मोक्षपाहुड गाथा 17
From जैनकोष
आगे शिष्य पूछता है कि परद्रव्य कैसा है ? उसका उत्तर आचार्य कहते हैं -
आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि ।
तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं ।।१७।।
आत्मस्वभावादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति ।
तत् परद्रव्यं भणितं अवितत्थं सर्वदर्शिभि: ।।१७।।
जो आतमा से भिन्न चित्ताचित्त एवं मिश्र हैं ।
उन सर्वद्रव्यों को अरे ! परद्रव्य जिनवर ने कहा ।।१७।।
अर्थ - आत्मस्वभाव से अन्य सचित्त जो स्त्री, पुत्रादिक, जीवसहित वस्तु तथा अचित्त, धन, धान्य, हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु और मिश्र आभूषणादि सहित मनुष्य तथा कुटुम्ब सहित गृहादिक ये सब परद्रव्य हैं, इसप्रकार जिसने जीवादिक पदार्थो का स्वरूप नहीं जाना उसको समझाने के लिए सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवान ने कहा है अथवा `अवितत्थं' अर्थात् सत्यार्थ कहा है ।
भावार्थ - अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य चेतन अचेतन मिश्र वस्तु हैं, वे सब ही परद्रव्य हैं, इसप्रकार अज्ञानी को समझाने के लिए सर्वज्ञदेव ने कहा है ।।१७।।