ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 64
From जैनकोष
अथानंतर संसार के तीव्र भय से भयभीत पांडव, पल्लव देश में विहार करते हुए श्री नेमिजिनेंद्र के समीप पहुंचे । उस समय भगवान् चार प्रकार के देवों से व्याप्त समवसरण को सुशोभित कर रहे थे एवं अष्ट प्रातिहार्यरूप परम ऐश्वर्य से युक्त थे । पांडवों ने प्रदक्षिणा देकर भग वान् को नमस्कार किया ॥ 1-2॥ तदनंतर प्राप्त हुए जिनेंद्ररूपी वर्षा काल से धर्मामृत का पान कर उन्होंने अपने पूर्वभव पूछे और श्रीजिनेंद्र इस प्रकार उनके पूर्वभव कहने लगे ॥ 3 ॥ इसी भरतक्षेत्र की चंपानगरी में जब कुरुवंश का आभूषण स्वरूप राजा मेघवाहन पृथिवी की रक्षा करता था तब वहाँ सोमदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था । उसकी सोमिला नाम की स्त्री थी और उससे उसके सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥4-5 ॥ इन पुत्रों के मामा का नाम अग्निभूति था, उसकी स्त्री अग्निला थी और उन दोनों के क्रम से धनश्री, सोमश्री और नागश्री नाम की तीन कन्याएं उत्पन्न हुई थीं जो कि उक्त तीन पुत्रों की क्रम से स्त्रियां हुई थीं ॥ 6॥ समस्त वेदों का जानने वाला ब्राह्मण सोमदेव कदाचित् शरीर भोग और संसार से विरक्त हो जिनधर्म में दीक्षित हो गया ।꠰ 7 ॥ सोमदत्त आदि तीनों भाई भी जिनशासन की भावना से युक्त थे इसलिए धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन करते हुए गृहस्थ धर्म में रत हो गये ॥ 8॥
किसी समय धर्मरुचि नामक मुनिराज जो धर्म के अखंड पिंड के समान जान पड़ते थे, भिक्षा के समय चांद्री-चर्या से उनके घर प्रविष्ट हुए ॥ 9॥ सोमदत्त ने उठकर बड़ी विनय से उन मुनिराज को पड़गाहा । पड़गाहने के बाद किसी अन्य कार्य में व्यग्र होने से वह तो चला गया और दान देने के कार्य में नागश्री को नियुक्त कर गया ॥ 10॥ अपने पूर्वकृत पापोदय से मुनिराज के विषय में कोप के वशीभूत हो नागश्री ने उन्हें विषमिश्रित अन्न का आहार दिया जिससे वे मुनिराज संन्यास मरण कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए ॥ 11 ॥ नागश्री के इस दुष्कार्य को जानकर वे तीनों भाई बहुत दुःखी हुए और संसार से विरक्त हो उन्होंने वरुण गुरु के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥ 12 ॥ धनश्री और सोमश्री ने भी समस्त संसारवास से विरक्त हो गुणवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥13॥ इस प्रकार वे सब, पाँच ज्ञान, तीन सम्यग्दर्शन, चारित्र एवं तप की शुद्धि के लिए प्रवृत्त हो चारित्रपालन करने के लिए उद्यत हो गये ॥14॥ चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ये पांच भेद हैं । सब पदार्थों में समताभाव रखना तथा सर्वप्रकार के सावद्ययोग का पूर्ण त्याग करना सामायिक चारित्र है ॥15॥ अपने प्रमाद के द्वारा किये हुए अनर्थ का संबंध दूर करने लिए जो समीचीन प्रतिक्रिया होती है वह छेदोपस्थापना चारित्र है ॥16॥ जिसमें जीव हिंसा के परिहार से विशिष्ट शुद्धि होती है वह परिहारविशुद्धि नाम का चारित्र कहलाता है ॥17॥ सांपराय काय को कहते हैं, ये कषाय जिसमें अत्यंत सूक्ष्म रह जाती है वह पाप को दूर करने वाला सूक्ष्म सांपराय नाम का चारित्र है ॥ 18॥ जहाँ समस्त मोहकर्म का उपशम अथवा क्षय हो चुकता है उसे यथाख्यात अथवा यथाख्यात चारित्र कहते हैं । यह चारित्र मोक्ष का साक्षात् साधन है ॥19॥ तप के बाह्य और अभ्यंतर के भेद से दो भेद हैं । इनमें बाह्य तप अनशन आदि के भेद से छह प्रकार का है और अभ्यंतर तप भी प्रायश्चित्त आदि के भेद से छह प्रकार का माना गया है ॥20॥
संयम को आदि लेकर समीचीन ध्यान की सिद्धिरूप प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति के लिए तथा राग को दूर करने के लिए आहार का त्याग करना अनशन तप है । यह वेला, तेला आदि के भेद से नाना प्रकार का स्मरण किया गया है ॥ 21॥ वात, पित्त आदि दोनों का उपशम, संतोष, स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिए तथा संयम की प्राप्ति के लिए भूख से कम भोजन करना अवमोदर्य तप है । यह जागरण का कारण है-इस तप के प्रभाव से निद्रा की अधिकता दूर हो जाती है ॥22॥ भोजनविषयक तृष्णा क दूर करने के लिए भिक्षा के अभिलाषी मुनि जो घर तथा अन्न आदि से संबंध रखने वाले नाना प्रकार के नियम लेते हैं वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है ॥23॥ निद्रा और इंद्रियों को जोतने के लिए जो घी, दूध आदि गरिष्ट रसों को त्याग किया जाता है वह रसपरित्याग नाम का तप है ॥ 24॥ व्रत की शुद्धि के लिए पशु तथा स्त्री आदि से रहित एकांत प्रासुक स्थान में उठना, बैठना विविक्त शयनासन तप है ॥ 25 ॥ आतापन, वर्षा और शीत ये तीन योग धारण करना तथा प्रतिमायोग से स्थित होना इन्हें आदि लेकर बुद्धिपूर्वक जो सुख का त्याग किया जाता है वह मोक्षमार्ग की प्रभावना करने वाला कायक्लेश नाम का तप है ॥26 ॥ यह अनशनादि छह प्रकार का तप बाह्यद्रव्य की अपेक्षा रखता तथा पर-कारणों से होता है, इसलिए इसे बाह्यतप कहा जाता है ॥27॥
मन का नियमन करने के लिए अभ्यंतर तप कहा गया है । इसमें किये हुए दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित्त तप है । यह प्रायश्चित्त आलोचना आदि के भेद से नौ प्रकार का कहा गया है ॥28॥
पूज्य पदार्थों में आदर प्रकट करना विनय है । विनय के चार भेद हैं । अपने शरीर से तथा अन्य द्रव्यों की सेवा करना वैयावृत्य है, इसके दस भेद हैं ॥29॥ ज्ञान की भावना में आलस्य छोड़ना स्वाध्याय है, इसके पाँच भेद हैं । बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहों में ‘ये मेरे हैं,’ इस प्रकार के संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग है, इसके दो भेद हैं ॥ 30 ॥ और चित्त की चंचलता का त्याग करना ध्यान है, यह चार प्रकार का होता है । इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान खोटे ध्यान हैं और धर्म्य तथा शुक्ल ये दो उत्तमध्यान हैं ॥31॥ आलोचना के नौ भेद इस प्रकार हैं― 1 आलोचना, 2 प्रतिक्रमण, 3 तदुभय, 4 विवेक, 5 व्युत्सर्ग, 6 तप, 7 छेद, 8 परिहार और 9 उपस्थापन । इनमें प्रमाद से किये हुए दोषों का संपूर्णरूप से दस प्रकार के दोष छोड़कर गुरु के लिए निवेदन करना आलोचना नाम का प्रायश्चित्त है ॥32॥ ‘मिथ्या में दुष्कृतमस्तु’ इत्यादि शब्दों के द्वारा अपने-आप दोषों को प्रकट कर उनका दूर करना प्रतिक्रमण नामक प्रायश्चित्त माना गया है ॥33॥ आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों से जो शुद्धि होती है वह विशुद्धि को करने वाला तदुभय नाम का प्रायश्चित्त कहा गया है ॥34॥ संसक्त अन्न-पान का विभाग करना विवेक कहलाता है । भावार्थ― कुछ समय के लिए अपराधी मुनि को इस प्रकार का दंड देना कि अन्य निर्दोष मुनियों के साथ चर्या के लिए न जाओ, अन्य मुनियों के भोजन के बाद किसी अन्य चौका में भोजन करो तथा अपने पीछी-कमंडलु जुदे रखो दूसरों के पीछी कमंडलु अपने उपयोग में न लाओ । इस प्रकार के दंड को विवेक नामक प्रायश्चित्त कहते हैं । कायोत्सर्ग आदि का करना व्युत्सर्ग कहलाता है ॥ 35 ॥ उपवास आदि तप करना तप नाम का प्रायश्चित्त कहा गया है । दिन, महीना आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देना छेद नाम का प्रायश्चित है । भावार्थ― मुनियों में नवीन दीक्षित मुनि पूर्व दीक्षित मुनि को नमस्कार करते हैं । यदि किसी पूर्व दीक्षित मुनि की दीक्षा कम कर दी जाती है तो वह नवीन दीक्षित मुनि से पीछे का दीक्षित हो जाता है; इस तरह उसे, जिससे वह पहले पूजता था उसे पूजना पड़ता है, नमस्कार करना पड़ता है, यह छेद नाम का प्रायश्चित्त है ॥36॥
पक्ष, महीना आदि निश्चित समय तक अपराधी मुनि को संघ से दूर कर देना परिहार नाम का प्रायश्चित्त है और फिर से नवीन दीक्षा देना उपस्थापना नाम का प्रायश्चित्त है । जिसे उपस्थापना दंड दिया गया है उसे संघ के सब मुनियों को नमस्कार करना पड़ता है, क्योंकि वे अब इससे पूर्व दीक्षित हो जाते हैं और यह नवीन दीक्षित कहलाने लगता है ॥37॥
ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय के भेद से विनयतप के चार भेद हैं । इनमें कालानतिक्रमण आदि जो आठ प्रकार का ज्ञानाचार बताया है उसे आगमोक्त विधि से ग्रहण करना वह ज्ञानविनय है । भावार्थ― 1 शब्दाचार, 2 अर्थाचार, 3 उभयाचार, 4 कालाचार, 5 विनयाचार, 6 उपधानाचार, 7 बहुमानाचार, 8 अनिह्नवाचार ये ज्ञानाचार के आठ भेद हैं । शब्द का शुद्ध उच्चारण करना शब्दाचार है । शुद्ध अर्थ का निश्चय करना अर्थाचार है । शब्द और अथं दोनों का शुद्ध होना उभयाचार है । अकाल में स्वाध्याय न कर विहित समय में ही स्वाध्याय करना कालाचार है । विनयपूर्वक स्वाध्याय करना-स्वाध्याय के समय शरीर तथा वस्त्र शुद्ध रखना एवं आसन वगैरह का ठीक रखना विनयाचार है । चित्त की स्थिरता पूर्वक स्वाध्याय करना उपधानाचार है । शास्त्र तथा गुरु आदि का पूर्ण आदर करना बहुमानाचार है और जिस गुरु अथवा जिस शास्त्र से ज्ञान हआ है उसका नाम नहीं छिपाना, उसके प्रति सदैव कृतज्ञ रहना अनिवाचार है । इन आठ ज्ञानाचारों का विधिपूर्वक पालन करना वह ज्ञान विनय है ॥ 38॥
निःशंकित आठ अंगों के भेद से दर्शनाचार आठ प्रकार का है, उसमें गुणदोष का विवेक रखना वह दर्शनविनय है ॥ 39 ॥ पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के भेद से जो तेरह प्रकार का चारित्राचार है उसमें निरतिचार प्रवृत्ति करना चारित्रविनय है ॥ 40 ॥ प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों ही अवस्थाओं में गुरु आदि के उठने पर उठकर अगवानी करना, नमस्कार करना आदि जो यथायोग्य प्रवृत्ति की जाती है उसे औपचारिकविनय कहते हैं ॥ 41॥
1 दीक्षा देने वाले आचार्य, 2 पठन-पाठन की व्यवस्था रखने वाले उपाध्याय, 3 महान् तप तपने वाले तपस्वी, 4 शिक्षा ग्रहण करने वाले शैक्ष्य, 5 रोग आदि से ग्रस्त ग्लान, 6 वृद्ध मुनियों के समुदायरूप गुण, 7 दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्य समूहरूप कुल, 8 गृहस्थ, क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनियों के समुदायरूप संघ, 9 चिरकाल के दीक्षित गुणी मुनिरूप साधु और 10 लोकप्रिय मनोज्ञ― इन दस प्रकार के मुनियों को कदाचित् बीमारी आदि की अवस्था प्राप्त हो, मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व की और इनकी प्रवृत्ति होने लगे (अथवा मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा कोई उपद्रव उपसर्ग खड़ा कर दिया जाये) अथवा परीषहरूपी शत्रुओं का उदय हो तो ग्लानि दूर कर उनकी यथा योग सेवा करना वह दस प्रकार का वैयावृत्त्य तप है ॥ 42-45॥
वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेश के भेद से स्वाध्याय के पांच भेद हैं । निर्दोष ग्रंथ तथा उसका अर्थ दूसरे के लिए प्रदान करना-पढ़कर सुनाना सो वाचना नाम का स्वाध्याय है । अनिश्चित तत्त्व का निश्चय करने के लिए अथवा निश्चित तत्त्व को सुदृढ़ करने के लिए दूसरे से पूछना वह पृच्छना नाम का स्वाध्याय है । ज्ञान का मन से अभ्यास-चिंतन करना वह अनुप्रेक्षा नाम का स्वाध्याय है । पाठ को बार-बार पढ़ना आम्नाय है और दूसरों को धर्म का उपदेश देना उपदेश नाम का स्वाध्याय है । यह पांच प्रकार का स्वाध्याय प्रशस्त अभिप्राय के लिए, प्रज्ञा― भेदविज्ञान के अतिशय की प्राप्ति के लिए संवेग के लिए और तप की वृद्धि के लिए किया जाता है ॥ 46-48॥
अभ्यंतरोपाधित्याग और बाह्योपाधित्याग की अपेक्षा व्युत्सर्ग के दो भेद हैं । क्रोधादि अंतरंग उपाधि का त्याग करना तथा शरीर के विषय में भी यह मेरा नहीं है इस प्रकार का विचार रखना अभ्यंतरोपाधित्याग है और आभूषणादि बाह्य उपाधि का त्याग करना बाह्योपाधित्याग है । यह दोनों प्रकार को उपाधियों का त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और मैं अधिक दिन तक जीवित रहूँ इस प्रकार की आशा को दूर करने के लिए धारण किया जाता है ॥42-50॥
संवर के धारक जीव के तप से जो निर्जरा होती है वह मोक्ष का कारण है । यह निर्जरा परिणामों में भेद होने से प्रत्येक स्थानों में भेद को प्राप्त होती है ॥51॥ यहाँ निर्जरा के कुछ स्थान बताये जाते हैं-सर्वप्रथम संज्ञीपंचेंद्रिय पर्याप्तक भव्यजीव जब करणादि लब्धियों से युक्त हो, अंतरंग की शुद्धि को वृद्धिंगत करता है तब उसके बहुत कर्मों की निर्जरा होती है । उसके बाद जब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य कारणों के मिलने पर सम्यग्दृष्टि होता है तब उसके पूर्व स्थान की अपेक्षा असंख्यात गुणी निर्जरा होती है ॥52-53 ॥ उससे असंख्यात गुणी निर्जरा श्रावक के होती है, उससे असंख्यात गुणी विरत के, विरत से असंख्यातगुणी अनंतानुबंधी की विसंयोजना करने वाले के, उससे असंख्यातगुणी दर्शनमोह का क्षय कर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले के, उससे असंख्यातगुणी चारित्रमोह का उपशम करने वाले उपशमश्रेणी में स्थित मुनि के, उससे असंख्यातगुणी उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती के, उससे असंख्यातगुणी चारित्रमोह का क्षय करने वाले क्षपकश्रेणी में स्थित मुनि के, उससे असंख्यातगुणी क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती के और उससे असंख्यातगुणी अनंतज्ञान दर्शन के धारक केवली जिनेंद्र के होती है ॥ 54-57॥
पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रंथ और स्नातक के भेद से निर्ग्रंथ मुनियों के पाँच भेद हैं ॥58॥ जो उत्तर गुणों की भावना से रहित हों तथा मूल व्रत में भी जो कहीं भी पूर्णता को प्राप्त न हों वे धान्य के छिलके के समान पुलाक मुनि कहलाते हैं ॥59 ॥ जो मूल व्रतों का तो अखंडरूप से पालन करते हैं परंतु शरीर और उपकरणों को साफ-सुथरा रखने में लीन रहते हों, जिनका परिवार नीयत न हो― जो अनेक मुनियों के परिवार से युक्त हों और मलिन―सातिचार चारित्र के धारक हों उन्हें बकुश कहते हैं ॥60॥
प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील की अपेक्षा कुशील मुनियों के दो भेद हैं । जो मूलगुण और उत्तरगुण दोनों की पूर्णता से युक्त हैं, परंतु कदाचित् उत्तरगुणों की विराधना कर बैठते हैं एवं संघ आदि परिग्रह से युक्त होते हैं वे प्रतिसेवना कुशील हैं, जिनके अन्य कषाय शांत हो गये हैं सिर्फ संज्वलन का उदय रह गया है वे कषाय कुशील कहलाते हैं ॥61-62॥ जिनके जल में खींची गयो दंड की रेखा के समान कर्मों का उदय अव्यक्त-अप्रकट रहता है तथा जिन्हें एक मुहूर्त्त के बाद केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है वे निर्ग्रंथ कहलाते हैं ॥63 ॥ और जिनके घातियाकर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवली भगवान् स्नातक कहलाते हैं । ये पाँचों ही मुनि नैगमादि नयों की अपेक्षा निर्ग्रंथ माने जाते हैं ॥64॥ साध्यसाधन के भेद से युक्त वे पुलाक आदि मुनि संयम आदि आठ अनुयोगों के द्वारा साध्य हैं ॥65॥ पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि प्रारंभ के सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमों में, कषायकुशील यथाख्यात को छोड़कर शेष चार संयमों में और निर्ग्रंथ तथा स्नातक यथाख्यात संयम में स्थित हैं । अब पांचों मुनियों के श्रुत आदि का भी यथाक्रम से कथन किया जाता है ॥66-67 । प्रतिसेवना कुशील, पुलाक और बकुश ये उत्कृष्ट रूप से अभिन्न दसपूर्व श्रुत को धारण करते हैं ॥68॥ जो कषाय कुशील और निर्ग्रंथ नामक मुनि हैं वे सब चौदह पूर्व को धारण करते हैं ॥69॥ जघन्य की अपेक्षा पुलाकमुनि के आचार वस्तुरूप श्रुत होता है और निर्ग्रंथपर्यंत समस्त मुनियों के पांच समिति, तीन गुप्तिरूप अष्टप्रवचन मातृ का प्रमाणश्रुत होता है ॥ 70॥ प्रतिसेवना की अपेक्षा पुलाक मुनि पाँच महाव्रत तथा रात्रिभोजन त्याग इनमें से किसी एक का कभी दूसरों का बलपूर्वक जबर्दस्ती से सेवन करने वाला होता है ॥71॥ बकुश के सोपकरणबकुश और शरीरबकुश की अपेक्षा दो भेद होते हैं । इनमें सोपकरणबकुश अनेक उपकरणों के प्रेमी होते हैं और शरीरबकुश शरीरसंस्कार को अपेक्षा रखते हैं-शरीर की शोभा बढ़ाना चाहते हैं ॥ 72 ॥
प्रतिसेवनाकुशील मूल गुणों में विराधना नहीं करते किंतु उत्तर गुणों में कभी कोई विराधना कर बैठते हैं ॥73॥ कषायकुशील निर्ग्रंथ और स्नातक प्रतिसेवना से रहित होते हैं । तीर्थ की अपेक्षा पुलाक आदि पांचों मुनि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में होते हैं ॥ 74॥ लिंग के भाव और द्रव्य की अपेक्षा दो भेद होते हैं । भावलिंग को अपेक्षा पुलाक आदि पांचों मुनि निर्ग्रंथलिंग के धारक हैं और द्रव्यलिंग की अपेक्षा विद्वानों के द्वारा भजनीय हैं ॥75॥ लेश्या की अपेक्षा पुलाकमुनि के आगे की तीन अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन, बकुश और प्रतिसेवना कुशील के छहों, कषायकुशील के आगे की चार अर्थात् कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार एवं सूक्ष्मसांपराय, निर्ग्रंथ और स्नातक के एक शुक्ललेश्या ही होती है । अयोगकेवली स्नातक लेश्या से रहित होते हैं ॥ 76-77॥
उपपाद की अपेक्षा पुलाक का उपपाद सहस्रार स्वर्ग में होता है और वह वहाँ उत्कृष्ट आयु का धारक होता है । प्रतिसेवनाकुशील और बकुश का उपपाद आरण और अच्युत स्वर्ग में होता है । निर्ग्रंथ ( ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती ) और कषायकुशील का उपपाद सर्वार्थ सिद्धि में होता है और जघन्य की अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनियों का उपपाद सौधर्मस्वर्ग में होता है और वहाँ वे दो सागर को आयु के धारक होते हैं ॥78-79॥ प्रारंभ में, संयम में जो स्थानभेद होते हैं वे कषाय के निमित्त से होते हैं तथा उनमें असंख्येय और अनंतगुणी संयम की प्राप्ति होती है ॥ 80॥ इनमें सर्वजघन्य लब्धिस्थान कषायकुशील और पुलाक मुनि के होते हैं । ये दोनों मुनि असंख्येय स्थानों तक साथ-साथ जाते हैं, उसके बाद पुलाकमुनि नीचे विच्छिन्न हो जाता है-नीचे रह जाता है और कषायकुशील असंख्येय स्थान तक आगे चला जाता है ॥ 81-82॥
तदनंतर बकुश और दोनों प्रकार के कुशील साथ-साथ असंख्यात स्थानों तक जाते हैं, उसके बाद बकुश नीचे रह जाता है और दोनों कुशील आगे बढ़ जाते हैं । तदनंतर असंख्येय स्थान तक साथ-साथ जाकर प्रतिसेवनाकुशील नीचे छूट जाता है और कषायकुशील असंख्येय स्थान आगे चला जाता है । इसके आगे कषायकुशील भी निवृत्त हो जाता है । तदनंतर कषायरहित संयम के स्थान प्रकट होते हैं और उन्हें निर्ग्रंथ मुनि प्राप्त करता है । वह असंख्येय स्थानों तक जाकर पीछे छूट जाता है ॥ 83-85॥ इसके आगे संयम का एक स्थान रहता है जिसे अनंतगुण रूप ऋद्धियों को धारण करने वाला स्नातक प्राप्त करता है और वह वहाँ कर्मों का अंत कर निर्वाण को प्राप्त होता है ॥ 86 ॥
क्षेत्र, काल आदि बारह अनुयोगों के द्वारा सिद्धों में भूतपूर्व प्रज्ञापन और प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा भेद सिद्ध करने योग्य हैं ॥ 87 ॥ क्षेत्र अनुयोग से जब विचार करते हैं तब प्रत्युत्पन्न ग्राही नय की अपेक्षा मुक्त जीवों की सिद्धि, सिद्धिक्षेत्र में अथवा आत्मप्रदेश में अथवा आकाश के प्रदेशों में होती है ॥88॥ और भृतग्राही नय की अपेक्षा जन्म से पंद्रह कर्मभूमियों में तथा संहरण से मनुष्यलोक अर्थात् अढाई द्वीप में होती है ॥ 89॥ काल अनुयोग से विचार करने पर यह जीव प्रत्युत्पन्न नय को अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता है और भूतग्राही नय की अपेक्षा जन्म से सामान्यतया उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है और विशेष रूप से अवसर्पिणी के तृतीय काल के अंत में तथा चतुर्थ काल में सिद्ध होता है । चतुर्थ काल का उत्पन्न हुआ जीव दुःषमा नामक पंचम काल में सिद्ध हो सकता है परंतु दुःषमा का उत्पन्न हुआ दुःषमा में सिद्ध नहीं होता । संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के सभी कालों में सिद्ध होता है । भावार्थ-जिस समय भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम आदिकाल विद्यमान रहते हैं उस समय यदि कोई व्यंतरादि देव किसी विदेहक्षेत्र के मुनि को संहरण कर भरत अथवा ऐरावतक्षेत्र में छोड़ दे तो उनकी वहाँ से सिद्धि हो सकती है ॥ 90-92 ॥ गति अनुयोग से विचार करनेपर सिद्धि गति में अथवा मनुष्यगति में सिद्धि होती है । लिंग अनुयोग से विचार करनेपर प्रत्युत्पन्नग्राही नय को अपेक्षा अवेद से सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा भाववेद से तीनों वेदों में सिद्धि होती है । द्रव्यवेद को अपेक्षा तीनों वेदों से सिद्धि नहीं होती सिर्फ पुरुषवेद से ही होती है । अथवा लिंग का अर्थ वेष भी हो सकता है इसलिए प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा निर्ग्रंथ लिंग से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा सग्रंथ लिंग से होती भी है और नहीं भी होती है ॥ 93-94 ॥
तीर्थ अनुयोग से विचार करने पर सिद्धि दो प्रकार की होती है, कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध होता है और कोई सामान्य केवली होकर सिद्ध होता है । अथवा कोई तीर्थंकर के विद्यमान रहते सिद्ध होता है और कोई तीर्थ करके मोक्ष चले जाने पर उनके तीर्थ में सिद्ध होता है ॥95॥ चारित्र अनुयोग की अपेक्षा विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राहीनय की अपेक्षा एक यथाख्यातचारित्र से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राहीनय की अपेक्षा चार अथवा पाँच चारित्रों से होती है । भावार्थ― यथाख्यात के पहले सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्म सांपरायचारित्र अनिवार्य रूप से सभी के होते हैं और परिहारविशुद्धि किन्हीं-किन्हीं के होता है इसलिए जिनके परिहारविशुद्धि नहीं होगा उनके चार चारित्रों से और जिनके परिहारविशुद्धि होगा उनके पांच चारित्रों से सिद्धि होती है, यह भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा है । प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा चौदहवें गुणस्थान में एक परमयथाख्यात चारित्र ही होता है इसलिए एक चारित्र से ही सिद्धि प्राप्त होने का कथन है ॥ 96 ॥ प्रत्येक बुद्ध और बोधितबुद्ध-अनुयोग से विचार करनेपर प्रत्येक बुद्ध जो कि अपने-आप रत्नत्रय को प्राप्त होते हैं और बोधित बुद्ध जो कि दूसरों के उपदेश से रत्नत्रय प्राप्त करते हैं-दोनों को सिद्धि प्राप्त होती है-दोनों ही मोक्ष जाते हैं ॥97॥ ज्ञान अनुयोग से विचार करनेपर प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा एक केवलज्ञान से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा दो, तीन और चार ज्ञानों से सिद्धि होती है । भावार्थ-किन्हीं जीवों की केवलज्ञान के पूर्व मति और श्रुत में दो ज्ञान होते हैं । किन्हीं को मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मनःपर्यय ये तीन ज्ञान होते हैं । और किन्हीं को मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ये चार ज्ञान होते हैं । अवगाहना अनुयोग से विचार करनेपर अवगाहना के उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम के भेद से तीन भेद होते हैं । इनमें युक्त जीवों को उत्कृष्ट अवगाहना कुछ कम पांच-सौ पच्चीस धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ है । मध्यम अवगाहना के यथासंभव अनेक विकल्प कहे गये हैं । इन अवगाहनाओं में से जीव किसी एक अवगाहना से सिद्ध होता है ॥ 98-100॥ अंतर अनुयोग की अपेक्षा विचार करनेपर अंतर का अर्थ शून्यकाल विरहकाल होता है सो सिद्ध होने वाले जीवों में जघन्य अंतर एक समय का और उत्कृष्ट अंतर छह माह का होता है ॥ 101॥ संख्या अनुयोग को अपेक्षा विचार करनेपर जघन्यरूप से एक समय में एक ही जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्टता से एक सौ आठ जीव तक सिद्ध होते हैं ॥102 ॥ अल्पबहुत्व अनुयोग को अपेक्षा विचार करनेपर क्षेत्रादि भेदों से भिन्न जीवों में जो परस्पर संख्या का भेद है वह अल्पबहुत्व कहलाता है । यह अल्पबहुत्व प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा सिद्धिक्षेत्र में नहीं है किंतु भूतार्थग्राही नय को अपेक्षा उसका कुछ विचार किया जाता है । क्षेत्रसिद्ध जीव जन्म और संहरण को अपेक्षा दो प्रकार के माने गये हैं । इनमें संहरणसिद्ध थोड़े हैं और जन्मसिद्ध, सर्वहितकारी सर्वज्ञ जिनेंद्र के शासन में संहरण सिद्धों को अपेक्षा संख्यातगुणे बतलाये गये हैं ॥103-105 ॥ ऊर्ध्वलोक से सिद्ध होने वाले थोड़े हैं, उनसे संख्यातगुणे अधोलोक से सिद्ध होने वाले हैं और उनसे संख्यातगुणे तिर्यग्लोक से सिद्ध होने वाले हैं ॥106॥
समुद्र से सिद्ध होने वाले थोड़े हैं, इनसे संख्यातगुणे द्वीप से सिद्ध होने वाले हैं, यह सामान्य की अपेक्षा कथन है विशेष की अपेक्षा लवणसमुद्र में जो सिद्ध होते हैं, वे सबसे थोडे हैं उनसे संख्यातगुणे कालोदधि से सिद्ध होने वाले हैं ॥107-108॥ जो जंबूद्वीप से सिद्ध होते हैं वे संख्येयगुणे हैं, उनसे संख्यातगुणे धातकीखंड से होने वाले सिद्ध हैं और उनसे संख्यातगुणे पुष्करद्वीप से होने वाले सिद्ध हैं ॥109॥ जिस प्रकार क्षेत्रविभाग को अपेक्षा अल्पबहुत्व का कथन किया है उसी प्रकार आगम के अनुसार काल आदि विभाग की अपेक्षा भी जानना चाहिए ॥110॥
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अत्यंत उपासना करने वाले सोमदत्त आदि पांचों जीव अंत समय मरकर आरण अच्युत स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए । वहाँ बाईस सागर की उनकी आयु थी । अत्यंत शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले वे देव उत्तम भोग भोगते हुए वहाँ बाईस सागर तक स्थित रहे ॥111-112॥ विषमिश्रित भोजन देने वाली नागश्री भी मरकर धूमप्रभा नामक पाँचवें नरक के फल को प्राप्त हुई । वह सत्तरह सागर तक वहाँ के महादुःख भोगकर निकली और स्वयंप्रभ द्वीप में दृष्टिविष नाम का दुष्ट सर्प हुई । तदनंतर मरकर तीन सागर को आयु वाली बालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वी में पहुंची ॥113-114॥ वहाँ पाप के फलस्वरूप चिरकाल तक दुःखों का समूह भोगकर निकली और त्रसस्थावर पर्याय में दो सागर तक भटकती रही ॥115 ॥ तदनंतर चंपापुरी में एक चांडाल की कन्या हुई । वहाँ उसने एक दिन समाधिगुप्त नामक मुनिराज के पास मधु-मांसादि का त्याग किया ॥116॥ जिससे अंत समय उसी चंपापुरी में सुबंधु वैश्य को धनवती स्त्री से सुकुमारिका नाम की पुत्री हुई ॥117॥ पाप के पूर्व संस्कार से उसके शरीर से तीव्र दुर्गंध आती थी इसलिए रूपवती होनेपर भी वह युवाजनों के द्वेष का पात्र हुई ॥118॥ उसी नगरी में धनदेव वैश्य को अशोकदत्ता नामक स्त्री से उत्पन्न जिनदेव और जिनदत्त नामक दो पुत्र रहते थे ॥119॥ जिनदेव के कुटुंबी जनों ने उस दुर्गंधा कन्या के साथ उसका विवाह करना चाहा पर उसे वह स्वीकृत नहीं था इसलिए वह उस कन्या को छोड़ सुव्रत मुनि के समीप दीक्षित हो गया ॥120॥ बंधुजनों के उपरोध से छोटे भाई जिनदत्त ने यद्यपि उसके साथ विवाह कर लिया परंतु दुर्गंध के कारण उसे दूर से ही छोड़ दिया ॥121॥ इस घटना से सुकुमारिका ने अपनी बहुत निंदा की । एक दिन उसने उपवास किया तथा अनेक आर्यिकाओं से युक्त क्षांता नाम की आर्यिका को बड़ी भक्ति से भोजन कराया ॥122॥ क्षांता आर्यिका के साथ दो आर्यिकाएं परम रूपवती तथा कठिन तपन तपने वाली थीं उन्हें देख उसने क्षांता आर्या को नमस्कार क उनसे पूछा कि हे आर्ये ! ये दो रूपवती आर्यिकाएं कठिन तप में किस कारण स्थित हैं ? ॥123 ॥ इस प्रकार पूछे जाने पर दया से प्रेरित क्षांता आर्या ने सुकुमारिका को संबोधन करने के लिए उन दो आर्यिकाओं के तप का कारण कहा ॥124॥ उन्होंने कहना प्रारंभ किया-कि हे सुकुमारि ! सुन, ये सुकुमार कुमारिकाएं जिस कारण तपस्विनी बनकर तप करने में लगी हुई हैं ॥ 125 ॥
ये दोनों पूर्वभव में सौधर्मस्वर्ग के इंद्र की विमला और सुप्रभा नाम की देवियाँ थीं ॥126 ॥ एक दिन ये नंदीश्वर पर्व की यात्रा में जिनपूजा के लिए आयी थीं कि किसी कारण संसार से विरक्त हो चित्त में इस प्रकार का विचार करने लगी कि यदि हम मनुष्यभव को प्राप्त हों तो महातप करेंगी । ऐसा महातप कि जिससे फिर यह स्त्री-पर्याय संबंधी दुःख दिखाई नहीं देगा ॥ 127-128 ॥ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे देवियां स्वर्ग से च्युत हुई और यहाँ अयोध्यानगरी के राजा श्रीषेण की श्रीकांता नामक स्त्री से हरिषेणा नाम की बड़ी और श्रीषेणा नाम की छोटी पुत्री हुई । समय पाकर ये दोनों ही रूपवती और यौवनरूपी लक्ष्मी से सुशोभित हो गयीं ॥129-130॥ इन दोनों कुमारियों का स्वयंवर हो रहा था कि उसी समय इन्हें अपने पूर्वजन्म तथा की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया जिससे ये बंधुजनों को छोड़ तत्काल तप करने लगीं ॥131॥
क्षांता आर्यिका के उक्त वचन सुन सुकुमारिका भी विरक्त हो गयी और संसार से भयभीत हो उन्हीं के समीप दीक्षित हो गयी ॥132 ॥ अन्य तपस्वीनियों के साथ तप करती हुई वह समय व्यतीत करने लगी । नीतिपूर्वक― आगमानुकूल तप करने से उसका शरीर सूख गया ॥133॥
एक दिन उसी गांव को गणि का वसंतसेना कामीजनों से वेष्टित हो वन-विहार के लिए आयी । क्रीड़ा करने में उद्यत उस गणिका को देखकर आर्यिका सुकुमारिका ने क्लिष्ट परिणामों से युक्त हो बड़े आदर से अपयश को प्राप्ति में कारणभूत यह निदान किया कि अन्य जन्म में मुझे भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो ॥134-135॥ आयु के अंत में मरकर वह आरणाच्युत युगल में अपने पूर्व भव के पति सोमभूति देव की पचपन पल्य की आयु वाली देवी हई ॥136॥ सोमदत्त आदि तीनों भाइयों के जीव स्वर्ग से च्युत हो पांडु राजा की कुंती नामक स्त्री में युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक पुत्र हुए ॥137॥ और धनश्री तथा मित्रश्री के जीव देव भी उन्हीं पांडु राजा की माद्री नामक दूसरी स्त्री से नकुल और सहदेव नामक पुत्र हुए ॥138॥ सुकमारिका का जीव भी स्वर्ग से च्युत हो राजा द्रुपद की दृढरथा नामक स्त्री से द्रोपदी नाम की पुत्री हुई ॥139॥ पूर्व भव के स्नेह के कारण इस भव में भी राधीवेध पूर्वक द्रोपदी और अर्जुन का संयोग हुआ है ॥140 ॥ तीन ज्येष्ठ पांडव-युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन इसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त होंगे और अंतिम दो पांडव-नकुल और सहदेव को सर्वार्थसिद्धि प्राप्त होगी ॥ 141 ॥ सम्यग्दर्शन से शुद्ध द्रौपदी तप के फलस्वरूप आरणा च्युत युगल में देव होगी और उसके बाद मनुष्यपर्याय रख मोक्ष जायेगी ॥ 142 ॥
इस प्रकार वे पांडव धर्म तथा पूर्व भव श्रवण कर संसार से विरक्त हो श्री नेमि जिनेंद्र के समीप संयम को प्राप्त हो गये ॥143 ॥ कुंती, द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि जो स्त्रियां थीं वे सब राजीमती आर्यिका के समीप तप में लोन हो गयीं ॥144॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्̖चारित्र, महाव्रत, समिति तथा गुप्तियों से अपनी आत्मा के स्वरूप का चिंतवन करते हुए वे पांडव आदि तप करने लगे ॥ 145 ॥ उन सब मुनियों में भीमसेन मुनि बहुत ही शक्तिशाली थे । उन्होंने भाले के अग्रभाग से दिये हुए आहार को ग्रहण करने का नियम लिया था, क्षुधा से उनका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया था और छह महीने में उन्होंने इस वृत्तिपरिसंख्यात तप को पूरा कर हृदय का श्रम दूर किया था । युधिष्ठिर आदि मुनियों ने भी बड़ी श्रद्धा के साथ वेला तेला आदि उपवास किये थे । इस प्रकार मुनिराज भीमसेन ने जैनागम के सागर युधिष्ठिर आदि मुनियों के साथ पृथिवी पर विहार किया ॥146 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में युधिष्ठिर आदि पाँच पांडवों की दीक्षा का वर्णन करने वाला चौंसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥64॥