच्छादि से रहित और वेदिकाओं से युक्त हैं ॥56॥ इनकी गहराई एक हजार योजन तथा लंबाई और चौड़ाई जंबू द्वीप के बराबर एक-एक लाख योजन की है ॥657॥ पूर्व दिशा में जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओं में क्रम से नंदा, नंदवती, नंदोत्तरा और नंदीघोषा नाम की वापिकाएँ स्थित हैं ॥658 ॥ इनमें पहली नंदा नाम की, वापी सौधर्मेंद्र की, दूसरी नंदवती ऐशानेंद्र की, तीसरी नंदोत्तरा चमरेंद्र की और चौथी नंदीघोषा वैरोचन को भोग्य है-क्रीडा का स्थान है ॥659॥ दक्षिण दिशा में जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओं में क्रम से विजया, वैजयंती, जयंती और अपराजिता ये चार वापिकाएँ हैं ॥660 । इनमें से पहली वापिका में वरुण, दूसरी में यम, तीसरी में सोम, चौथी में वैश्रवण क्रीड़ा करता है । ये चारों सौधर्मेंद्र के लोकपाल हैं ॥661 ॥ पश्चिम दिशा में जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुंडरीकिणी ये चार वापिकाएं हैं । इनमें से पहली वापी वेणुदेव की, दूसरी वेणुतालि की, तीसरी धरण की और चौथी भूतानंद की क्रीड़ा-भूमि है ॥ 662-663 ॥ उत्तर दिशा में जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सुप्रभंकरा, सुमना, आनंदा और सुदर्शना ये चार वापिकाएँ हैं । इनमें ऐशानेंद्र के लोकपाल, वरुण, यम, सोम और कुबेर क्रम से क्रीड़ा करते हैं ॥664-665 ॥
इन सोलह वापिकाओं का भीतरी अंतर पैंसठ हजार पैंतालीस योजन है । मध्य अंतर एक लाख चार हजार छह सौ दो योजन है और बाहरी अंतर दो लाख तेईस हजार छह सौ इकसठ योजन है ॥666-668॥ उन वापिकाओं के मध्य में रूपामयी सफेद शिखरों से युक्त सुवर्णमय सोलह दधिमुख पर्वत हैं ॥669 ॥ ये सभी पर्वत एक-एक हजार योजन गहरे, दस-दस हजार योजन चौड़े, लंबे तथा ऊँचे एवं ढोल के आकार हैं ॥ 670॥ चारों वापिकाओं की चारों ओर चार वन हैं जो वापिकाओं के समान एक लाख योजन लंबे और उनसे आधे अर्थात् पचास हजार योजन चौड़े हैं ॥671 ॥ उनमें पूर्व दिशा में अशोकवन है, दक्षिण में सप्तपर्ण वन है, पश्चिम में चंपकवन है और उत्तर में आम्रवन है ॥672॥ वापिकाओं के कोणों के समीप रतिकर नाम के पर्वत हैं । ये पर्वत प्रत्येक वापिका के प्रति चार-चार हैं, सुवर्णमय हैं तथा ढोल के आकार हैं ॥ 673॥ ढाई सौ योजन गहरे हैं, एक हजार योजन ऊँचे-चौड़े तथा लंबे हैं और विनाश से रहित हैं ॥ 674 ॥ इनमें बत्तीस रतिकर अभ्यंतर कोणों में हैं और बत्तीस बाह्य कोणों में ये सभी देवों के द्वारा सेवित हैं तथा प्रत्येक पर एक-एक चैत्यालय है ॥675॥ रतिकरों की भांति अंजनगिरि तथा दीर्घ मुख पर्वतों के मस्तक भी एक-एक जिन-मंदिर से पवित्र हैं अर्थात् उन सब पर एक-एक चैत्यालय है ॥676 ॥ ये समस्त चैत्यालय पूर्वाभिमुख, सो योजन लंबे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊंचे हैं ॥677॥
आठ योजन ऊंचे, चार योजन चौड़े तथा गहरे तीन-तीन द्वारों से देदीप्यमान नंदीश्वर द्वीप के ये पावन चैत्यालय अतिशय शोभायमान हैं ॥678 ॥ उन चैत्यालयों में संसार को जीतने वाले जिनेंद्र भगवान् की पांच सौ धनुष ऊंची रत्न एवं स्वर्ण निर्मित मूर्तियां विराजमान हैं ॥ 679॥ प्रतिवर्ष फाल्गुन, आषाढ़ और कातिक के आष्टाह्निक पर्वों में सौधर्मेंद्र आदि देव उन चैत्यालयों में पूजा करते हैं ॥680॥ पहले जिन चौंसठ वनखंडों का वर्णन किया गया है उनमें चौंसठ प्रासाद है तथा उन प्रासादों में वनों के नाम वाले देव रहते हैं ॥681 ॥ वे प्रासाद योजन ऊँचे, इकतीस योजन लंबे, इतने ही चौड़े तथा पूर्वोक्त प्रमाणवाले द्वारों से सहित हैं ॥682॥
नंदीश्वर समुद्र से आगे अरुण द्वीप तथा अरुण सागर है वहाँ समुद्र से लेकर ब्रह्मलोक के अंत तक अंधकार ही अंधकार है ॥ 683 ॥ अरुण समुद्र के बाहर मृदंग के समान आकार वाली घनाकार आठ काली पंक्तियाँ फैली हुई हैं ॥684॥ अल्प ऋद्धि के धारी देव इस अंधकार में दिशा मूढ़ हो चिरकाल तक भटकते रहते हैं । वे बड़ी ऋद्धि के धारक देवों के साथ ही इस समुद्र को लाँघ सकते हैं ॥685 ॥ कुंडलवर द्वीप के मध्य में चूड़ी के आकार का एक कुंडलगिरि पर्वत है जो संपूर्ण पर्वतों की राशि के समान सुशोभित है ॥686॥ मणियों के समूह से सुशोभित रहने वाले इस पर्वत की गहराई एक हजार योजन और ऊँचाई बयालीस हजार योजन है ॥687 ॥ उस पर्वत को मूल में दस हजार दो सौ बीस योजन, मध्य में सात हजार एक सौ इकसठ योजन और अंत में चार हजार छियानवे योजन चौड़ाई है ॥688॥ उसके अर्धभाग पर पूर्वादि दिशाओं में चार-चार कूट हैं । चारों दिशाओं के ये सोलह कूट सदा देवों के द्वारा सेवित हैं तथा अत्यंत सुशोभित हैं ॥689॥
पूर्व दिशा के वज्र नामक पहले कूट पर त्रिशिरस् , वज्रप्रभ नामक दूसरे कूट पर पंचशिरस्, कनक नामक तीसरे कूट पर महाशिरस् और कनकप्रभ नामक चौथे कूट पर महाभुज नाम का देव रहता है । दक्षिण दिशा के रजतकूट पर पद्म, रजतप्रभ कूट पर पद्मोत्तर, सुप्रभ कूट पर महापद्म और महाप्रभ कूट पर वासुकि देव रहता है । पश्चिम दिशा के अंक कूट पर स्थिरहृदय, अंकप्रभ कूट पर महा हृदय, मणि कूट पर श्रीवृक्ष और मणिप्रभ कूट पर स्वस्तिक देव रहता है । उत्तर दिशा के स्फटिक कूट पर सुंदर, स्फटिकप्रभ कूट पर विशालाक्ष, महेंद्र कूट पर पांडुक और हिमवत् कूट पर पांडुर देव रहता है ॥ 690-694 ॥ ये सोलह देव नागकुमार देवों के इंद्र हैं, सबकी एक पल्य प्रमाण आयु है और सब यथायोग्य अपने-अपने कूटों पर बने हुए प्रासादों में निवास करते हैं ॥ 695 ॥ कुंडल गिरि के ऊपर पूर्व-पश्चिम दिशा में कुंडलवर द्वीप के स्वामी के दो कूट प्रकट हैं । उन कूटों की ऊँचाई एक हजार योजन है, मूल विस्तार एक हजार योजन, मध्य विस्तार सात सौ पचास योजन और उपरितम विस्तार पांच सौ योजन है ॥696-697 ॥ उसी कुंडलगिरि के ऊपर चारों महा दिशाओं में चार जिनालय हैं जो प्रमाण की अपेक्षा अंजनगिरि के जिनालयों के समान हैं ॥698॥ ।
रुचकवर नाम का जो तेरहवाँ द्वीप है उसके मध्य में चूड़ी के आकार का रुचकवर नाम का पर्वत है ॥699 ॥ इसकी गहराई एक हजार योजन, ऊंचाई चौरासी हजार योजन और चौड़ाई बयालीस हजार योजन है ॥ 700॥ उस पर्वत के शिखर पर चारों दिशाओं में एक हजार योजन चौड़े और पांच सौ योजन ऊंचे चार कूट सुशोभित हैं ॥ 701॥ उनमें पूर्व दिशा के नंद्यावर्त कूट पर पद्मोत्तर देव रहता है, दक्षिण दिशा के स्वस्तिक कूट पर स्वहस्ती देव रहता है । पश्चिम दिशा के श्रीवृक्ष कूट पर नीलक देव रहता है और उत्तर दिशा के वर्धमानक कूट पर अंजनगिरि देव रहता है । ये चारों देव दिग्गजेंद्र के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा एक पल्य की आयु वाले हैं ॥702-703 ॥ इसी पर्वत की पूर्व दिशा में पहले कहे हुए अन्य कूटों के समान आठ कूट हैं और वे दिक्कुमारी देवियों के द्वारा सेवित हैं ॥704 ॥ उनमें पहले वैडूर्य कूट पर विजयार्ध, दूसरे कांचन कूट पर वैजयंती, तीसरे कनक कूट पर जयंती, चौथे अरिष्ट कूट पर अपराजिता, पांचवें दिक्नंदन कूट पर नंदा, छठे स्वस्तिकनंदन कूट पर नंदोत्तरा, सातवें अंजनकूट पर आनंदा और आठवें अंजनमूलक कूट पर नांदीवर्धना देवी निवास करती हैं ॥ 705-706॥ ये दिक्कुमारियां तीर्थकर के जन्मकाल में पूजा के निमित्त हाथ में देदीप्यमान झाड़ियाँ लिये हुए तीर्थंकर की माता के समीप रहती हैं ॥707॥
दक्षिण दिशा में भी आठ कूट हैं और उनमें पहले अमोघ कूट पर स्वस्थिता, दूसरे सुप्रबुद्ध कूट पर सुप्रणिधि, तीसरे मंदर कूट पर सुप्रबुद्धा, चौथे विमल कूट पर यशोधरा, पाँचवें रुचक कूट पर लक्ष्मीमती, छठे रुचकोत्तर कूट पर कीर्तिमती, सातवें चंद्र कूट पर वसुंधरा और आठवें सुप्रतिष्ठ कूट पर चित्रादेवी निवास करती हैं ॥708-710॥ ये देवियां तीर्थंकर की उत्पत्ति के समय संतुष्ट होकर आती हैं और मणिमय दर्पण धारण कर तीर्थंकर की माता की सेवा करती हैं ॥711 ॥
पश्चिम दिशा में भी आठ कूट हैं उनमें पहले लोहिताख्य कूट पर इला देवी, दूसरे जगत्कुसुम कूट पर सुरा देवी, तीसरे नलिन कूट पर पृथिवी देवी, चौथे पद्मकूट पर पद्मावती देवी, पाँचवें कुमुद कूट पर कांचना देवी, छठे सौमनस कूट पर नवमिका देवी, सातवें यश:कूट पर शीता देवी और आठवें भद्र कूट पर भद्रिका देवी का निवास है । ये देवियाँ तीर्थंकर की उत्पत्ति के समय शुक्ल छत्र धारण करती हुई सुशोभित होती हैं ॥712-714॥
इसी प्रकार उत्तर दिशा में भी आठ कूट हैं और उनमें पहले स्फटिक कूट पर लंबुसा, दूसरे अंक कूट पर मिश्रकेशी, तीसरे अंजनक कूट पर पुंडरीकिणी, चौथे कांचन कूट पर वारुणी, पांचवें रजत कूट पर आशा, छठवें कुंडल कूट पर हो, सातवें रुचक कूट पर श्री और आठवें सुदर्शन कूट पर धृति नाम की देवी रहती है । देवियां हाथ में चमर लेकर जिनमाता की सेवा करती हैं |715-717 ।
इनके सिवाय पूर्वादि दिशाओं में दीप्ति से दिशाओं के अंतराल को देदीप्यमान करने वाले चार कूट और हैं जो यथाक्रम से इस प्रकार हैं-पूर्व दिशा में विमल नामक कूट है और उस पर चित्रा देवी रहती है । दक्षिण दिशा में नित्यालोक नाम का कूट है और उस पर कनकचित्रा देवी का निवास है । पश्चिम दिशा में स्वयंप्रभ नाम का कूट है और उस पर त्रिशिरस देवी निवास करती है तथा उत्तर दिशा में नित्योद्योत नाम का कूट है और उस पर सूत्रामणि देवी रहती है । ये विद्युत्कुमारी देवियां सूर्य की किरणों के समान प्रकाश करती हई जिनमाता के समीप स्थिर रहती हैं ॥718-72 ॥ पूर्वोत्तर ऐशान विदिशा में वैडूर्य नाम का कूट है उस पर रुव का देवी रहती है, दक्षिणपूर्व― आग्नेय विदिशा में रुचक नाम का कूट है उस पर रुचकोज्ज्वला देवी रहती है, दक्षिण-पश्चिम ―नैऋत्य विदिशा में मणि प्रभ कूट है उस पर रुचकाभा देवी निवास करती है और पश्चिमोत्तर-वायव्य दिशा में रुचकोत्तम कूट है उस पर रुचकप्रभा देवी का निवास है ॥722-723॥ ये चारों दिक्कुमारी देवियों की उत्कृष्ट महत्तरिका (प्रधान ) देवियां हैं ।
इनके सिवाय विदिशाओं में निम्नलिखित चार कूट और हैं ॥724 । उनमें ऐशान दिशा में रत्न कूट पर विजया देवी का निवास है, आग्नेय दिशा में रत्नप्रभ कूट पर वैजयंती देवी निवास करती है; नैऋत्य दिशा में सर्वरत्न कूट पर जयंती देवी रहती है और वायव्य दिशा में रत्नोच्चय कूट पर अपराजिता देवी निवास करती है । ये चार देवियाँ विद्युत्कुमारी देवियों की महत्तरिका हैं । ऊपर कही हुई चार विद्युत्कुमारियां तथा चार ये इस प्रकार आठों देवियाँ यहाँ आकर तीर्थकर का जातकर्म करती हैं ॥725-727॥ रुचिकगिरि के ऊपर चारों दिशाओं में, चार जिनमंदिर हैं । ये अंजनगिरियों के समान विस्तार वाले हैं तथा पूर्व की ओर इनका मुख है ॥728॥ दिशाओं एवं विदिशाओं में रहने वाली देवियों के निवास-कूटों तथा जिन-मंदिरों से जिसका मस्तक सदा अलंकृत रहता है ऐसा यह रुचकगिरि अतिशय सुशोभित है ॥729॥
स्वयंभूरमण द्वीप के मध्य में स्थित, चूड़ी के आकार वाला एक स्वयंप्रभ नाम का पर्वत सुशोभित है ॥730॥ मानुषोत्तर और स्वयंप्रभ पर्वत के बीच असंख्यात द्वीपों में जो तिर्यंच रहते हैं उनकी जघन्य भोगभूमि तिर्यंचों की सदृशता है ॥731॥ स्वयंप्रभ पर्वत के आगे जो तिर्यंच हैं वे कर्मभूमिज तिर्यंचों के समान हैं क्योंकि उनमें असंख्यात तिर्यंच संयतासंयत― देशव्रती भी होते हैं ॥ 732 ॥ ऊपर कहे हुए द्वीप समुद्रों में तथा मनोहारी पर्वतों पर किन्नर आदि व्यंतरदेव यथा योग्य निवास करते हैं ॥733꠰꠰ गौतम स्वामी कहते हैं कि श्रेणिक ! इस प्रकार तूने द्वीप सागर संबंधी प्रज्ञप्ति जानी अब इसके आगे संक्षेप में ज्योतिर्लोक तथा ऊर्ध्वलोक संबंधी प्रज्ञप्ति का श्रवण कर ॥734॥ जंबूद्वीप तथा लवण समुद्र को आदि लेकर उत्तमोत्तम द्वीप तथा सागर संबंधी प्रज्ञप्ति के इस मुनि सम्मत स्पष्ट संग्रह को जो भव्य सुनता है उसका पृथिवी लोक संबंधी समस्त संशय नष्ट हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि मुनिरूपी सूर्य के उदित होने पर क्या अंधकार का समूह कहीं ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं ॥735॥
इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराण में द्वीप सागरों का वर्णन करने वाला पंचम सर्ग समाप्त हुआ ॥5॥