योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 141
From जैनकोष
मिथ्याचारित्र का स्वरूप और स्पष्ट करते हैं -
यत: संपद्यते पुण्यं पापं वा परिणामत: ।
वर्तमानो ततस्तत्र भ्रष्टोsस्ति स्वचरित्रत: ।।१४१।।
अन्वय :- यत: (शुभ-अशुभ) परिणामत: पुण्यं वा पापं संपद्यते । तत: तत्र वर्तमान: स्वचारित्रत: भ्रष्ट: अस्ति ।
सरलार्थ :- क्योंकि शुभ और अशुभ परिणाम से पुण्य तथा पाप कर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए इन परिणामों में (उपादेय बुद्धि से) प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है ।