योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 375
From जैनकोष
भवाभिनन्दी का ही पुन: स्पष्ट स्वरूप -
मूढा लोभपरा: क्रूरा भीरवोsसूयका: शठा: ।
भवाभिनन्दिन: सन्ति निष्फलारम्भकारिण: ।।३७५।।
अन्वय :- ये मूढा: लोभपरा: क्रूरा: भीरव: असूयका: शठा: निष्फल-आरम्भ-कारिण: (ते) भवाभिनन्दिन: सन्ति ।
सरलार्थ :- जो मूढ अर्थात् मिथ्यादृष्टि, लोभ परिणाम करने में सदा तत्पर, अत्यन्त क्रूर स्वभावी, महा डरपोक, अतिशय ईर्षालु; विवेक से सर्वथा रहित, निरर्थक आरंभ करनेवाले जीव हैं, वे निश्चितरूप से भवाभिनन्दी अर्थात् अनन्त संसारी हैं ।