ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 9
From जैनकोष
अथानंतर इंद्र के द्वारा हाथ के अंगूठे में स्थापित अमृत को पीते तथा माता-पिता के नेत्रों के लिए अमृतरूप आहार प्रदान करते हुए भगवान् जिनेंद्र दिनों दिन बढ़ने लगे ॥1॥ प्रतिदिन बढ़ने वाले जिन-बालकरूपी चंद्रमा के देखने से संसार के समस्त प्राणियों का आनंदरूपी सागर वृद्धि को प्राप्त होने लगा ॥2॥ यद्यपि भगवान का बालक्रीडारूपी अमृतरस पिया जाता था और सबके लिए निरंतर सुलभ भी था तो भी वह मनुष्यों के नेत्रों की तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं था । भावार्थ-―भगवान् की बालक्रीड़ा देखकर मनुष्यों के नेत्र संतुष्ट नहीं होते थे ॥3॥ जिन-बालक, इंद्र के द्वारा भेजे हुए, हितकारी एवं अपने ही प्रतिबिंब के समान दिखने वाले देव-बालकों के साथ मनोहर क्रीड़ा करते थे ॥4॥ भगवान् का कोमल बिस्तर, कोमल आसन, वस्त्र, आभूषण, अनुलेपन, भोजन, वाहन तथा यान आदि सभी वस्तुएं देव निर्मित थीं ॥5॥ इंद्र की आज्ञानुसार अवस्था तथा ऋतु के अनुकूल वस्तुओं से भक्ति पूर्वक भगवान् की सेवा करने वाला धनद― कुबेर वास्तव में ही धनद-धन को देने वाला था ॥6॥
अपने सहज मित्रों के समान स्वच्छ एवं दिव्य कलारूप गुणों से युक्त तथा यौवन से परिपूर्ण जिनेंद्र चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥7॥ ऊँचे कंधों से सुशोभित, बाजूबंदों से युक्त गोल तथा उत्तम कलाइयों से सहित उनकी दोनों महाभुजाएँ त्रैलोक्य की लक्ष्मी का आलिंगन करने के लिए पर्याप्त थीं ॥8॥ भगवान् का विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्न से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अच्छी तरह से आलिंगित राज्यलक्ष्मी के स्तन के अग्रभाग से ही पीड़ित हो ॥9॥ जिनके पैर और जंघाएं अच्छी तरह मिली हुई थी, जिनके घुटने मांसपेशियों में भीतर छिपे हुए थे और जो वक्षःस्थलरूप महल के आधारभूत स्तंभों के समान जान पड़ते थे ऐसे उनके दोनों ऊरुओं की शोभा बहुत चढ़ी-बढ़ी थी ॥10॥ भगवान् के छत्राकार सिर पर काले घुँघराले बालों का समूह ऐसा जान पड़ता था मानो सुमेरु के ऊँचे शिखर पर इंद्रनीलमणियों का समूह ही रखा हो ॥11॥ उनके ललाट, नाक, सुंदर कानों पर लगे हुए नीलकमलों की नाल, और डोरी चढ़े धनुष की समानता करने वाली भौंहों की शोभा वचन मार्ग को उल्लंघन कर चुकी थी ॥12॥
तीनों लोकों में चंद्रमा अपनी चाँदनी से रात्रि में ही आनंद उत्पन्न करता है और सूर्य अपनी दीप्ति से दिन में ही लोगों को आनंद पहुँचाता है परंतु भगवान का मुख दिन-रात के भेद के बिना निरंतर सबको आनंद पहुँचाता था अतः वह न तो चंद्रमा की चाँदनी के समान था और न सूर्य की दीप्ति के ही सदृश था ॥13॥ उनके कानों तक लंबे नेत्र कमलपत्र के समान थे और हथेलियां पदतल और अधरोष्ठ महावर के रंग के समान लाल थे ॥14॥ शुद्ध मोतियों के समूह से बनी हुई के समान अत्यंत चमकदार एवं ऊँचे-नीचे विन्यास से रहित उनकी दांतों की पंक्ति कुंदपुष्प की शोभा धारण कर रही थी ॥15॥ नौ सौ व्यंजन,और एक सौ आठ लक्षणों से सहित, पांच सौ धनुष ऊँचे एवं हेमाचल सुमेरु के समान उनके शरीर की जो शोभा थी उस सबको यदि सैकड़ों करोड़ इंद्र भी एक साथ कहना चाहें तो भी लेशमात्र नहीं कह सकते ॥16-17॥
जब भगवान् पूर्ण युवा हुए तब तीनों लोकों की अद्वितीय सुंदरी प्रौढ़ यौवनवती नंदा और सुनंदा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह हुआ और उनके साथ वे क्रीड़ा करने लगे॥18॥ गुच्छों के समान स्तनों को धारण करने वाली उन गौरांगी एवं नवयौवनवती नंदा और सुनंदा के बीच में भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो अंग में लगी हुई दो लताओं के बीच में संसार के कल्पवृक्ष ही हों ॥19॥ संसार में न वह कांति थी, न दीप्ति थी, न संपत्ति थी, और न वह कला ही थी जो भगवान् ऋषभदेव और नंदा-सुनंदा को प्राप्त नहीं थी फिर उनके सुख का क्या वर्णन किया जाये ? ॥20॥ नंदा ने भरतक्षेत्र को आनंदित करने वाले भरत नामक चक्रवर्ती पुत्र को और ब्राह्मी नामक पुत्री को युगल रूप में उत्पन्न किया ॥21॥ और सुनंदा नामक दूसरी रानी ने महाबाहु बल से युक्त बाहुबली नामक पुत्र तथा संसार में अतिशय रूपवती सुंदरी नामक पुत्री को जन्म दिया ॥22॥ भरत और ब्राह्मी के सिवाय भगवान् की नंद रानी के वृषभसेन को आदि लेकर अठानवें पुत्र और हुए । उनके ये सभी पुत्र चरमशरीरी थे ॥23॥ भगवान ने अतिशय बुद्धि से संपन्न अपने समस्त पुत्रों के साथ-साथ ब्राह्मी और सुंदरी नामक दोनों पुत्रियों को भी अक्षर, चित्र, संगीत और गणित आदि कलाओं के सागर में प्रविष्ट कराया था । भावार्थ― अपने समस्त पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने विविध कलाओं में पारंगत किया था ॥24॥
अथानंतर किसी समय बहुत भारी व्यथा से युक्त समस्त प्रजा, राजा नाभिराज से प्रेरित हो एक साथ भगवान् वृषभदेव के पास पहुंची और स्तुति पूर्वक प्रणाम कर कहने लगी ॥ 25 ॥ हे प्रभो ! पहले, कल्पवृक्ष प्रजा को आजीविका के साधन थे, फिर उनके नष्ट होने पर स्वयं ही जिनसे रस चू रहा था ऐसे इक्षु वृक्ष साधन हुए ॥26॥ हे प्रजानाथ ! उन दिव्य इक्षु वृक्षों के रस से प्रजा इतनी संतुष्ट हुई और आपके प्रताप ने उसकी ऐसी रक्षा की कि उसने कल्पवृक्षों को दूर से ही भुला दिया ॥27॥ परंतु इस समय वे इक्षवृक्ष छिन्न-भिन्न होने पर भी रस नहीं देते हैं सो ठोक ही है क्योंकि समय के प्रभाव से कोमल भी कठोरता को प्राप्त हो जाते हैं ॥ 28॥ यद्यपि फलों के भार से झु के हुए नाना प्रकार के तृण दिखाई देते हैं परंतु हम लोग नहीं जानते कि इसे अन्न कैसे प्राप्त किया जाता है ? ॥29॥ घट के समान स्थूल स्तनों को धारण करने वाली गायों और भैंसों के स्तनों से भी कुछ झर रहा है सो वह भक्ष्य है या अभक्ष्य यह कहिए ॥30॥ जो सिंह, व्याघ्र तथा भेड़िया आदि पहले कंठालिगन करने के योग्य थे हे नाथ! अब वे ही इस समय कुपूत्रों के समान हम लोगो को भयभीत कर रहे हैं ॥ 31 ॥ इसलिए हे स्वामिन् ! क्षुधा की तीव्र बाधा से ग्रस्त इस प्रजा को जीवन निर्वाह के उपाय दिखाकर तथा भय से उसकी रक्षा कर अनुग्रहीत कीजिए ॥32॥
तदनंतर दयालू भगवान ने समस्त प्रजा को भूख से व्याकुल देख पहले तो दिव्य आहार के द्वारा सबकी पीड़ा दूर की फिर आजीविका के निर्वाह के लिए सब उपाय तथा धर्म, अर्थ और कामरूप साधनों का उपदेश दिया ॥33-34॥ उन्होंने सुख की सिद्धि के लिए अनेक उपायों के साथ असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का भी उपदेश दिया । 35 ॥ तदनंतर उन्होंने यह भी बताया कि गाय, भैंस आदि पशुओं का संग्रह तथा उनकी रक्षा करनी चाहिए और सिंह आदिक दुष्ट जीवों का परित्याग करना चाहिए ॥36 ॥ तदनंतर भगवान् के सौ पुत्रों और प्रजा ने कला शास्त्र सीखा, एवं लोगों ने सैकड़ों शिल्पी बनाकर उन्हें अपनाया ॥37॥ जिससे शिल्पिजनों ने भरतक्षेत्र की भूमि पर सब जगह गांव, नगर तथा खेट, कर्वट आदि को रचना की ॥38॥
उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए । विनाश से जीवों की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योग से वैश्य और शिल्प आदि के संबंध से शूद्र कहलाये ॥39॥ उस समय असि, मषि आदि छह कर्मों के द्वारा प्रजा ने वास्तविक सुख प्राप्त किया और अत्यंत संतुष्ट होकर उसने उस युग को कृतयुग कहा ॥40॥ उसी समय इंद्र सहित समस्त देवों ने आकर तथा भगवान् वृषभदेव का राज्याभिषेक कर प्रजा को परम सुखी किया ॥41॥ उस समय विनयी मनुष्यों से व्याप्त अयोध्या, विनीता और साकेता नाम से प्रसिद्ध, भगवान् की जन्मपुरी अधिक सुशोभित हो रही थी ॥42॥ जो इक्ष्वाकु क्षत्रियों में वृद्ध तथा जाति व्यवहार के जानने वाले थे, उन्हें लोकबंधु भगवान् वृषभदेव ने यहाँ रक्षा के कार्य में नियुक्त किया ॥43॥ जो कुरु देश के स्वामी थे वे कुरु, जिनका शासन उग्र-कठोर था वे उग्र और जो न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते थे वे भोज कहलाये ॥44॥ इनके सिवाय प्रजा को हर्षित करने वाले अनेक राजा और भी बनाये गये । उस समय श्रेयान्स तथा सोमप्रभ आदि कुरुवंशी राजाओं से यह भूमि अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥ 45 ॥ तदनंतर देवोपनीत दिव्य भोगों को भोगते हुए भगवान् के जन्म से लेकर तेरासी लाख पूर्व व्यतीत हो गये ॥46॥
अथानंतर किसी समय नृत्य करती हुई इंद्र की नीलांजना नामक नर्तकी को देख, मति ज्ञान का उस ओर उपयोग जाने से भगवान् ऋषभदेव विरक्त हो गये ॥47॥ इस संसार में जो पदार्थ पहले राग के कारण थे वे ही पदार्थ अब अंतरंग निमित्त के शांत हो जाने पर शांति के कारण हो गये ॥48॥ जो विषय पहले बुद्धि में विभ्रम उत्पन्न करने वाले थे वे ही विषय अब शांति के अनुकूल समय के आने पर शांति के उत्पादक हो गये ॥49॥ जिनकी भोगाभिलाषा दूर हो चुकी थी, तथा चिरकाल तक भोगों में आसक्त रहने के कारण जिनकी आत्मा स्वयं अपने आप से लज्जित हो रही थी ऐसे भगवान् वृषभदेव अपने मन में विचार करने लगे कि अहो ! संसार के जीवों की बड़ी विचित्रता देखो, इस संसार के जीव स्वयं कर्मों के अधीन हैं और दूसरे जीव उनकी अधीनता को प्राप्त हो रहे हैं ॥50-51॥ अभिनय के विविध अंगों से युक्त यह नर्तकी समीचीन भाव को दिखाती हुई हाव-भाव तथा रस पूर्वक इस अभिप्राय से अधिक नृत्य कर रही है कि मेरे नृत्य से भगवान् प्रसन्न होंगे, उनके प्रसन्न होने पर इंद्र प्रसन्न होगा और इंद्र की प्रसन्नता से मैं अधिक सुखी हो सकूँगी । परंतु यह भ्रांतिवश ऐसा मान रही है ॥52-53॥
पराधीन प्राणी को जो सुखोपभोग को इच्छा है उसे धिक्कार है क्योंकि पराधीन मनुष्य का मन निरंतर आकुल रहता है ॥54॥ और अपने आपको स्वतंत्र मानने वाले का जो सुख है वह भी क्या सुख है ? क्योंकि वह भी तो अपने कर्मों के परतंत्र है तथा भोगों की तृष्णा से उसकी आत्मा व्याकुल रहती है ॥ 55 ॥ आत्माधीन मनुष्य का जो सुख है वह आत्मा के ही अधीन होने से अंतातीत है और कर्माधीन मनुष्य का सुख इंद्रिय विषयों के अधीन होने से अंतातीत नहीं है ॥56॥ जिस प्रकार नदियों के प्रवाह से समुद्र की तृप्ति नहीं होती उसी प्रकार इस संसार में मनुष्य सुर तथा असुरों के सुखों से अनंतकाल में भी जीव की तृप्ति नहीं हो सकती ॥57॥
मैं पहले विद्याधरों का राजा महाबल था, फिर ललितांग देव हुआ, फिर वज्रजंघ राजा हुआ, फिर उत्तरकुरु में आर्य हुआ, फिर श्रीधर देव हुआ, फिर सुविधि राजा हुआ, फिर अच्युतेंद्र हुआ, फिर वज्रनाभि हुआ और फिर सर्वार्थसिद्धि का देव हुआ । चिरकाल तक भोगे हुए उन दिव्य भोगों से जिसे उस समय तृप्ति नहीं हुई उसे आज भले ही जो सुलभ और अधिक हों इन भोगों से क्या तृप्ति हो सकती है ? ॥ 58-60॥ इसलिए जो अंत में दुःख से दूषित है ऐसे सांसारिक सुख को छोड़कर मैं मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए तपोवन में प्रवेश करता हूँ ॥61॥ हाय, मैं मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त होकर भी साधारण मनुष्य के समान राज्य में स्थित रहा; यह मेरी समय की उपेक्षा ही है अर्थात् मैंने व्यर्थं बीतते हुए समय की ओर दृष्टि नहीं दी । यथार्थ में समय का उल्लंघन करना कठिन है― जिस समय जो जैसा होने वाला है वैसा ही होता है ॥62 ॥
पूर्व भवों को जानने वाले जिनेंद्र भगवान् जब इस प्रकार का ध्यान कर रहे थे तब ब्रह्मलोक के वासी सारस्वत, आदित्य आदि लौकांतिक देव यह ज्ञात कर यहाँ आये । वे चंद्रमा के समान थे अतः आकाश को चंद्रमाओं से व्याप्त जैसा करते हुए आये और नमस्कार कर भगवान से बोले ॥63-64॥ हे नाथ ! ठीक है, जिससे स्वपर कल्याण हो वही कीजिए । धर्म-तीर्थ के प्रवर्तन का यही समय है ॥65॥ हे प्रभो ! यह संसार चतुर्गतिरूप महावन में दिशाभ्रांत हो रहा है इसे आप मोक्ष-स्थान में प्रवेश कराने वाला मार्ग दिखलाइए ॥66॥ हे प्रभो ! हे जगदीश्वर ! मंत्र की तरह
चिरकाल से जिसकी परंपरा टूट चुकी है ऐसे मोक्षमार्ग का आप फिर से प्रकाश कीजिए ॥67॥ हे स्वामिन् ! जो जन्म, जरा, मरण इन तीन दुःखरूपी भंवरों से युक्त है, तथा राग, द्वेष, मोह ये तीन दोषरूपी बड़े-बड़े सर्प जिसमें निवास कर रहे हैं ऐसे इस संसाररूपी सागर में भ्रमण करने वाले गोता खाने वाले जीवों के लिए आप कर्णधार होइए ॥68॥ हे प्रभो ! आप उपदेशरूपी हाथ के द्वारा इस वेगशाली घूमते हुए संसाररूपी महा चक्र से सबको उतारो― सब की रक्षा करो ॥69॥ इस समय सत्पुरुष आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्ग से चलकर तथा जन्म संबंधी थकावट को दूर कर नित्य सुख से संपन्न तीन लोक के शिखर पर विश्राम करें ॥70॥ जिस प्रकार समुद्र के लिए चढ़ाया हुआ जल केवल उसकी पूजा के लिए है उसी प्रकार स्वयं ही प्रतिबोध को प्राप्त हुए भगवान् के लिए लोकांतिक देवों के वचन केवल पूजा के लिए ही थे । भावार्थ― लौकांतिक देवों के उपदेश के पहले ही भगवान् विरक्त हो चुके थे इसलिए उनके वचन केवल नियोग पूर्ति के लिए ही थे ॥71॥
उसी समय इंद्र को आदि लेकर चारों निकाय के देव आ पहुंचे । उन्होंने भी नमस्कार कर वही कहा जो कि लौकांतिक देवों ने इनके पूर्व बार-बार कहा था ॥72॥ देवों के द्वारा संबोधित स्वयं बुद्ध भगवान् ऋषभदेव, उस समय जिसका कमल-समूह सूर्य की किरणों से खिल उठा है उस महासरोवर के समान सुशोभित हो रहे थे ॥73॥ धीर-वीर सौ पुत्रों के लिए जिन्होंने पृथिवी का विभाग कर दिया था ऐसे कृतकृत्य भगवान उस समय एक हजार किरणों के लिए अपना तेज वितरण करने वाले सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ॥74॥ तदनंतर देवों ने क्षीर समुद्र के जल से जिनेंद्र भगवान का अभिषेक किया, उत्तम गंध से लेपन किया और उत्तमोत्तम वस्त्र, आभूषण तथा मालाओं से उन्हें विभूषित किया ॥75॥ सभा में विराजमान तथा मणिमय आभूषणों से विभूषित देव और राजाओं से घिरे हुए भगवान् उस समय पूर्व-पश्चिम लंबे कुलाचलों से घिरे हुए सुमेरु के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ 76 ॥
अथानंतर कुबेर ने एक नूतन दिव्य पालकी बनायी जो नाम की अपेक्षा सुदर्शना थी और अत्यधिक शोभा से भी सुदर्शना― सुंदर थी ॥77॥ वह पालकी आकाश अथवा उत्तम स्त्री के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार आकाश (ताराभरत्नजातीनां प्रभाभिरतिभास्वरा) तारा और श्रेष्ठ नक्षत्रों की प्रभा से अतिशय देदीप्यमान होता है, तथा उत्तम स्त्री नेत्रों को पुतलियों और नक्षत्रों के समान देदीप्यमान रत्नों की प्रभा से उज्ज्वल होती है उसी प्रकार वह पालकी भी ताराओं के समान आभा वाले रत्नों की प्रभा से अतिशय देदीप्यमान थी । जिस प्रकार आकाश (मंडलाकृतिशभ्राभ्र-धवलातपवारणा) मंडलाकार सफेद मेघों से उज्ज्वल तथा संताप को दूर करने वाला होता है और उत्तम स्त्री मंडलाकार सफेद मेघावली के समान उज्ज्वल और संताप को हरने वाली होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी मंडलाकार सफेद मेघ के समान उज्ज्वल छत्र से युक्त थी ॥78॥
जिस प्रकार आकाश ( चलच्चामरसंघात-हंसमालांशुकोज्ज्वला) चंचल चमरों के समूह के समान उड़ती हुई हंसमाला से देदीप्यमान तथा उज्ज्वल होता है, और उत्तम स्त्री चंचल चमरों के समूह तथा हंस पंक्ति के समान सफेद वस्त्रों से युक्त होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी हंसमाला के समान चंचल चमर और वस्त्रों से उज्ज्वल थी । जिस प्रकार आकाश (आदर्श मंडलाखंडदीप्तिदिङमुखमंडला) दर्पण तल के समान अखंड दीप्ति से युक्त दिशाओं से सहित होता है, और उत्तम स्त्री का मुखमंडल दर्पण तल की अखंड दीप्ति से देदीप्यमान दिशा के समान भास्वर होता है उसी प्रकार वह पालकी भी दर्पणों के समूह से समस्त दिशाओं को अखंड प्रति भासित करने वाली थी ॥79 ॥
जिस प्रकार आकाश (बुबुदापांडुगंडांता) जल के बबूलों के समान सफेद प्रदेशों से युक्त होता है, और उत्तम स्त्री के कपोल चंदन की बिंदुओं से सफेद होते हैं उसी प्रकार उस पालकी के छज्जों का चौ गिर्द प्रदेश भी बुबुदाकार मणिमय गोलकों से सफेद था । जिस प्रकार आकाश (मूर्धचंद्रालिकाकृतिः) ऊपर विद्यमान चंद्रमा से युक्त होता है और उत्तम स्त्री मस्तक तथा चंद्राकार ललाट से युक्त होती है उसी प्रकार वह पालकी भी ऊपर तनी हुई चाँदनी से सहित थी । जिस प्रकार आकाश (संध्याभ्रखंडसंरक्त-विस्फुरद्विद्रुमाधरा) लाल-लाल चमकते हुए मूंगों के समान संध्या के लाल-लाल मेघखंडों को धारण करता है और उत्तम स्त्री का अधरोष्ठ संध्याकालीन मेघखंड तथा चमकते हुए लाल मूंगे के समान होता है, उसी प्रकार वह पालकी भी संध्याकालीन मेघखंड के समान लाल चमकदार मूंगा को धारण कर रही थी ॥ 80॥
जिस प्रकार आकाश (पतज्जललवस्वच्छमुक्तादसनशोभिता) स्वच्छ मोतियों तथा दाँतों के समान उज्ज्वल पड़ती हुई जल की बूंदों से शोभित होता है और उत्तम स्त्री पड़ते हुए जलकण तथा उज्ज्वल मोतियों के समान दाँतों से सुशोभित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी पड़ते हुए जल कणों के समान स्वच्छ मोतियों के जड़ाव से सुशोभित थी । जिस प्रकार आकाश (शुभ्रकेतुपताकालीलीलाभुजलतोज्ज्वला) सुंदर भुजलताओं के समान केतु के शुभ विमान पर फहराती हुई पताकाओं की पंक्ति से सुशोभित होती है और उत्तम स्त्री शुभध्वजदंड से युक्त पताकाओं की पंक्ति के समान चंचल भुजलताओं से उज्ज्वल होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी उत्तम ध्वजापताकाओं और सुंदर भुजाओं की तुलना करने वाली लताओं से सुशोभित थी ॥ 81॥
जिस प्रकार आकाश (दिग्नागनासिकाजंघारंभास्तंभोरुशालिनी) दिग्गजों की ढूँड़ों और केला के स्तंभों के समान सुशोभित उनकी मोटी-मोटी जंघों से अत्यधिक शोभित होता है और उत्तम स्त्री दिग्गजों की सूंड़ के समान जंघाओं और केला के स्तंभों के समान सुंदर ऊरुओं से सुशोभित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी दिग्गजों की सूंड़ों और स्त्रियों की जंघाओं की समानता करने वाले केले के स्तंभों से अत्यधिक सुशोभित थी । जिस प्रकार आकाश (चित्रस्त्रीतार का लोका) चित्रा नक्षत्र के आलोक से युक्त होता है, और उत्तम स्त्री चित्रा नक्षत्र तथा तारा के समान देदीप्यमान होती है उसी प्रकार वह पालकी भी चित्रा नक्षत्र और तारा के समान प्रकाश से युक्त थी । जिस प्रकार आकाश (जगतीजघनस्थला) पृथिवीरूपी मध्यम स्थल से सहित होती है और उत्तम स्त्री पृथिवी के समान स्थूल नितंब स्थल से युक्त होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी मध्य में विराजमान थी ॥82॥
जिस प्रकार आकाश (वारिधारास्फरद्धाराशंभत्कंभपयोधरा) जल से भरे एवं पड़ती हुई धारों से सुशोभित घड़ों के समान मेघों से युक्त होता है और उत्तम स्त्री के स्तन कलश जलधारा के समान शोभायमान हार से सुशोभित रहते हैं उसी प्रकार वह पालकी भी जलधारा के समान सुशोभित हारों-मणिमालाओं से अलंकृत घड़ों में जल को धारण करने वाली थी जल से भरे घड़ों से युक्त थी । जिस प्रकार आकाश (तारापुष्पवतीरम्या) फूलों के समान ताराओं से युक्त एवं मनोहर होता है और उत्तम स्त्री तारों के समान फूलों से युक्त एवं मनोहर रहती है उसी प्रकार वह पालकी भी ताराओं के समान चमकीले फूलों से युक्त और मनोहर थी । जिस प्रकार आकाश (सुनक्षत्रबृहत्फला) बड़े-बड़े फलों के समान उत्तम नक्षत्रों से युक्त होता है और उत्तम स्त्री अच्छे नक्षत्रों के विशाल परिणाम से सहित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी उत्तम नक्षत्रों के समान बड़े-बड़े फलों से युक्त थी ॥83॥ और जिस प्रकार आकाश (सुनीलघनकेशा) केशों के समान अत्यंत नीले मेघों से युक्त रहता है और उत्तम स्त्री अत्यंत काले एवं सघन केशों से युक्त होती है उसी प्रकार वह पालकी भी सघन केशों के समान उत्तम नील मणियों से खचित थी । ऐसी वह सुदर्शना पालकी कुबेर ने इंद्र के लिए दिखलायी ॥84॥
अथानंतर हर्ष से भरे हुए इंद्र ने पालकी पर सवार होने के लिए भगवान् से प्रार्थना की । तब भगवान् अपने माता-पिता, पुत्र तथा आश्रित परिजनों से पूछकर बत्तीस कदम पृथिवी पर पैदल ही चले । उस समय चमर तथा छत्र लेकर इंद्र उनकी सेवा कर रहे थे ॥ 85-86 ॥ तदनंतर लोगों ने हाथ जोड़कर जय-जयकार करते हुए जिन्हें नमस्कार किया था और माता-पिता आदि गुरुजनों ने जिन्हें आशीर्वाद दिया था ऐसे भगवान् ऋषभदेव पालकी पर उस तरह आरूढ़ हुए जिस तरह कि सूर्य उदयकालीन लक्ष्मी पर आरूढ़ होता है ॥87॥ उस पालकी को पृथिवी से तो राजाओं ने उठाया पर बाद में तैयार खड़े हुए इंद्रों ने उसे आकाश में उछलकर इस प्रकार धारण कर लिया जिस प्रकार कि प्रभु की आज्ञा को सिर से धारण करते हैं ॥88॥ तदनंतर दिशाओं को मुखरित करने वाले शंख, भेरी, बाँसुरी, वीणा तथा जोरदार शब्द करने वाले नगाड़े शब्द करने लगे ॥ 89 ॥
उस समय ऊपर आकाश तो देवों की नाना प्रकार की चतुरंग सेनाओं से व्याप्त था और नीचे पृथिवीतल साथ-साथ चलने वाले अनेक राज-क्षत्रियों तथा उग्रवंशी, भोजवंशी आदि राजाओं से व्याप्त था ॥90॥ ऊपर आकाश में नृत्य करने वाली अप्सराओं के शृंगारादि नौ रस प्रकट हो रहे थे और नीचे पृथिवीतल पर भगवान् के द्वारा छोड़े हुए माता-पिता आदि के शोक-रस प्रकट हो रहा था ॥91 ॥ अनेक देवों से सेवित भगवान् अशोक, चंपा, सप्तपर्ण, आम और वट वृक्षों से व्याप्त सिद्धार्थ नामक वन में पहुंचे ॥ 92॥ सिद्धि अर्थात् मोक्ष की इच्छा करने वाले भगवान् वहाँ पालकी से उस प्रकार उतरे जिस प्रकार कि पहले स्वर्ग लोक के शिखर पर स्थित सर्वार्थसिद्धि विमान से उतरे थे ॥93 ॥ तदनंतर भगवान् ने प्रजा से कहा कि हे प्रजाजनो! तुम लोग शोक छोड़ों क्योंकि प्राणियों का अन्य वस्तुओं की बात जाने दो, अपने शरीर के साथ भी जो संयोग है वह वियोग के ही लिए है । भावार्थ-जब शरीर का भी वियोग हो जाता है तब अन्य वस्तुओं की तो बात ही क्या है ? ॥ 94॥ अतिशय चतुर भरत को मैंने आप लोगों की रक्षा करने में नियुक्त किया है । आप लोग निरंतर अपने धर्म में स्थिर रहते हुए उसकी सेवा करें, वह आपकी सेवा का पात्र है ॥ 95 ॥ भगवान् के ऐसा कहने के बाद प्रजा ने उनकी पूजा की । प्रजा ने जिस स्थान पर भगवान की पूजा की वह स्थान आगे चलकर पूजा के कारण प्रयाग इस नाम को प्राप्त हुआ ॥96॥
प्रभु ने कुटुंब के लोगों तथा नम्रीभूत राजाओं से पूछकर अंतरंग, बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागकर संयम धारण कर लिया ॥ 97 ॥ इंद्र ने पंच मुठ्ठियों के द्वारा उखाड़े हुए भगवान् के सिर के बालों को उठाकर पिटारे में रख लिया और इन्हें भगवान् ने सिर पर धारण किया था, यह विचारकर बड़े आदर से उन्हें क्षीर-समुद्र में क्षेप दिया ॥98॥ इस प्रकार दीक्षाकल्याणक होने पर समस्त सुर और असुर भगवान् की पूजा कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानों पर चले गये । साथ ही चिंता से भरे हुए मनुष्य भी नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानों पर गये ॥ 99॥ उस समय इक्ष्वाकु, कुरु, उग्र तथा भोज आदि वंशों के चार हजार बड़े-बड़े मुख्य स्वामिभक्त राजाओं ने भी नग्न दीक्षा धारण की ॥100॥
परीषहों को सहने वाले, महातपस्वी, चार ज्ञान के धारक और पर्वत के समान निश्चल भगवान् छह माह का कायोत्सर्ग लेकर मौन से विराजमान हुए ॥101॥ साथ ही वे अन्य राजा भी जो परमार्थ को नहीं जानते थे मात्र स्वामी की इच्छानुसार काम करना चाहते थे, निश्चल हो कायोत्सर्ग से स्थित हो गये ॥102॥ जब उनकी आत्मा भूख और प्यास से व्याकुल हो उठी तब वे विचार करने लगे कि हमारे नौकर, पुत्र अथवा स्त्रियां हमारे लिए भोजन लेकर आज-कल में आते ही होंगे ॥103 ॥ तदनंतर कच्छ, महाकच्छ और मरीचि जिनमें अग्रणी थे, ऐसे वे कृत्रिम मुनि छह माह के भीतर ही क्षुधा आदि कठिन परीषहों से भ्रष्ट हो गये ॥104 ॥
भूख के कारण जिनके शरीर अत्यंत कृश हो गये थे ऐसे इन कृत्रिम मुनियों की अस्थिर दृष्टि घूमने लगी तथा ऐसी जान पड़ने लगी मानो आगे होने वाली भ्रांत दृष्टि (भ्रांत श्रद्धान) का पूर्वाभ्यास ही कर रही हो ॥105 ॥ कितने ही लोगों ने अंधकार का समूह देखा अर्थात् उनको आँखों के सामने अंधकार ही अंधकार छा गया, उनके नेत्र क्षुधा के कारण चंद्रमा के समान पांडु वर्ण हो गये तथा उन्हें उस अंधकार के बीच आकाश में एक के बदले सौ चंद्रमा दिखाई देने लगे ॥106॥ कितने ही लोगों ने समस्त संसार को शब्दमय सूना अर्थात् उनके कानों के सामने शब्द ही शब्द सुनाई पड़ने लगा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे शब्दरूप लक्षण से सहित आकाश हैं इस वैशेषिक मत के शास्त्र का ही चिंतन कर रहे थे ॥107 ॥ कितने ही लोग जमीन पर गिरने लगे तथा उन्हें कुछ भी चेत नहीं रहा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे आत्मा को जड़-स्वभाव करने के लिए ही उद्यत हुए हों अर्थात् जड़ स्वभाव है यह चार्वाक का मत ही प्रचलित करना चाहते हों ॥ 108॥ कितने ही लोगों को चेत (होश) तो था पर वे स्वच्छंदता-पूर्वक रहने के लिए निरीह वृत्ति के कारण अपने आपकी सांख्यमत सम्मत पुरुष-जैसी स्थिति बतलाने लगे ॥109॥ जिनकी बुद्धि निरन्वय नष्ट हो गयी थी तथा जो मूर्छा से दुःखी हो रहे थे, ऐसे कितने ही लोगों को आगे-पीछे का कुछ भी स्मरण नहीं रहा, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे बौद्धों के क्षण भंगवाद का ही अनुकरण कर रहे हों ॥110॥
इस प्रकार भूख-प्यास आदि से जिनकी बुद्धि अत्यंत व्याकुल हो गयी थी ऐसे वे सब कायोत्सर्ग छोड़कर धीरे-धीरे भागने लगे ॥111 ॥ सो ठीक ही है क्योंकि जब तक अपने शरीर की संतोषपूर्ण स्थिति रहती है तभी तक मनुष्य स्वामी, कुल, पुत्र और मर्यादा का अनुसरण करता है ॥112॥ वे राजा नग्नरूप में रहकर ही फल-मूल आदि का भक्षण तथा जल का पीना और उसमें प्रवेश करना आदि कार्य स्वेच्छा से करने के लिए उद्यत हुए तो उसी समय आकाश में देवों के यह शब्द प्रकट हुए कि स्वयं ग्राह के विरोधी इस नग्नवेष से आप लोग ऐसो प्रवृत्ति न करें॥113-114॥ तदनंतर देवों के उक्त शब्द सुनकर वे राजा बड़े लज्जित हुए और भयभीत हो दिशाओं की ओर देख उन्होंने कुशा, चीवर तथा वल्कल आदि से नग्नवेष बदल लिया अर्थात् कुशा, चीवर एवं वृक्षों की छाल आदि धारण कर नग्न वेष छोड़ दिया ॥115 ॥ इसके बाद निश्चिंतता से अधम उदर की पूर्ति कर जब वे स्वस्थ हुए तब कार्य का विचारकर परस्पर कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि चित्त के स्वस्थ होने पर ही बुद्धि उत्पन्न होती है-विचारशक्ति आती है ॥116॥
वे कहने लगे कि भगवान् ने समस्त भोगों को छोड़ दिया है सो इसमें इनका क्या अभिप्राय है यह ज्ञात किया जाये । ऐहिक फल के लिए तो इनकी यह अतिशय कठिन चेष्टा नहीं हो सकती क्योंकि इन्होंने संपत्तियों को विपत्तियों के समान देखा है, रति और अरति को नष्ट कर विषयों को विष के समान समझा है, वस्त्राभूषण को दुःख के समान छोड़ दिया है, सिर के बालों को शत्रुओं की तरह अपने हाथ से जड़ से उखाड़ दिया है और आहार-पानी का परित्याग कर दिया है इसलिए शरीर को भी छोड़ा हुआ समझना चाहिए । इससे जान पड़ता है कि इन्हें कोई पारलौकिक फल ही अभिप्रेत होगा ॥117-120 ॥ जबकि भगवान् नैष्ठिक व्रत लेकर इस प्रकार विराजमान हैं-कुछ बोलते चालते नहीं हैं, तब इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए, इस एक बात को हम लोग इस समय बिलकुल नहीं जानते॥121॥ हम लोग इनके साथ अपने देश से निकल आये हैं इसलिए अब लौटकर जाना तो हमारी शोभा को नहीं बढ़ाता । साथ ही लौटकर जाना अनेक बाधाओं-कष्टों से भरा है ॥ 122॥ यदि हम भगवान् की चर्या का आचरण करने के लिए समर्थ नहीं हैं तो क्या वनवासीपने की सदृशता से हम इनका अनुसरण नहीं कर सकते ? भावार्थ― यदि हम से इनके समान कुछ तपश्चर्या नहीं बनती है तो इनके समान वन में तो रह सकते हैं ॥123॥ आपस में ऐसा निश्चय कर वे भ्रष्ट राजा, पके पत्र और फलों को खाते हुए जटा और वृक्षों की छाल धारण कर वनवासी तापस बन गये ॥124 ॥
उनमें मरीचि कुमार नाम का जो भगवान् का पोता था, प्यास से उसका शरीर संतप्त हो रहा था, उसने भ्रांतिवश मरुस्थल की मरीचिका को ही जल समझ लिया तथा उसमें लोटने लगा सो जिस प्रकार जल में प्रवेश करना संतप्त हाथी के शरीर को शांति पहुंचाता है उसी प्रकार कोमल मिट्टी ने उसके शरीर को कुछ शांति पहुँचायी ॥125-126 ॥ मरीचि बड़ा मानकषायी था इसलिए उसने परिव्राजकों के व्रत को पोषण करने वाला गेरुआ वेष स्वीकार कर लिया । वह एक दंड अपने साथ रखता था, स्नानादि से अपने को पवित्र मानता था तथा सिर मुड़ाये रखता था ॥127॥
इधर जो भोगों की याचना से अतिशय दुःखी थे, भोगों के अभाव के कारण उद्विग्न थे, तथा दुःखमय स्थिति में स्थित थे, ऐसे नमि और विनमि दोनों राजपुत्र भगवान् के चरणों में आ लगे॥128 ॥ उसी समय जिसका आसन कंपायमान हुआ था ऐसा धरणेंद्र अवधिज्ञान से यह समाचार जान जिनेंद्र की भक्तिपूर्वक वहाँ आया, सो ठीक ही है क्योंकि मौन सब कार्यों को सिद्ध करने वाला है ॥129॥ दिव्यरूप को धारण करने वाले उस धरणेंद्र ने उन दोनों भाइयों को अपने भाइयों के समान विश्वास दिलाकर महाविद्या प्रदान की सो ठीक ही है क्योंकि विद्या की प्राप्ति गुरु से ही होती है ॥130॥ और जो विद्याधरों का निवास भूत विजयार्ध नाम का पर्वत है वह भी उन दोनों ने धरणेंद्र से प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि गुरुसेवा से क्या नहीं होता है ? ॥131॥ उनमें नमि दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों का स्वामी हुआ और विनमि उत्तर श्रेणी के साठ नगरों का अधिपति हुआ ॥132॥ नमि अपने बंधुजनों के साथ रथनूपुर नामक श्रेष्ठ नगर में निवास करने लगा और विनमि सार्थक नाम धारण करने वाले नभस्तिलक नामक नगर में रहने लगा ॥133 ॥ विद्याधर लोग उन धीर-वीर राजाओं को पाकर अपने-आपको संसार से ऊपर मानने लगे॥134॥
अथानंतर-―यद्यपि धीर-वीर भगवान् परीषहरूपी अग्नि को बुझाने वाले प्रशस्त ध्यान रूपी सागर में प्रवेश कर प्रतिमायोग से विराजमान थे― छह माह से प्रतिमायोग धारण करने पर भी आहार के बिना उन्हें कुछ भी आकुलता नहीं थी तो भी मोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने की इच्छा करने वाले जो अन्य मनुष्य वर्तमान में हैं तथा आगे होंगे आहार के अभाव में उनकी शक्ति क्षीण हो जायेगी ऐसा मानकर वे विचार करने लगे कि क्षमा आदि लक्षणों से युक्त धर्म-पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में मुख्य है, वही मोक्ष, काम और अर्थ का साधन है । धर्म का साधन शरीर है और शरीर प्राणों का आधार होने से प्राणों पर निर्भर है । प्राणी प्राणों से अधिष्ठित है अर्थात् प्राणों के द्वारा जीवित है और प्राण अन्न से अधिष्ठित हैं अर्थात् अन्न से ही प्राण सुरक्षित रहते हैं । इसलिए परंपरा से अन्न भी धर्म का साधन है । अल्पशक्ति के धारक मनुष्यों की स्थिति प्रधान पुरुषार्थ-धर्म में बनी रहे इसमें अन्न भी कारण है । अतः इस भरत क्षेत्र में शासन की स्थिरता के लिए मैं आहार के इच्छुक मनुष्यों को निर्दोष आहार ग्रहण करने की विधि दिखाता हूँ ॥135-140॥
ऐसा विचारकर, यद्यपि भगवान् क्षुधादि के दूर करने में स्वयं समर्थ थे तो भी परोपकार के अर्थ उन्होंने गोचर-वृत्ति से अन्न-ग्रहण करने की इच्छा की ॥141 ॥ तदनंतर छह महीने के अनशन के बाद जिन्होंने प्रतिमा योग का संकोच कर लिया था ऐसे भगवान् आदि जिनेंद्र अपने चरणों के निक्षेप से पृथिवी को पल्लवित करते हुए आहार के लिए चलें ॥142 ॥ केवलज्ञान प्राप्त होने तक उन्होंने मौन व्रत ले रखा था, मार्ग में चलते समय उनकी भुजाएँ नीचे की ओर लंबी थीं, वे न अधिक शीघ्र और न अधिक धीमी चाल से सावधानी पूर्वक चल रहे थे ॥143 ॥ पृथिवी पर चांद्री चर्या से विचरण करते हुए वे मध्याह्न के समय उत्तम नगर तथा ग्रामों की गृह पंक्तियों में प्रजा के लिए दर्शन देते थे ॥144॥
जिस प्रकार नूतन उगे हुए चंद्रमा को देखती हुई प्रजा संतुष्ट नहीं होती है उसी प्रकार उस तरह भ्रमण करते हुए सौम्य शरीर के धारक भगवान् को ऊपर की ओर मुख उठा-उठाकर देखती हुई प्रजा संतुष्ट नहीं होती थी॥145॥ भगवान् को देख अनेक लोग ऐसा तर्क करते थे कि क्या यह राहु के द्वारा ग्रसे जाने के भय से नक्षत्र और सूर्य मंडल को छोड़कर चंद्रमा ही पृथिवी तल पर आ गया है ? अथवा क्या पहाड़, महल और वृक्षों को छायारूपी अंधकार को दूर करने के लिए यह सूर्य ही पृथिवी पर अवतीर्ण हुआ है ? ॥146-147 ॥ अहो ! ये भगवान् कांति के परम स्थान हैं, दीप्ति के अद्वितीय धाम हैं, अहो ! ये उत्तम शील के मानो पर्वत हैं, अहो! ये गुणों के महासागर हैं । ये सुंदर रूप की परम सीमा हैं, वे लावण्य की उत्कृष्ट भूमि हैं, माधुर्य को परम अवस्था हैं और धैर्य की उत्कृष्ट रीति हैं ॥148-149 ॥ अरे भव्यजनो! आओ, आओ नेत्रों को सफल करो । देखो, नग्न-दिगंबर होने पर भी इनकी कैसी परम सुंदरता है ? ॥150॥
इस प्रकार आपस में वार्तालाप करते तथा बहुत-बहुत बड़ी भीड़ के साथ इकट्ठे हुए नर-नारी आश्चर्य से व्याकुल हो भगवान के दर्शन कर रहे थे ॥151॥ उस समय कोई चित्र-विचित्र वस्त्र, कोई तरह-तरह के आभूषण और कोई उत्तमोत्तम गंध तथा मालाएँ भगवान के आगे समर्पित करते थे ॥152॥ कितने ही अज्ञानी लोग तत्काल सजाये हुए घोड़े, ऊँचे-ऊंचे हाथी, रथ तथा अन्य वाहन उनके आगे रखते थे ॥153॥ लोगों ने कभी किसी को आहार देते हुए न देखा था और न सुना था और न वे भगवान् के अभिप्राय को ही जानते थे इसलिए किसी को आहार देने का विकल्प नहीं उठा ॥154 ॥ जिस प्रकार लोगों को जागृत करने के लिए उगे हुए सूर्य का जगत् में भ्रमण करना उसके खेद का कारण नहीं है उसी प्रकार लोगों को प्रतिबद्ध करने के लिए तत्पर जिनेंद्र भगवान् का जगत् में जहाँ-तहाँ भ्रमण करना उसके खेद का कारण नहीं था ॥155 ॥ इस प्रकार जिनकी बुद्धि में रंचमात्र भी विषाद नहीं था ऐसे भगवान् प्रजा के द्वारा पूजित होते हुए लगातार छह माह तक आगम के अनुसार क्रम से पृथिवी पर विहार करते गये ॥156॥
तदनंतर विहार करते-करते भगवान् हस्तिनागपुर नगर पहुँचे । वह नगर जिनसे सदा दान (मद) चूता रहता था और जो मानो इस बात की सूचना ही दे रहे थे कि यहाँ दान (त्याग) की प्रवृत्ति होगी ऐसे हाथियों से सहित था ॥157॥ उस नगर के राजा सोमप्रभ और श्रेयान्स थे । उन दोनों भाइयों ने उसी रात में चंद्रमा, इंद्र की ध्वजा, मेरु पर्वत, बिजली, कल्पवृक्ष, रत्नद्वीप, विमान और पुरुषोत्तम भगवान ऋषभदेव ये आठ स्वप्न देखें ॥158-159॥ प्रातःकाल दोनों भाई सभा में बैठे और आश्चर्य से चकित हो विद्वत्समूह के साथ इन्हीं उत्तम स्वप्नों के फल की चर्चा करने लगे ॥160॥ विद्वानों ने उक्त स्वप्नों का फल इस प्रकार बताया कि कुमुदबंधु-चंद्रमा के समान पृथिवी पर आनंद को बढ़ाने वाला तथा उत्कृष्ट कांति को धारण करने वाला हमारा कोई बन ही यहाँ आवेगा । वह उत्तम यशरूपी ध्वजा का धारक होगा, संसार में समस्त कल्याणों का पर्व होगा, जगत् के मनोरथों को पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्षरूप होगा, बिजली के समान क्षण-भर ही अपना शरीर दिखलाने वाला होगा, धर्मरूपी रत्नों का महाद्वीप होगा और वैमानिक जगत्-स्वर्ग लोक से च्युत हुआ होगा । भगवान ऋषभदेव ने जिस प्रकार स्वप्न में दर्शन दिया है क्या आज वे स्वयं ही दर्शन देंगे-स्वयं यहाँ पधारेंगे । नगर तथा राजभवन की जो शोभा है वह आज ही दिखाई दे रही है ऐसी शोभा पहले कभी नहीं दिखी तथा दिशाओं की निर्मलता भी शीघ्र हो कल्याण की सूचना दे रही है ॥161-164॥ इस प्रकार स्वप्नों का फल जानकर तथा भीतर और बाहर अनेक मनुष्यों को नियुक्त कर जिनेंद्र भगवान् की चर्चा करते हुए दोनों समर्थ भाई जब तक बैठे तब तक मध्याह्न काल के फूंके हुए शंख का जोरदार शब्द हुआ । वह शंख का शब्द ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेंद्र भगवान का आगमन होने वाला है― इस शुभ समाचार से उन दोनों को बढ़ा ही रहा हो ॥165-166 ॥
तदनंतर दोनों भाई स्नान कर तैयार हुए और परिजनों ने उनके लिए दिव्य आहार से मनोहर उत्तम भोजन की विधि की―भोजन से थालियाँ सजायी । मणिमय फर्श के ऊपर दोनों भाई भोजन के लिए बैठे ही थे कि उसी समय सिद्धार्थ नाम का द्वारपाल शीघ्रता से आकर इस हर्ष वर्धक समाचार से उन्हें वृद्धिंगत करने लगा ॥167-168॥ कि समुद्रांत पृथिवी का त्याग करते समय इंद्रादिक देव जिनकी पालकी के उठाने वाले थे । कच्छ, महाकच्छ आदि पूर्व पुरुषों के भ्रष्ट हो जाने पर जो अकेले ही तप के दुर्धर भार को धारण कर रहे हैं, सभा-गोष्ठियों में आप-जैसे विद्वान् जिनकी कथारूपी अमृत से संतुष्ट होकर आहार ग्रहण करने की इच्छा नहीं रखते और जो क्षमा, मैत्री तथा तपरूपी लक्ष्मी से सहित हैं, वे त्रिलोकीनाथ भगवान वृषभदेव आज अकस्मात् हमारे अतिथि बनकर आये हुए हैं ॥ 169-172 ॥ वे प्रभु उत्तर दिशा से ही नगर में प्रवेश कर पधार रहे हैं, यथायोग्य चांद्रीचर्या का नियम लेकर जुड़ा प्रमाण दृष्टि से विहार कर रहे हैं, हड़बड़ाहट से युक्त मनुष्य उनके चरणों में अर्घ दे रहे हैं तथा स्तुति और वंदना के द्वारा उनकी सब ओर से सेवा कर रहे हैं, वे चंद्रमा के समान प्रत्येक घर में अपना तेज बिखेरते हुए अपना समझ अंतःपुर के आँगन में आ पहुंचे हैं ॥ 173-175 ॥ इस प्रकार सिद्धार्थ के वचनों का तात्पर्य समझ हर्ष से भरे हुए दोनों भाई, हाथ जोड़ ललाट पर धारण कर भगवान् के सामने गये ॥176॥
हे स्वामिन् ! आइए आज्ञा दीजिए, यह कहते हुए दोनों भाइयों ने जिस प्रकार चंद्रमा और सूर्य सुमेरु की प्रदक्षिणा देते हैं उसी प्रकार मार्ग में भगवान् की प्रदक्षिणा दी ॥177 ॥ तदनंतर चरणों में पड़कर (नमस्कार कर) सुख-समाचार पूछते हुए दोनों भाई आगे खड़े हो गये । उस समय वे मौन के धारक भगवान् के आगमन का कारण विचार रहे थे॥178॥ जिस प्रकार चंद्रमा की रेखा ताराओं के साथ सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देती है, उसी प्रकार राजा सोमप्रभ की रानी लक्ष्मीमती ने अन्य अनेक रानियों के साथ भगवान् की प्रदक्षिणा दी ॥179 ॥ उसी समय टिमकार रहित नेत्रों से भगवान् की ओर देखते हुए श्रेयान्स के मन में यह विचार आया कि ऐसा रूप तो मैंने पहले कहीं देखा है ॥180 ॥ भगवान् के देदीप्यमान होने पर भी उपशांत रूप से प्रतिबोध को प्राप्त हुआ श्रेयान्स अपने तथा भगवान् के दस पूर्व भवों को जान गया और उनके चरणों के समीप आकर मूर्च्छित हो गया ॥181॥ मूर्च्छित होने पर भी श्रेयान्स ने अपने सिर के कोमल-बालों से भगवान् के चरण पोंछे और मार्ग का श्रम दूर करने के लिए आनंद जन्य गरम-गरम आँसुओं की धारा से धोये ॥182॥ श्रीमती और वज्रजंघ ने पहले चारण ऋद्धि के धारक अपने दो पुत्रों के लिए जिस विधि से दान दिया था वह सब विधि भगवान् करते ही श्रेयान्स की स्मृति में आ गयी ॥183॥
तदनंतर दान-धर्म को विधि का ज्ञाता और उसकी स्वयं प्रवृत्ति कराने वाला राजा श्रेयान्स श्रद्धा आदि गुणों से युक्त हो हे भगवन् ! तिष्ठ-तिष्ठ ठहरिए-ठहरिए यह कहकर भगवान् को घर के भीतर ले गया, वहाँ उच्चासन पर विराजमान कर उसने उनके चरण-कमल धोये, उनके चरणों की पूजा कर के उन्हें मन, वचन, काय से नमस्कार किया । फिर संपूर्ण लक्षणों से युक्त पात्र के लिए देने की इच्छा से उसने इक्षुरस से भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि प्रभो ! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दस एषणा दोष तथा धूम-अंगार प्रमाण और संयोजना इन चार दाता संबंधी दोषों से रहित एवं प्रासुक है, इसे ग्रहण कीजिए ॥184-188॥ तदनंतर जिनकी आत्मा विशुद्ध थी और जो पैरों को सीधा कर खड़े थे ऐसे भगवान् वृषभदेव ने क्रिया से आहार की विधि दिखाते हुए चारित्र की वृद्धि के लिए पारणा की ॥189 ॥
राजा श्रेयान्स ने कल्याणकारी श्रीजिनेंद्र रूपी पात्र प्राप्त किये इसलिए पाँच प्रकार की आश्चर्यजनक विशुद्धियों से पंचाश्चर्य प्रकट हुए ॥190॥ अहो दान, अहो दान, अहो पात्र, अहो दान देने की पद्धति, धन्य-धन्य, इस प्रकार आकाश में देवों के शब्द हुए ॥191॥ आकाश में मेघों के समान शब्द करने वाले देव-दुंदुभि बजने लगे । वे दुंदुभि तीनों जगत् में मानो इस नाम की घोषणा ही कर रहे थे कि दानरूपी तीर्थ को चलाने वाले की उत्पत्ति हो चुकी है ॥192॥ राजा श्रेयान्स के दान से उत्पन्न यश की राशि से पूर्ण दिशारूपी स्त्रियों के मुख से प्रकट हुए श्वासोच्छ̖वास के समान सुगंधित वायु बहने लगी ॥193॥ उस समय आकाश में न समा सकने के कारण ही मानो सुमन (पुष्पों) की वर्षा होने लगी थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो राजा श्रेयान्स की सुमन वृत्ति-पवित्र मन का व्यापार ही भीतर न समा सकने के कारण शरीर से बाहर निकल रहा हो ॥194॥ राजा श्रेयान्स ने पात्र के लिए जो इक्षु रस की धारा दी थी उसके साथ ईर्ष्या होने के कारण ही मानो आकाश से देवकृत रत्नों की धारा नीचे पड़ने लगी ॥195॥
पूजा होने के बाद जब धर्म तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तप की वृद्धि के लिए वन को चले गये तब देवों ने अभिषेकपूर्वक दान तीर्थंकर― राजा श्रेयान्स की पूजा की ॥196 ॥ देवों से समीचीन दान और उसके फल की घोषणा सुन भरतादि राजाओं ने भी आकर राजा श्रेयान्स की पूजा की ॥197 ॥ इतिहास― पूर्व घटना का स्मरण कर राजा श्रेयान्स ने जो दानरूपी धर्म की विधि चलायी थी उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरत आदि राजाओं ने बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण किया ॥198॥ राजा श्रेयान्स ने बताया कि दान संबंधी पुण्य का संग्रह करने के लिए 1 अतिथि को पड़गाहना, 2 उच्चस्थान पर बैठाना, 3 पाद-प्रक्षालन करना, 4 दाता द्वारा अतिथि की पूजा, 5 नमस्कार करना, 6 मन:शुद्धि, 7 वचन-शुद्धि 8 काय-शुद्धि और 9 आहार-शुद्धि बोलना ये नौ प्रकार जानने के योग्य हैं ॥199-200॥ दान का फल बताते हुए राजा श्रेयान्स ने कहा कि इस तरह दान देने से जो पुण्य संचित होता है वह दाता के लिए पहले स्वर्गादि रूप फल देकर अंत में मोक्षरूपी फल देता है ॥ 201 ॥ इस तरह यथार्थ बात को सुनकर जिनके चित्त दानरूपी धर्म के लिए उद्यत हो रहे थे ऐसे भरत आदि राजा जैसे आये थे वैसे चले गये ॥202॥ चार ज्ञानरूपी चार मुखों को धारण करने वाले भगवान् वृषभदेव ने स्वयं मोक्ष तत्त्व का यथार्थज्ञान प्राप्त करने के लिए एक हजार वर्ष तक नाना प्रकार का तप किया ॥203 ॥ लंबी-लंबी जटाओं के भार से सुशोभित आदि जिनेंद्र उस समय जिसकी शाखाओं से पाये लटक रहे थे ऐसे वट-वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ 204॥
अथानंतर किसी समय विहार करते हुए भगवान्, पूर्व तालपुर नामक उस नगर में पहुँचे जहाँ कि भरत का छोटा भाई राजा वृषभसेन रहता था ॥205॥ वहाँ वे शकटास्य नामक उद्यान में बड़ी तत्परता के साथ ध्यान धारण कर वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर पर्यकासन से विराजमान हो गये । उस समय उन्होंने शुक्लध्यानरूपी तलवार की धार से इंद्रियों के समूह को अपने वश कर लिया था ॥206-207 ॥ उन्होंने क्षपक श्रेणिरूपी रणभूमि में प्रवेश कर महोत्साहरूपी हाथी पर सवार हो क्षणभर में मोहरूपी राजा को नीचे गिरा दिया ॥208॥ और उसके बाद ही एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन शत्रुओं को भी नष्ट कर दिया ॥209 ॥ इस तरह चार घातिया कर्मों के क्षय से उन्हें समस्त द्रव्यपर्याय तथा लोक-अलोक को दिखाने वाला केवल ज्ञान प्राप्त हुआ ॥210॥
पूर्व की भाँति इंद्रों सहित चारों निकायों के देवों ने आकर जिनेंद्र देव को नमस्कार किया । उस समय समस्त देव, भगवान् ने कर्म शत्रुओं पर जो विजय प्राप्त की थी उसका गुणगान कर रहे थे ॥211 ॥ तदनंतर तत्क्षण में उत्पन्न हुए आठ प्रातिहार्यों और चौंतीस अतिशयों से सहित भगवान अत्यधिक सुशोभित होने लगे ॥212 ॥
उसी समय भरत को पुत्र की उत्पत्ति, चक्ररत्न की प्राप्ति और भगवान को केवलज्ञान का लाभ ये तीन समाचार एक साथ मिले । इस भाग्य वृद्धि से प्रसन्न होता हुआ भरत सर्वप्रथम भगवान् की वंदना करने के लिए चला ॥213॥ कुरुवंशी तथा भोजवंशी आदि राजाओं के साथ चतुरंग सेना से आवृत भरत ने जाकर अरहंत संबंधी विभूति से युक्त भगवान् की पूजा कर उन्हें प्रणाम किया ॥214॥ उसी समय अनेक राजाओं के साथ राजा वृषभसेन भगवान के पास गया और संयम धारण कर उनका प्रथम गणधर हो गया ॥215 ॥ लक्ष्मीमती के पुत्र जयकुमार तथा उसके छोटे भाई को राज्यकार्य में नियुक्त कर राजा श्रेयान्स और सोमप्रभ ने भी दीक्षा धारण कर ली ॥216 ॥ धैर्य से युक्त ब्राह्मी और सुंदरी नामक दोनों कुमारियां अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ले आर्यिकाओं की स्वामिनी बन गयीं ॥217॥ वृषभ जिनेंद्र के अर्हंत संबंधी वैभव को देखकर अन्य लोग भी उस समय यथायोग्य सम्यग्दर्शन तथा श्रावकों के व्रत से युक्त हुए थे ॥218 ॥ उस समय रागरहित स्त्री-पुरुष, पद्मराग मणियों के समान अपने लाल-लाल हाथों से इंद्रनील मणि के समान काले-काले केशों को स्वयं उखाड़ते हुए अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ॥219॥ उस समय दीक्षा लेने वाले धैर्यशाली मनुष्यों का जिस प्रकार कोमल, चिकने और सघन बालों में स्नेह नहीं था उसी प्रकार अपने शरीरों में भी उनका स्नेह नहीं था ॥220 ॥
तदनंतर बारह योजन विस्तार वाले समवसरण की रचना हुई, उसमें चतुर्विध संघ और चार निकाय के देव यथास्थान आसीन हुए ॥ 221 ॥ उस समवसरण में महाप्रभाव से संपन्न अप्रतिचक्र आदि शासन देवता, धर्मचक्र धारक भगवान् वृषभदेव को निरंतर नमस्कार करते रहते थे ॥ 222 ॥ समवसरण में बारह सभाएँ थीं उनमें भगवान की दाहिनी ओर से लेकर 1 मुनि, 2 कल्पवासिनी देवियाँ 3 आर्यिकाएं 4 ज्योतिषी देवों की देवियाँ 5 व्यंतर देवों की देवियाँ, 6 भवनवासी देवों की देवियाँ, 7 भवनवासी देव, 8 व्यंतर देव, 9 ज्योतिषी देव, 10 कल्पवासी देव, 11 मनुष्य और 12 तिर्यंच ये बारह गण पृथक्-पृथक् अपने-अपने विस्तृत स्थानों पर बैठे थे ॥223 ॥
अथानंतर जब तीन लोक के जीव भगवान् का दिव्य उपदेश सुनने की इच्छा से शांति पूर्वक बैठ गये तब प्रथम गणधर ने समस्त पदार्थों के प्रकाशित करने वाले जिनेंद्ररूपी सूर्य से प्रश्न किया और उन्होंने नाना भेदों में परिवर्तित होने वाली एवं ओठों के परिस्पंद से रहित अपनी दिव्य ध्वनिरूपी लक्ष्मी के द्वारा मोहरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया ॥224॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से सहित जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में श्रीऋषभनाथ भगवान की केवलज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला नवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥9॥