मोक्षपाहुड गाथा 2
From जैनकोष
आगे इसप्रकार नमस्कार कर ग्रंथ करने की प्रतिज्ञा करते हैं -
णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं ।
वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ।।२।।
नत्वा च तं देवं अनंतवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् ।
वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ।।२।।
परमपदथित शुध अपरिमित ज्ञान-दर्शनमय प्रभु ।
को नमन कर हे योगिजन ! परमात्म का वर्णन करुँ ।।२।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि उस पूर्वोक्त देव को नमस्कार कर, परमात्मा जो उत्कृष्ट शुद्ध आत्मा उसको, परम योगीश्वर जो उत्कृष्ट योग्य ध्यान के करनेवाले मुनिराजों के लिए कहूँगा । कैसा है पूर्वोक्त देव ? जिसके अनन्त और श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन पाया जाता है, विशुद्ध है-कर्मल से रहित है, जिसका पद परम उत्कृष्ट है ।
भावार्थ - इस ग्रंथ में मोक्ष को जिस कारण से पावे और जैसा मोक्षपद है, वैसा वर्णन करेंगे, इसलिए उसी रीति उसी की प्रतिज्ञा की है । योगीश्वरों के लिए कहेंगे, इसका आशय यह है कि ऐसे मोक्षपद को शुद्ध परमात्मा के ध्यान द्वारा प्राप्त करते हैं, उस ध्यान की योग्यता योगीश्वरों के ही प्रधानरूप से पाई जाती है, गृहस्थों के यह ध्यान प्रधान नहीं है ।।२।।