दैव
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
अष्टशती/योग्यता कर्मपूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम्, पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धि:, तदन्यतरापायेऽघटनात् । पौरुषमात्रेऽर्थादर्शनात् । दैवमात्रे वा समीहानर्थक्यप्रसंगात् ।=(संसारी जीवों में दैव व पुरुषार्थ संबंधी प्रकरण है।)–पदार्थ की योग्यता अर्थात् भवितव्य और पूर्वकर्म ये दोनों दैव कहलाते हैं। ये दोनों ही अदृष्ट हैं। तथा व्यक्ति की अपनी चेष्टा को पुरुषार्थ कहते हैं जो दृष्ट है। इन दोनों से ही अर्थसिद्धि होती है, क्योंकि, इनमें से किसी एक के अभाव में अर्थसिद्धि घटित नहीं हो सकती। केवल पुरुषार्थ से तो अर्थसिद्धि होती दिखाई नहीं देती (देखें नियति - 3.5)। तथा केवल दैव के मानने पर इच्छा करना व्यर्थ हुआ जाता है। (देखें नियति - 3.2)।
अधिक जानकारी के लिये देखें नियति - 3।
पुराणकोष से
(1) पूर्व पर्याय में कृत शुभाशुभ कर्म । पद्मपुराण - 96.9
(2) सौधर्मेंद्र स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.187