वध
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/6/11/329/2 आयुरिंद्रियबलप्राणवियोगकारणं वधः ।
सर्वार्थसिद्धि/7/25/366/2 दंडकशावेत्रादिभिरभिघातः प्राणिनां वधः, न प्राणव्यपरोपणम्; ततः प्रागेवास्य विनिवृत्तत्वात् । =
- आयु, इंद्रिय और श्वासोच्छ्वास का वियोग कर देना वध है । ( राजवार्तिक/6/11/5/519/28 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/2/127 ) ।
- डंडा, चाबुक और बेंत आदि से प्राणियों को मारना वध है । यहाँ वध का अर्थ प्राणों का वियोग करना नहीं लिया गया है, क्योंकि अतिचार के पहले ही हिंसा का त्याग कर दिया जाता है । ( राजवार्तिक/7/25/2553/18 ) ।
परमात्मप्रकाश टीका/2/127/243/9 निश्चयेन मिथ्यात्वविषयकषायपरिणामरूपवधं स्वकीय... । = निश्चयकर मिथ्यात्व विषय कषाय परिणामरूप निजघात... ।
पुराणकोष से
(1) असातावेदनीय कर्म के दुःख शोक आदि आस्रवों में एक आस्रव । हरिवंशपुराण - 58.93
(2) अहिंसाणुव्रत का दूसरा अतीचार-दंड आदि से मारना-पीटना । हरिवंशपुराण - 58.164-165