योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 384
From जैनकोष
प्रमाद ही बंध का मूल -
अयत्नचारिणो हिंसा मृते जीवेsमृतेsपि च ।
प्रयत्नचारिणो बन्ध: समितस्य वधेsपि नो ।।३८४।।
अन्वय :- जीवे मृते च अमृते अपि अयत्नाचारिण: हिंसा (भवति । तथा) समितस्य प्रयत्नाचारिण: वधे अपि बन्ध: न (भवति) ।
सरलार्थ :- जो साधक यत्नाचार रहित अर्थात् प्रमाद सहित है; उसके निमित्त से अन्य जीव के मरने तथा न मरने पर भी हिंसा का पाप होता है और जो साधक ईर्यादि समितियों से युक्त हुआ - यत्नाचारी अर्थात् प्रमाद रहित है, उसके निमित्त से अन्य जीव का घात होने पर भी हिंसा के पाप जन्य कर्म का बंध नहीं होता ।