योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 338
From जैनकोष
शुद्धात्मा का ध्यान अलौकिक फलदाता -
चिन्त्यं चिन्तामणिर्दत्ते कल्पितं कल्पपादप: ।
अविचिन्त्यमसंकल्प्यं विविक्तात्मानुचिन्तित: ।।३३८।।
अन्वय :- चिन्तामणि: चिन्त्यं दत्ते । कल्पपादप: कल्पितं (दत्ते, परंतु) अनुचिन्तित: विविक्तात्मा अविचिन्त्यं असंकल्प्यं (दत्ते) ।
सरलार्थ :- चिंतामणि रत्न के सामने बैठकर जीव जिन वस्तुओं का चिंतन करता है, चिंतामणि रत्न उन वस्तुओं को जीव को देता है और कल्पवृक्ष कल्पित पदार्थो को देता है; परंतु त्रिकाली निज शुद्धात्मा का ध्यान जीव के लिये अचिंत्य और अकल्पित पदार्थो को देता है ।