योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 277
From जैनकोष
स्वतीर्थ-परतीर्थ का स्वरूप -
स्वतीर्थमलं हित्वा शुद्धयेsन्यद् भजन्ति ये ।
ते मन्ये मलिना: स्नान्ति सर: संत्यज्य पल्वले ।।२७७।।
अन्वय :- ये अमलं स्व (आत्म) तीर्थं हित्वा शुद्धये अन्यत् (तीर्थं) भजन्ति (अहं) मन्ये ते मलिना: सर: संत्यज्य पल्वले स्नान्ति ।
सरलार्थ :- जो अज्ञानी जीव अपने स्वाभाविक तथा अति निर्मल आत्मरूपी तीर्थ को छोड़कर आत्म-शुद्धि अर्थात् परिणामों की निर्मलता के लिये अन्य अतिशयक्षेत्र अथवा सिद्धक्षेत्र रूप तीर्थ को भजते/स्वीकारते हैं; मैं (अमितगति आचार्य) समझता हूँ कि वे मूर्ख जीव निर्मल जलवाले सरोवर को छोड़कर मलिन जलवाले छोटे गड्ढे में स्नान करते हैं ।