पाठ:सामायिक पाठ—पण्डित महाचंद्र
From जैनकोष
(कविवर महाचंद्र कृत)
(१. प्रतिक्रमण कर्म)
काल अनंत भ्रम्यो जगमें सहिये दुःख भारी,
जन्म मरण नित किये पापको है अधिकारी,
कोटि भवांतर मांहि मिलन दुर्लभ सामायिक,
धन्य आज मैं भयो जोग मिलियो सुखदायक ॥
हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब,
ते सब मन वच काय योगकी गुप्ति बिना लभ,
आप समीप हजूरमांहि मैं खडो खडो सब,
दोष कहुं सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ॥
क्रोध मान मद लोभ मोह मायावश प्रानी,
दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहि आनी,
बिना प्रयोजन एक इन्द्रि बि ति चउ पंचेंद्रिय,
आप प्रसादहि मिटे जो लग्यो मोहि जिय ॥
आपसमे इक ठौर थापि करी जे दुःख दीने,
पेलि दिये पगतलें दाबि करी प्राण हरीने,
आप जगतके जीव जिते तिन सबके नायक,
अरज करुं मैं सुनो, दोष मेटो दुःखदायक ॥
अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय,
तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय,
मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि,
यह पडिकोणो कियो आदि षटकर्ममांहि विधि ॥
(२. प्रत्याख्यान कर्म)
जो प्रमाद वश होय विराधे जीव घनेरे,
तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे,
सो सब झूठो होहु जगतपतिके परसादै,
जा प्रसादतैं मिले सर्व सुख, दु:ख न लाधैं ॥
मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ,
किये पाप अति घोर पापमति होय चित्त दुठ,
निंदू हूं मैं बारबार निज जियको गरहूं,
सब विधि धर्म उपाय पाय फिरि पापहि करहूं ॥
दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी,
सत्संगि संयोग धर्म जिन श्रद्धा धारी,
जिन वचनामृत धार समावर्तै जिनवानी,
तो हू जीव संहारे धिक् धिक् हम जानी ॥
इन्द्रियलंपट होय खोय निज ज्ञानजमा सब,
अज्ञानी जिम करै तिसी विधि हिंसक व्है ब,
गमनागमन करंतो जीव विराधे भोले,
ते सब दोष किये निंदूं अब मनवचतोले ॥
आलोचन विधि थकी दोष लागे जु घनेरे,
ते सब दोष विनाश होउ तुमतैं जिन मेरे,
बारबार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता,
ईर्षादिकतैं भये निंदिये जे भयभीता ॥
(३. सामायिक कर्म)
सब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो है,
सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है,
आर्त्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूं सामायिक,
संयम मो कब शुद्ध होय यह भाव बधायिक ॥
पृथिवी जल अर अग्नि वायु चउकाय वनस्पति,
पंचहि थावरमांहिं तथा त्रसजीव बसैं जित,
बे इन्द्रिय तिय चउ पंचेन्द्रिय मांहिं जीव सब,
तिनसैं क्षमा कराऊं मुझ पर क्षमा करो अब ॥
इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण,
महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहु सम गण,
जन्म मरन समान जान हम समता कीनी,
सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ॥
मेरो है इक आतम तामैं ममत जु कीनो,
और सबै मम भिन्न जानि समता रस भीनो,
मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि सबै यह,
मोतैं न्यारे जानि यथारथ रुप कर्यो गह ॥
मैं अनादि जगजाल मांहि फँसि रुप न जाण्यो,
एकेंन्द्रिय दे आदि जंतु को प्राण हराण्यो,
ते अब जीवसमूह सुनो मेरी यह अरजी,
भवभव को अपराध क्षमा कीज्यो करी मरजी ॥
(४. स्तवन कर्म)
नमौं रिषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्मको,
संभव भवदु:खहरन करन अभिनंद शर्मको,
सुमति सुमतिदातार तार भवसिंधु पार कर,
पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवभीतिप्रीति धर ॥
श्री सुपार्श्व कृतपाश नाश भव जास शुद्धकर,
श्री चंद्रप्रभ चंद्रकांतिसम देहकांति धर,
पुष्पदंत दमि दोषकोष भवि पोष रोष हर,
शीतल शीतल-करन हरन भवताप दोष हर ॥
श्रेयरुप जिन श्रेय धेय नित सेय भव्यजन,
वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भवभय हन,
विमल विमलमति देन अंतगत है अंनत जिन,
धर्म शर्म शिवकरन शांति जिन शांति विधायिन ॥
कुंथु कुंथुमुख जीवपाल अरनाथ जालहर,
मल्लि मल्लसम मोहमल्ल मारन प्रचारधर,
मुनिसुव्रत व्रतकरन नमत सुरसंघहि नमि जिन,
नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ मांहि ज्ञानधन ॥
पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपल सम मोक्ष रमापति,
वर्द्धमान जिन नमौं वमौं भवदु:ख कर्मकृत,
या विधि मैं जिनसंघ रुप चउवीस संख्य धर,
स्तवूं नमूं हूं बारबार वंदूं शिवसुखकर ॥
(५. वंदना कर्म)
वंदूं मैं जिनवीर धीर महावीर सुसन्मति,
वर्द्धमान अतिवीर वंदिहौं मनवचतनकृत,
त्रिशलातनुज महेश धीश विद्यापति वंदूं,
वंदूं नित प्रति कनकरुपतनु पाप निकंदूं ॥
सिद्धारथ नृपनंद द्वंद दु:ख दोष मिटावन,
दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उद्धारन,
कुंडलपुर करि जन्म जगत जिय आनंदकारन,
वर्ष बहत्तरि आयु पाय सबही दु:ख-टारन ॥
सप्त हस्त तनु तुंग भंग कृत जन्ममरनभय,
बाल ब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय,
दे उपदेश उद्धारि तारि भवसिंधु जीवघन,
आप बसे शिवमांहिं ताहि वंदौ मनवचतन ॥
जाके वंदन थकी दोष दु:ख दूरहि जावे,
जाके वंदन थकी मुक्तितिय सन्मुख आवे,
जाके वंदन थकी वंद्य होवैं सुरगनके,
ऎसे वीर जिनेश वंदि हौं क्रमयुग तिनके ॥
सामायिक षट्कर्ममांहिं वंदन यह पंचम,
वंदे वीर जिनेंद्र इन्द्रशतवंद्य वंद्य मम,
जन्ममरण भय हरो करो अघशांति शांतिमय,
मैं अघकोश सुपोष दोष को दोष विनाशय ॥
(६. कायोत्सर्ग कर्म)
कायोत्सर्ग विधान करुं अंतिम सुखदाई,
काय त्यजनमय होय काय सबको दुखदाई,
पुरव दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर मैं,
जिनगृह वंदन करुं हरुं भव पापतिमिर मैं ॥
शिरोनती मैं नमूं मस्तक कर धरिकैं,
आवतार्दिक क्रिया करुं मनवच मद हरिकैं,
तीनलोक जिनभवन मांहिं जिन हैं जु अकृत्रिम,
कृत्रिम हैं द्वयअर्द्धद्वीप मांहिं वंदौं जिम ॥
आठकोडिपरि छप्पन लाख जु सहस सत्याणुं,
च्यारि शतक परि असी एक जिनमंदिर जाणुं,
व्यंतर ज्योतिष मांहि संख्यरहिते जिनमंदिर,
जिनगृह वंदन करुं हरहु मम पाप संघकर ॥
सामायिक सम नाहि और कोउ वैर मिटायक,
सामायिक सम नाहि और कोउ मैत्रीदायक,
श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक,
यह आवश्यक किये होय निश्चय दुःखहानक ॥
जे भवि आतम काजकरण उद्यम के धारी,
ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी,
राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब,
बुध 'महाचंद्र' बिलाय जाय तातैं कीज्यो अब ॥