योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 523
From जैनकोष
भोग के सन्दर्भ में रागी एवं विरागी का स्वरूप -
रागी भोगमभुञ्जानो बध्यते कर्मभि: स्फुट् ।
विराग: कर्मभिर्भोगं भुञ्जानोsपि न बध्यते ।।५२४।।
अन्वय : - रागी भोगं अभुञ्जान: (अपि) कर्मभि: बध्यते; (च) विराग: भोगं भुञ्जान: अपि कर्मभि: न बध्यते (एतत् तु) स्फुटं (अस्ति) ।
सरलार्थ :- जो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित रागी जीव है वह अज्ञानी भोग को न भोगता हुआ भी सदा ज्ञानावरणादि आठों कर्मो से बंधता है और जो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी कषाय रहित किंचित्/अल्प वीतरागी है, वह ज्ञानी श्रावक भोग को भोगता हुआ भी ज्ञानावरणादि आठों कर्मो से नहीं बंधता, यह सुनिश्चित है ।