योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 131
From जैनकोष
सकषाय जीव के ही कषाय होते हैं, अकषाय जीव के नहीं -
कषाय-परिणामोsस्ति जीवस्य परिणामिन: ।
कषायिणोs कषायस्य सिद्धस्येव न सर्वथा ।।१३१।।
न संसारो न मोक्षोsस्ति यतोsस्यापरिणामिन: ।
निरस्त-कर्म-सङ्गश्चापरिणामी ततो मत: ।।१३२।।
अन्वय :- कषायिण: परिणामिन: जीवस्य कषाय-परिणाम: अस्ति । अकषायस्य सर्वथा न अस्ति सिद्धस्य इव । यत: अस्य अपरिणामिन: अकषायिण: न संसार: न मोक्ष: अस्ति । तत: निरस्त-कर्मसङ्ग: अपरिणामी मत: ।
सरलार्थ :- कषाय सहित परिणमनशील जीव के कषाय-परिणाम होता है और जो जीव कषाय रहित परिणमन करता है, उस जीव को कषाय परिणाम नहीं होता; जैसे - सिद्ध पर्याय से परिणत जीव । क्योंकि कषाय रहित अपरिणामी जीव के न तो संसार है और न मोक्ष । इस कारण जिसके कर्म का अभाव हो गया है, वह जीव अपरिणामी माना गया है ।