पुर
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
महापुराण/16/169-170 परिखागोपुराट्टालवप्रप्राकारमंडितम् । नानाभवनविन्यासं सोद्यानं सजलाशयम् ।169। पुरमेवंविधं शस्तं उचितोद्देशसुस्थितम् । पूर्वोत्तर-प्लवांभस्कं प्रधानपुरुषोचितम् ।170।
=जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हुए हों, जो बगीचे और तालाबों से सहित हो, जो उत्तम रीति से अच्छे स्थान पर बसा हुआ हो, जिसमें पानी का प्रवाह ईशान दिशा की ओर हो और जो प्रधान पुरुषों के रहने के योग्य हो वह प्रशंसनीय पुर अथवा नगर कहलाता है।169-170।
अधिक जानकारी के लिए देखें नगर ।
पुराणकोष से
परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से शोभित, अनेक भवन, उद्यान और जलाशयों से युक्त प्रधान पुरुषों की आवासभूमि । आदिनाथ के समय में ऐसे अनेक नगर निर्मित किये गये थे । महापुराण 16. 169-170, हरिवंशपुराण - 9.38