निक्षेप 6
From जैनकोष
- द्रव्य निक्षेप के लक्षण संबंधी शंका
- आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंका
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप विषयक शंका
- नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि
- भावी नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
- नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
- ज्ञायकशरीर विषयक शंकाएँ
- त्रिकाल ज्ञायकशरीरों में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- ज्ञायक शरीरों को नोआगम संज्ञा क्यों ?
- भूत व भावी शरीरों को नोआगमपना कैसे है
- द्रव्यनिक्षेप के भेदों में परस्पर अंतर
- द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ
- द्रव्य निक्षेप के लक्षण संबंधी शंका
देखें द्रव्य - 2.2 (भविष्य पर्याय के प्रति अभिमुखपने रूप लक्षण ‘गुणपर्ययवान द्रव्य’ इस लक्षण के साथ विरोध को प्राप्त नहीं होता)। राजवार्तिक/1/5/4/28/25 युक्तं तावत् सम्यग्दर्शनप्राप्तिं प्रति गृहीताभिमुख्यमिति, अतत्परिणामस्य जीवस्य संभवात; इदं त्वयुक्तम्–जीवनपर्यायप्राप्तिं प्रति गृहीताभिमुख्यमिति। कुत:। सदा तत्परिणामात् । यदि न स्यात्, प्रागजीव: प्राप्नोतीति। नैष दोष:, मनुष्यजीवादिविशेषापेक्षया सव्यपदेशो वेदितव्य:। =प्रश्न–सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुख कहना तो युक्त है; क्योंकि, पहले जो पर्याय नहीं है, उसका आगे होना संभव है; परंतु जीवनपर्याय के प्रति अभिमुख कहना तो युक्त नहीं है, क्योंकि, उस पर्यायरूप तो वह सदा ही रहता है। यदि न रहता तो उससे पहले उसे अजीवपने का प्रसंग प्राप्त होता ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, यहाँ जीवन सामान्य की अपेक्षा उपरोक्त बात नहीं कही गयी है, बल्कि मनुष्यादिपने रूप जीवत्व विशेष की अपेक्षा बात कही है।
नोट–यह लक्षण नोआगम तथा भावी नोआगम द्रव्य निक्षेप में घटित होता है–(देखें निक्षेप - 6.3.1,2)। - आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंका
- आगम-द्रव्य-निक्षेप में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/270/9 तदेवेदमित्येकत्वप्रत्यभिज्ञानमन्वयप्रत्यय:। स तावज्जीवादिप्राभृतज्ञायिन्यात्मन्यनुपयुक्ते जीवाद्यागमद्रव्येऽस्ति। स एवाहं जीवादिप्राभृतज्ञाने स्वयमुपयुक्त: प्रागासम् स एवेदानीं तत्रानुपयुक्तो वर्ते पुनरुपयुक्तो भविष्यामीति संप्रत्ययात् । =’यह वही है’ इस प्रकार का एकत्व प्रत्यभिज्ञान अन्वयज्ञान कहलाता है। जीवादि विषयक शास्त्र को जानने वाले वर्तमान अनुपयुक्त आत्मा में वह अवश्य विद्यमान है। क्योंकि, ‘जो ही मैं जीवादि शास्त्रों को जानने में पहले उपयोग सहित था, वही मैं इस समय उस शास्त्रज्ञान में उपयोग रहित होकर वर्त रहा हूँ और पीछे फिर शास्त्रज्ञान में उपयुक्त हो जाऊँगा। इस प्रकार द्रव्यपने की लड़ी को लिये हुए भले प्रकार ज्ञान हो रहा है। - उपयोगरहित की भी आगम संज्ञा कैसे है
धवला 4/1,3,1/5/2 कधमेदस्स जीवदवियस्स सुदणाणावरणीयक्खओवसमविसिट्ठस्स दव्वभावखेत्तागमवदिरित्तस्स आगमदव्वखेत्तववएसो। ण एसदोसो, आधारे आधेयोवयारेण कारणे कज्जुवयारेणलद्धागमववएसखओवसमविसिट्ठजीवदव्वावलंबणेण वा तस्स तदविरोहा। =प्रश्न– श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विशिष्ट, तथा द्रव्य और भावरूप क्षेत्रागम से रहित इस जीवद्रव्य के आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है (यहाँ ‘क्षेत्र’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर– यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, आधाररूप आत्मा में आधेयभूतक्षयोपशम-स्वरूप आगम के उपचार से; अथवा कारणरूप आत्मा में कार्यरूप क्षयोपशम के उपचार से, अथवा प्राप्त हुई है आगमसंज्ञा जिसको ऐसे क्षयोपशम से युक्त जीवद्रव्य के अवलंबन से जीव के आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञा के होने में कोई विरोध नहीं है।
धवला 7/2,1,1/4/2 कधमागमेण विप्पमुक्कस्स जीवदव्वस्स आगमववएसो। ण एस दोसो, आगमाभावे वि आगमसंस्कारसहियस्स पुव्वं लद्धागमववएसस्स जीवदव्वस्स आगमववएसुवलंभा। एदेण भट्टसंसकारजीवदव्वस्स वि गहणं कायव्वं, तत्थ वि आगमववएसुवलंभा। =प्रश्न–जो आगम के उपयोग से रहित है, उस जीवद्रव्य को ‘आगम’ कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आगम के अभाव होने पर भी आगम के संस्कार सहित एवं पूर्वकाल में आगम संज्ञा को प्राप्त जीवद्रव्य को आगम कहना पाया जाता है। इसी प्रकार जिस जीव का आगमसंस्कार भ्रष्ट हो गया है उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि, उसके भी (भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा– कषायपाहुड़ ) आगमसंज्ञा पायी जाती है। ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/217/269/8 )।
- आगम-द्रव्य-निक्षेप में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- नोआगम द्रव्यनिक्षेप विषयक शंका
- नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/274/1 एतेन जीवादिनोआगमद्रव्यसिद्धिरुक्ता। य एवाहं मनुष्यजीव: प्रागासं स एवाधुना वर्ते पुनर्मनुष्यो भविष्यामीत्यन्वयप्रत्ययस्य सर्वथाप्यबाध्यमानस्य सद्भावात् ।...ननु च जीवादिनोआगमद्रव्यमसंभाव्यं जीवादित्वस्य सार्वकालिकत्वेनानागतत्वासिद्धेस्तदभिमुख्यस्य कस्यचिदभावादिति चेत्, सत्यमेतत् । तत एव जीवादिविशेषापेक्षयोदाहृतो जीवादिद्रव्यनिक्षेपो। =इस कथन से, जीव, सम्यग्दर्शन आदि के नोआगम द्रव्य की सिद्धि भी कह दी गयी है। क्योंकि ‘जो ही मैं पहले मनुष्य जीव था, सो ही मैं इस समय देव होकर वर्त रहा हूँ तथा भविष्य में फिर मैं मनुष्य हो जाऊँगा’, ऐसा सर्वत: अबाधित अन्वयज्ञान विद्यमान है। प्रश्न–जीव, पुद्गल आदि सामान्य द्रव्यों का नोआगमद्रव्य तो असंभव है; क्योंकि, जीवपना पुद्गलपना आदि धर्म तो उन द्रव्यों में सर्वकाल रहते हैं। अत: भविष्यत् में उन धर्मों की प्राप्ति असिद्ध होने के कारण उनके प्रति अभिमुख होने वाले पदार्थों का अभाव है ? उत्तर–आपकी बात सत्य है, सामान्यरूप से जीव पुद्गल आदि का नोआगम द्रव्यपना नहीं बनता। परंतु जीवादि विशेष की अपेक्षा बन जाता है, इसीलिए मनुष्य देव आदि रूप जीव विशेषों के ही यहाँ उदाहरण दिये गये हैं। (और भी देखें निक्षेप - 6.1 तथा निक्षेप/6/3/2)। - भावी नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि/1/5/18/5 सामान्यापेक्षया नोआगमभाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यंतरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। =जीवसामान्य की अपेक्षा ‘नोआगमभावी जीव’ यह भेद नहीं बनता; क्योंकि, जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। यहाँ पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा ‘नोआगमभावी जीव’ यह भेद बन जाता है; क्योंकि, जो जीव दूसरी गति में विद्यमान है, वह जब मनुष्यभव को प्राप्त करने के लिए सन्मुख होता है तब वह मनुष्यभावी जीव कहलाता है। (यहाँ ‘जीव’ विषयक प्रकरण है। (और भी देखें निक्षेप - 6.1;6/3/1) ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/217/270/6 )।
धवला 4/1,3,1/6/6 भवियं खेत्तपाहुडजाणगभावो जीवो णिद्दिस्सदे। कधं जीवस्स खेत्तागमखओवसमरहिदत्तादो। अणागमस्स खेतववएसो। न, क्षेष्यत्यस्मिन् भावक्षेत्रागम इति जीवद्रव्यस्य पुरैव क्षेत्रत्वसिद्धे:। =नोआगमद्रव्य के तीन भेदों में से जो आगामी काल में क्षेत्रविषयक शास्त्र को जानेगा ऐसे जीव को भावी-नोआगम-द्रव्य कहते हैं। (क्षेत्र विषयक प्रकरण है)। प्रश्न–जो जीव क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम से रहित होने के कारण अनागम है, उस जीव के क्षेत्र संज्ञा कैसे बन सकती हे। उत्तर–नहीं, क्योंकि, ‘भावक्षेत्ररूप आगम जिसमें निवास करेगा’ इस प्रकार की निरुक्ति के बल से जीवद्रव्य के क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम होने के पूर्व ही क्षेत्रपना सिद्ध है। - कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
धवला 4/1,3,1/6/1 तत्थ कम्मदव्वक्खेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं। कधं कम्मस्स खेत्तववएसो। न, क्षियंति निवसंत्यस्मिं जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्वसिद्धे:। =ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मद्रव्य को कर्म (तद्वयतिरिक्त नोआगम) द्रव्यक्षेत्र कहते हैं। प्रश्न–कर्मद्रव्य को क्षेत्रसंज्ञा कैसे प्राप्त हुई ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, जिसमें जीव ‘क्षियंति’ अर्थात् निवास करते हैं, इस प्रकार की निरुक्ति के बल से कर्मों के क्षेत्रपना सिद्ध है। - नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना
धवला 9/4,1,67/322/3 जा सा तव्वदिरित्तदव्वगंथकदी सा गंथिम-वाइम-वेदिम-पूरिमादिभेएण अणेयविहा। कधमेदेसिं गंथसण्णा। ण, एदे जीवो बुद्धीए अप्पाणम्मि गुंथदित्ति तेसिं गंथत्तसिद्धी। =जो तद्वयतिरिक्त द्रव्यग्रंथकृति है वह गँथना, बुनना, वेष्टित करना और पूरना आदि के भेद से अनेक प्रकार की है। =प्रश्न–इनकी ग्रंथ संज्ञा कैसे संभव है? उत्तर–नहीं; क्योंकि, जीव इन्हें बुद्धि से आत्मा में गूँथता है। अत: उनके ग्रंथपना सिद्ध है।
- नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि
- ज्ञायकशरीर विषयक शंकाएँ
- त्रिकाल ज्ञायकशरीरों में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/274/27 नन्वेवमागमद्रव्यं वा बाधितात्तदन्वयप्रत्ययान्मुख्यं सिद्धयतु ज्ञायकशरीरं तु त्रिकालगोचरं तद्वयतिरिक्तं च कर्मनोकर्मविकल्पमनेकविधं कथं तथा सिद्धयेत् प्रतीत्यभावादिति चेन्न, तत्रापि तथाविधान्वयप्रत्ययस्य धान्वयप्रत्ययस्य सद्भावात् । यदेव मे शरीर ज्ञातुमारभमाणस्य तत्त्वं तदेवेदानीं परिसमाप्ततत्त्वज्ञानस्य वर्तते इति वर्तमानज्ञायकशरीरे तावदन्वयप्रत्यय:। यदेवोपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य मे शरीरमासीत्तदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्येत्यतीतज्ञायकशरीरे प्रत्यवमर्श:। यदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य शरीरं तदेवोपयुक्ततत्त्वज्ञानस्यभविष्यतीत्यनागतज्ञायकशरीरेप्रत्यय:। =प्रश्न–अन्वयज्ञान से मुख्य आगमद्रव्य तो भले ही निर्बाधरूप से सिद्ध हो जाओ परंतु त्रिकालवर्ती ज्ञायक शरीर और कर्म नोकर्म के भेदों से अनेक प्रकार का तद्वयतिरिक्त भला कैसे मुख्य सिद्ध हो सकता है; क्योंकि, उसकी प्रतीति नहीं होती है? उत्तर–नहीं; वहाँ भी तिस प्रकार अनेक भेदों को लिये हुए अन्वयज्ञान विद्यमान है। वह इस प्रकार कि तत्त्वों को जानने के लिए आरंभ करने वाले मेरा जो ही शरीर पहले था, वही तो इस समय तत्त्वज्ञान की भली भाँति समाप्त कर लेने वाले मेरा यह शरीर वर्त रहा है, इस प्रकार वर्तमान के ज्ञायकशरीर में अन्वय प्रत्यय विद्यमान है। तत्त्वज्ञान में उपयोग लगाये हुए मेरा जो ही शरीर पहले था वही इस भोजन करते समय तत्त्वज्ञान में नहीं उपयोग लगाये हुए मेंरा यहा शरीर है, इस प्रकार भूतकाल के ज्ञायकशरीर में प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। तथा इस वाणिज्य करते समय तत्त्वज्ञान में नहीं उपयोग लगा रहे मेरा जो भी शरीर है, पीछे तत्त्वज्ञान में उपयुक्त हो जाने पर वही शरीर रहा आवेगा, इस प्रकार भविष्यत् के ज्ञायक शरीर में अन्वयज्ञान हो रहा है। - ज्ञायक शरीरों को नोआगम संज्ञा क्यों ?
धवला 9/4,1,1/7/1 कधमेदेसिं तिण्णं सरीराणं णिच्चेयणाणं जिणव्ववएसो। ण, धणुहसहचारपज्जाएण तीदाणागयवट्टमाणमणुआण धणुहववएसो व्व जिणाहारपज्जाएण तीदाणागय-वट्टमाणसरीराणं दव्वजिणत्तं पडि विरोहाभावादो। =प्रश्न–इन अचेतन तीन शरीरों के (नोआगम) ‘जिन’ संज्ञा कैसे संभव है (यहाँ ‘जिन’ विषयक प्रकरण है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार धनुष-सहचार रूप पर्याय से अतीत, अनागत और वर्तमान मनुष्यों की ‘धनुष’ संज्ञा होती है, उसी प्रकार (आधार आधेय का आरोप करके) जिनाधार रूप पर्याय से अतीत, अनागत और वर्तमान शरीरों के द्रव्य जिनत्व के प्रति कोई विरोध नहीं है।
धवला 9/4,1,63/270/1 कधं सरीराणां णोआगमदव्वकदिव्ववएसो। आधारे आधेओवयारादो। =प्रश्न–शरीरों को नोआगम-द्रव्यप्रकृति संज्ञा कैसे संभव है (यहाँ ‘कृति’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–चूँकि शरीर नोआगम द्रव्यकृति के आधार है, अत: आधार में आधेय का उपचार करने से उक्त संज्ञा संभव है। ( धवला 4/1,3,1/6/6 )। - भूत व भावी शरीरों को नोआगमपना कैसे है
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/270/3 होदु णाम वट्टमाणसरीरस्स पेज्जागमववएसो; पेज्जागमेण सह एयत्तुवलंभादो, ण भविय-समुज्झादाणमेसा सण्णा; पेज्जपाहुडेण संबंधाभावादो त्ति; ण एस दोसो; दव्वट्ठियप्पणाए सरीरम्मि तिसरीरभावेण एयत्तमुवगयम्मि तदविरोहादो। =प्रश्न–वर्तमान शरीर की नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा होओ, क्योंकि वर्तमान शरीर का पेज्जविषयक शास्त्र को जानने वाले जीव के साथ एकत्व पाया जाता है। परंतु भाविशरीर और अतीत शरीर को नोआगम-द्रव्य-पेज्ज संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इन दोनों शरीरों का पेज्ज के साथ संबंध नहीं पाया जाता है। (यहाँ ‘पेज्ज’ विषयक प्रकरण है) ? उत्तर–यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से भूत, भविष्यत् और वर्तमान ये तीनों शरीर शरीरत्व की अपेक्षा एकरूप हैं, अत: एकत्व को प्राप्त हुए शरीर में नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। धवला 1/1,1,1/21/5 आहारस्साहेयोवयारादो भवदुधरिदमंगलपज्जाय-परिणद-जीवसरीरस्स मंगलववएसो ण अण्णेसिं, तेसु ट्ठिदमंगलपज्जायाभावा। ण रायपज्जायाहारत्तणेण अणागदादीदजीवे वि रायववहारोलंभा। = प्रश्न–आधारभूत शरीर में आधेयभूत आत्मा के उपचार से धारण की हुई मंगल पर्याय से परिणत जीव के शरीर को नोआगम-ज्ञायकशरीर-द्रव्यमंगल कहना तो उचित भी है, परंतु भावी और भूतकाल के शरीर की अवस्था को मंगल संज्ञा देना किसी प्रकार भी उचित नहीं है; क्योंकि, उनमें मंगलरूप पर्याय का अभाव है। (यहाँ ‘मंगल’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, राजपर्याय का आधार होने से अनागत और अतीत जीव में भी जिस प्रकार राजारूप व्यवहार की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार मंगल पर्याय से परिणत जीव का आधार होने से अतीत और अनागत शरीर में भी मंगलरूप व्यवहार हो सकता है। ( धवला 5/1,6,1/2/6 )।
धवला 4/1,3,1/6/3 भवदु पव्विल्लस्स दव्वखेत्तागमत्तादो खेत्तववाएसो, एदस्स पुण सरीरस्स अणागमस्स खेत्तववएसो ण घडदि त्ति। एत्थ परिहारो वुच्चदे। तं जधा–क्षियत्यक्षैषीत्क्षेष्यस्मिन् द्रव्यागमो भावागमो वेति त्रिविधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे आधेयोपचाराद्वा। =प्रश्न–द्रव्य क्षेत्रागम के निमित्त से पूर्व के (भूत) शरीर को क्षेत्र संज्ञा घटित नहीं होती। (यहाँ ‘क्षेत्र’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–उक्त शंका का यहाँ परिहार करते हैं। वह इस प्रकार है–जिसमें द्रव्यरूप आगम अथवा भावरूप आगम वर्तमान काल में निवास करता है, भूतकाल में निवास करता था और आगामी काल में निवास करेगा; इस अपेक्षा तीनों ही प्रकार के शरीर क्षेत्र कहलाते हैं। अथवा, आधाररूप शरीर में आधेयरूप क्षेत्रागम का उपचार करने से भी क्षेत्र संज्ञा बन जाती है।
- त्रिकाल ज्ञायकशरीरों में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि
- द्रव्यनिक्षेप के भेदों में परस्पर अंतर
- आगम व नोआगम में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/275/18 तस्यागमद्रव्यादन्यत्वं सुप्रतीतमेवानात्मत्वात् । = वह ज्ञायक शरीर नोआगमद्रव्य आगमद्रव्य से तो भिन्न भले प्रकार जाना ही जा रहा था, क्योंकि आगमज्ञान के उपयोग रहित आत्मा को आगमद्रव्य माना है, और जीव के जड़ शरीर को नोआगम माना है।
धवला 9/4,1,63/270/2 जदि एवं तो सरीराणमागमत्तमुवयारेण किण्ण वुच्चदे। आगमणोआगमाणं भेदपदुप्पायणट्ठं ण वुच्चदे पओजणाभावादो च। =प्रश्न–यदि ऐसा है अर्थात् आधार में आधेय का उपचार करके शरीर को नोआगम कहते हों तो शरीरों को उपचार से आगम क्यों नहीं करते? उत्तर–आगम और नोआगम का भेद बतलाने के लिए; अथवा कोई प्रयोजन न होने से भी शरीरों को आगम नहीं कहते। धवला 9/4,1,1/7/3 आगमसण्णा अणुवजुत्तजीवदव्वस्से एत्थ किण्ण कदा, उवजोगाभावं पडि विसेसाभावादो। ण, एत्थ आगमसंस्काराभावेण तदभावादो...भविस्सकाले जिणपाहुड़जाणयस्स भूदकाले णादूण विस्सरिदस्स य णोआगमभवियदव्वजिणत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, आगमदव्वस्स आगमसंस्कारपज्जायस्स आहारत्तणेण तीदाणागदवट्टमाण णोआगमदव्वत्तविरोहादो। =प्रश्न–अनुपयुक्त जीवद्रव्य के समान यहाँ (त्रिकाल गोचर ज्ञायक शरीरों की भी) आगम संज्ञा क्यों नहीं की, क्योंकि दोनों में उपयोगाभाव की अपेक्षा कोई भेद नहीं है? उत्तर–नहीं की, क्योंकि, यहाँ आगम संस्कार का अभाव होने से उक्त संज्ञा का अभाव है। प्रश्न–भविष्यकाल में जिनप्राभृत को जानने वाले व भूतकाल में जानकर विस्मरण को प्राप्त हुए जीवद्रव्य के नोआगम-भावी-जिनत्व क्यों नहीं स्वीकार करते (यहाँ ‘जिन’ विषयक प्रकरण है)? उत्तर–नहीं क्योंकि आगम संस्कार पर्याय का आधार होने से अतीत, अनागत व वर्तमान आगमद्रव्य के नोआगम द्रव्यत्व का विरोध है। (भावार्थ–आगमद्रव्य में जीवद्रव्य का ग्रहण होता है और नोआगम में उसके आधारभूत शरीर का। जीव में आगमसंस्कार होना संभव है, पर शरीर में वह संभव नहीं है। इसीलिए ज्ञायक के शरीर को आगम अथवा जीवद्रव्य को नोआगम नहीं कह सकते हैं।) - भावी ज्ञायकशरीर व भावी नोआगम में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/275/17 तर्हि ज्ञायकशरीरं भाविनोआगमद्रव्यादनन्यदेवेति चेन्न, ज्ञायकविशिष्टस्य ततोऽन्यत्वात् ।=प्रश्न–तब तो (भावी) ज्ञायकशरीर भाविनोआगम से अभिन्न ही हुआ ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उस ज्ञायकशरीर से ज्ञायकआत्मा करके विशिष्ट भावी नोआगमद्रव्य भिन्न है।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/217/270/24- भाषाकार–जिस प्रकार भावी और भूत शरीर में शरीरसामान्य की अपेक्षा वर्तमान शरीरों से एकत्व मानकर (उन भूत व भावी शरीर में) नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा का व्यवहार किया है (देखें निक्षेप - 6.4.3), उसी प्रकार वर्तमान जीव ही भविष्यत् में पेज्जविषयक शास्त्र का ज्ञाता होगा; अत: जीव सामान्य की अपेक्षा एकत्व मानकर वर्तमान जीव (के शरीर को) भाविनोआगम द्रव्यपेज्ज कहा है। ( धवला 1/1,1,1/26/21 पर विशेषार्थ)। सर्वार्थसिद्धि/ पं.जगरूप सहाय/1/5/पृ.49 भावी ज्ञायकशरीर में जीव के (जीव विषयक) शास्त्र को जानने वाला शरीर है। परंतु भावी नोआगमद्रव्य में जो शरीर आगे जाकर मनुष्यादि जीवन प्राप्त करेगा। उन्हें उनके (मनुष्यादि विषयों के) शास्त्र जानने की आवश्यकता नहीं। अज्ञायक होकर ही (शरीर) प्राप्त कर सकेगा। ऐसा ज्ञायकपना और अज्ञायकपना का दोनों में भेद व अंतर है। - ज्ञायक शरीर और तद्वयतिरिक्त में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/275/25 कर्म नोकर्म वान्वयप्रत्ययपरिच्छिन्नं ज्ञायकशरीरादनन्यदिति चेत् न, कार्मणस्य शरीरस्य तैजसस्य च शरीरस्य शरीरभावमापन्नस्याहारादिपुद्गलस्य वा ज्ञायकशरीरत्वासिद्ध:, औदारिकवैक्रियकाहारकशरीरत्रयस्यैव ज्ञायकशरीरत्वोपत्तेरन्यथा विग्रहगतावपि जीवस्योपयुक्तज्ञानत्वप्रसंगात् तैजसकार्मण शरीरयो: सद्भावात् । =प्रश्न–तद्वयतिरिक्त के कर्म नोकर्म भेद भो अन्वय ज्ञान से जाने जाते हैं, अत: ये दोनों ज्ञायकशरीर नोआगम से भिन्न हो जावेंगे ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, कार्माण वर्गणावों से बने हुए कार्मणशरीर और तैजस वर्गणाओं से बने हुए तैजसशरीर इन दोनों शरीररूप से शरीरपने को प्राप्त हो गये पुद्गलस्कंधों को ज्ञायक शरीरपना सिद्ध नहीं है। अथवा आहार आदि वर्गणाओं को भी ज्ञायकशरीरपना असिद्ध है। वस्तुत: बन चुके औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरों को ही ज्ञायकशरीरपना कहना युक्त है। अन्यथा विग्रहगति में भी जीव के उपयोगात्मक ज्ञान हो जाने का प्रसंग आवेगा, क्योंकि कार्मण और तैजस दोनों ही शरीर वहाँ विद्यमान हैं। - भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्त में अंतर
श्लोकवार्तिक 2/1/5/66/276/9 कर्मनोकर्म नोआगमद्रव्यं भाविनोआगमद्रव्यादनर्थांतरमिति चेन्न, जीवादिप्राभृतज्ञायिपुरुषकर्मनोकर्मभावमापन्नस्यैव तथाभिधानात्, ततोऽन्यस्य भाविनोआगमद्रव्यत्वोपगमात् । =प्रश्न–कर्म और नोकर्मरूप नोआगम द्रव्य भावि-नोआगम-द्रव्य से अभिन्न हो जावेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जीवादि विषयक शास्त्र को जानने वाले ज्ञायक पुरुष के ही कर्म व नोकर्मों को तैसा अर्थात् तद्वयतिरिक्त नोआगम कहा गया है। परंतु उससे भिन्न पड़े हुए और आगे जाकर उस उस पर्यायरूप परिणत होने वाले ऐसे कर्म व नोकर्मों से युक्त जीव को भाविनोआगम माना गया है।
- आगम व नोआगम में अंतर
- द्रव्य निक्षेप के लक्षण संबंधी शंका