मोक्षपाहुड गाथा 100
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को फिर विशेषरूप से कहते हैं -
जदि पढदि बहु सुदाणि य जदि काहिदि बहुविहं च चारित्तं ।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ।।१००।।
यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रं ।
तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मन: विपरीतम् ।।१००।।
यदि पढ़े बहुश्रुत और विविध क्रिया-कलाप करे बहुत ।
पर आत्मा के भान बिन बालाचरण अर बालश्रुत ।।१००।।
अर्थ - जो आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रों को पढ़ेगा और बहुत प्रकार के चारित्र का आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा । आत्मस्वभाव से विपरीत शास्त्र का पढ़ना और चारित्र का आचरण करना ये सब ही बालश्रुत व बालचारित्र हैं, अज्ञानी की क्रिया है, क्योंकि ग्यारह अंग और नव पूर्व तक तो अभव्यजीव भी पढ़ता है और बाह्य मूलगुणरूप चारित्र भी पालता है तो भी मोक्ष के योग्य नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१००।।