योगसार - संवर-अधिकार गाथा 196
From जैनकोष
कषाय-क्षपण में समर्थ जीव का स्वरूप -
निष्कषायो निरारम्भ: स्वान्य-द्रव्यविवेचक: ।
धर्माधर्म-निराकाङ्क्षो लोकाचार-निरुत्सुक: ।।१९६।।
विशुद्धदर्शन- ज्ञान- चारित्रमयमुज्ज्वलम् ।
यो ध्यायत्यात्मनात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ ।।१९७।।
अन्वय :- निष्कषाय:, निरारम्भ:, स्व-अन्य-द्रव्यविवेचक:, धर्म-अधर्म-निराकांक्ष:, लोकाचार-निरुत्सुक: य: विशुद्ध-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयं उज्वलं आत्मानं आत्मना ध्यायति असौ कषायं क्षपयति ।
सरलार्थ :- जो साधु कषायहीन अर्थात् कथंचित् वीतरागी हुए हैं, आरम्भ-परिग्रह से रहित हैं, स्व-परद्रव्य के विवेक को लिये हुए अर्थात् भेदज्ञानी हैं, पुण्य-पापरूप धर्म-अधर्म की आकांक्षा नहीं रखते एवं लोकाचार के विषय में निरुत्सुक अर्थात् उदासीन हैं; इतना ही नहीं जो विशुद्ध दर्शन ज्ञान-चारित्रमय निज निर्मल/शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा ध्याते हैं, वे साधु कषाय को नष्ट करते हैं ।