वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 12
From जैनकोष
विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते।
यावत्तावद्भवन्त्यन्याः विपदाः प्रचुराः पुरा ।।१२।।
संसार में विपदावों का तांता—यह संसार एक चक्र लगाने वाले यंत्र की तरह है। जैसे रहट में घटिया चक्र लगाती रहती है, उसमें एक घटी भर गयी, वह रीत गयी, फिर दूसरी घटी आयी वह रीत गई। जिस तरह उसी घटीयंत्र में एक घटी भरते हैं तो थोड़ी देर में रीत जाती है अथवा पैर से चलने वाले यन्त्र में जिसमें दो घटिका लगी है, यह रीत जाती है तो दूसरी रीतने के लिये आ जाती है। ऐसे ही इस दुनिया में एक विपत्ति को मेटकर कुछ राहत ली तो दूसरी विपदा आ जाती है। यह बात संसार के सभी जीवों पर घटित हो जाती है। आप विपत्तियों का निपटारा हो ही नही पाता है। सोचते हैं कि धन कमाने लगें तो फिर कोई विपदा न रहेगी अथवा एक संतान हुआ, दूसरा तीसरा हुआ, लो उनमें से एक मर गया। एक न एक विपदा सबको लगी रहती है।
विपदा का आधार कल्पना—भैया! लगी कुछ नही रहती है विपदा कल्पना से एक न एक विपदा मान लेते हैं। है किसी को कुछ नही। अभी ही बतावो कहाँ क्या दुःख है? न मानो किसी को कोई तो कुछ दुःख ही नही रहा। जैसा पदार्थ है वैसा समझ लो फिर कोई क्लेश ही नही रहा। जिस सम्पदा को आप अपना समझते हैं वही अब दूसरे के पास है तो उसे आप नही मानते हैं कि यह मेरा हे। जैसे दूसरे के पास रहने वाला वैभव भी अपना नही है ऐसे ही अपने पास रहने वाला वैभव भी अपना नही है। ऐसा मान लो तो कोई क्लेश ही नहीं है। सबके मन में किसी न किसी चिंता की गुनगुनाहट चल रही है। सब व्यर्थ की गुनगुनाहट है, सबकी कल्पना में भिन्न-भिन्न गुनगुनाहट है, वही विपदा है। तो जैसे रहट यंत्र के एक घड़े के खाली हो जाने पर दूसरा घड़ा सामने आ जाता है, ठीक इसी तरह इस संसार में एक विपदा दूर होती है तो दूसरी विपदा सामने आ जाती है। इस तरह देखिये तो इस संसार मे कभी साता है तो कभी असाता है। एक क्षण भी यह जीव इन कल्पनावों से मुक्त नही होता है, न असातावों से मुक्त होता है।
अन्तर्दाह—अहो, कितनी कठिन चाह दाह की भीषण ज्वालाएँ इस संसार में बस रही है, जल रहा है खुद यह विषादवह्नि में, किन्तु पक्षपात की बुद्धि को नही छोड़ता है। ये मेरे है, इनके लिए तो तन, मन, धन, वचन सब हाजिर है। यह मोह का अंधकार सब जीवों को सता रहा है, विकल होता हुआ उनमें ही लिप्त हो रहा है। जिनके सम्बंध से क्लेश होता है उस ही क्लेश को मिटाने के लिए उनमें ही लिप्त हो रहा है। यही है एक जाल। कोई जाल यह ऐसा नही है जैसे लोहे के जाल हो, सूत के जाल हो, किसी भी प्रकार का जाल नही है इस जीव पर, मकड़ी के जाल बराबर भी सूक्ष्म कमजोर भी जाल नही हे, कोई जाल नाम की बात ही नही है किन्तु यह मोही जीव अपनी कल्पना में मोह का ऐसा जाल पूरता है कि उससे परेशान हो जाता है, तब उसे संसार में आधि व्याधि उपाधि सब लगी रहती है। आधि नाम तो है मानसिक दुःख का, व्याधि नाम है शारीरिक दुःख का और उपाधि नाम है परका, पुछल्ला लपेटे रहने का। यों यह जीव आधि व्याधि और उपाधि से दुःखी रहा करता है। उपाधि का अर्थ है जो आधि के समीप ले जाय। ‘उप’का अर्थ है समीप और आधि का अर्थ है मानसिक दुःख। जो मानसिक दुःख के समीप ले जाय उसे उपाधि कहते हैं। जैसे पोजीशन डिग्री आदि मिलना ये सब उपाधि है। तो यो यह जीव भ्रम में कल्पनाजाल में बसकर आधि व्याधि और उपाधि से ग्रस्त रहता है।
काल्पनिक मौज से शुद्ध आनन्द का विघात—भैया! शुद्ध आनन्द तो आत्मा के चैतन्यस्वरूप में है, किन्तु विकल्प-जालों की ऐसीपूरिया पूर ली कि जिससे सुलझ नही पाते हैं और अपना आनन्द समुद्र जो निज संयोग में सुख की कल्पना करने लगते हैं।परपदार्थों के सम्पर्क में सुख की कल्पना भले ही मोही करे, किन्तु इसका तो काम पूरा हो नही पाता है । जो पुरुष जिस स्थिति में है उस स्थिति में चैन नही मानता है, क्योंकि उससे बड़ी स्थिति पर दृष्टि लगा दी है। कोई हजारपति है। उसकी दृष्टि लखपति पर है तो वर्तमान मे प्राप्त वैभव का भी आनन्द नही ले सकता है। यो धनी हो कोई तो दुःखी है, निर्धन हो तो दुःखी है। किसे सुख कहा जाय? मोहियों ने केवल कल्पना से मौज मान रक्खा है।
विडम्बनाओं का संन्यास—यदि संसार भ्रमण करते हुए भी वास्तविक सुख मिलता होता तो बड़े-बड़े तीर्थंकर चक्रवर्ती ऐसे महापुरुष इस वैभव को कभी न छोड़ते। ये मनुष्य इसी बात पर तो हैरान है कि संचित किया हुआ वैभव उनके साथ नही जाता। कोई पदार्थ इस जीव का बन जाता या मरने पर साथ जाता तो कितना उपद्रव संसार में मच जाता? जब इस जीवन में भी कोई वैभव साथी नही है इतने पर तो इतनी विडम्बनाएँ है, यदि कुछ पैसा इस जीव के साथ जाता होता मरने पर, तब तो कितना अन्याय और कितनी विडम्बना इस संसार में बन जाती? कंजूस लोग तो बड़े दुःखी है, वे इसी कल्पना में मरे जा रहे हैं कि यह वैभव मेरे साथ न जायगा। बड़े-बड़े महापुराण पुरुष इस वैभव को असार जानकर उससे विरक्त हुए थे। केवल एक ज्ञानमात्र निज स्वरूप का ही उन्होने अनुभवन किया था। यदि यह वैभव कुछ भी सारभूत होता तो ये महापुरुषों क्यों इसे त्याग देते? धन वैभव समस्त परपदार्थ है, परपदार्थों में दृष्टि जाने से ही क्लेश होने लगता है क्योंकि किसी भी परपदार्थों को किसी भी रूप परिणमना यह अपने आप के हाथ की बात नही है, पर मिथ्या श्रद्धा में इस जीव ने यह माना कि जिस पदार्थ को मैं जिस तरह राखूँ उस प्रकार रख सकता हूँ किन्तु बात ऐसी है नही, हो नही सकती, तब क्लेश ही तो आयगा। इसी कारण तो ये महापुरुष इस वैभव को असार दुःख का कारण जानकर सबको त्यागकर दिगम्बर साधु हुए।
विकट संकट और उनका विजय—कल्पनाजाल एक विकट संकट है। जिनके कोई दिल की बीमारी, घबड़ाहट या हार्ट फेल होता है उसका मुख्य कारण पर का ही चिंतन है। कोई विकल्पजाल बनाया, उसमें परेशान हुआ कि ये सब व्याधियां उत्पन्न हो जाती है। वीर पुरुषों ने इन सब विकल्पजालों का परित्याग कर तपश्चरण धारण किया। जो पुरूषार्थ कायर पुरुषों से नही किया जाता वह अलौकिक पुरूषार्थ साधु संतो ने किया। कोई साधु आत्मध्यान में मग्न है उस ही समय कोई सिंह या अन्य कोई हिंसक जानवर आ जाय और उनके शरीर को खाने लगे तो वे विकल्प नही करते हैं। वे तो जानते हैं कि ऐसे विकल्प मैने अनेक बार किए, जन्म मरण भी अनन्त बार भोगा, पर एक ज्ञान का अनुभव और ज्ञान की स्थिरता में लगना यह काम अब तक नही किया। ज्ञानी पुरुष संसार, शरीर और भोगों से उदासीन रहा करते हैं,वे अपने आपको ही अपने ज्ञान और आनन्द का कारण मानते हैं। जो पुरुष यह जानते हैं कि ये सर्व समागम बाह्य तत्त्व है। सर्व समागम मिट जाने वाले हैं,ये समागम सदा न रहेंगे, ये दुःख के कारण है। कोई चीज भिन्न है उसे अपना मानना यही दुःख का कारण है।
परमार्थ सम्पदा और विपदा—भैया ! यह जीव स्वभाव से सुखी है। इस पर एक भी क्लेश नही है, पर जहाँ परपदार्थ के प्रति विचार बनाया वहाँ क्लेश हो गया। ये पंचेन्द्रिय के विषय भोग ये कदाचित् भी आनन्द के कारण नही हो सकते हैं। यो तो जैसे दाद और खाज जिसके होता है वह उसको ही खुजाता हुआ सोचता है कि सर्वोत्कृष्ट आनन्द तो यही है। इससे बढ़कर और आनन्द क्या होगा यों कि उसके इतनी ही बुद्धि है पर भोग साधनों के बराबर विपत्ति ही और कुछ नही है। जो ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानस्वरूप को अपने ज्ञान में बसाये हुए है वे निराकुल रहते हैं। कोई अपराध न करे तो आकुलता नही हो सकती है। जब कोई भी आकुलता होती है तो यह निर्णय करना चाहिए कि हमने ही अपराध किया है यह जगत विपत्तियों से घिरा है। वस्तु स्वरूप के विपरीत जो श्रद्धान रखे उसे चैन नही मिल सकती है। ज्ञाता द्रष्टा रहे तभी आनन्द है। प्रभु का स्वरूप ऐसा ही है इस कारण प्रभु आनन्दमग्न है। सारा विश्व तीन लोक के समस्त पदार्थ उनके ज्ञान में आते हैं पर वे ज्ञाता द्रष्टा ही रहते हैं। वे जगत् साक्षी है इस कारण उनको रंच भी क्लेश नही होता।
संसार में विपदाओं की प्राकृतिक देन—देखो संसार में हम और आप सब एक विपदा को मिटाने का यत्न करते हैं कि दूसरी विपदा आ जाती है अर्थात् कल्पना से पदार्थ के किसी भी परिणमन में यह विपदा मानने लगाता है। श्री राम भगवान कुछ बचपन में लौकिक नाते से भले ही सुखी रहे हैं गृहस्थावस्था मे, पर उसके बाद देखो तो सारा जीवन क्लेश ही क्लेश में गुजरा, किन्तु उनमें धैर्य था, विवेक था सो अंतिम स्थिति उनकी उत्तम रही और आत्म ध्यानमग्न हुए, निर्वाणपद प्राप्त किया, पर सरसरी निगाह से देखो तो राज्याभिषेक होने को था, यहाँ तक तो खुशी थी, पर आदेश हुआ कि भरत को राज्य होगा। श्री राम ने सज्जनता निभाई कि भरत राजा होगा, होना चाहिए, ठीक है किन्तु जब तक हम रहेंगे घर में तब तक भरत की प्रतिष्ठा न बढ़ेगी, लोगों की दृष्टि हम पर रहेगी, तो भरत राजा होकर भी कुछ राज्य सत्कार न पा सकेगा, सो उन्होंने वन जाना स्वीकार किया।
विपदा पर विपदा—श्री राम अब वनवासी बन गए। छोटी-छोटी विपदाएं तो उन्हें रोज-रोज आती होगी। भयानक वन, कोई साधन पास नही, चले जा रहे हैं। कितनी ही जगह तो मिट्टी के बर्तन बनाकर साक पत्र भाजी को जोड़ कर भोजन बनाया गया और किसी जगह बड़े-बड़े राजा लोग भी आकर उनका सत्कार करते थे। वन की विपदाएँ उन्होने प्रसन्नता से सही। लो थोडी ही देर बाद एक भयानक विपदा और आयी, सीता का हरण हुआ। कोई भी विपदा हो, लगातार बनी रहे तो वह विपदा सहन हो जाती है और कल्पना में अब यह विपदा नही रही ऐसा भान कर लेते हैं। वियोग का दुःख रहा, पर जैसे ही कुछ पता चला कि सीता लंका में है, तो इस वृतान्त को सुनकर कुछ विपत्ति में हल्कापन अनुभव किया, लो अब युद्ध की तैयारी हो गयी। अब युद्ध को चले, युद्ध होने लगा।
उत्तरोत्तर महती विपदा—एक विपदा पूर्ण भी न हुई कि लो दूसरी विपदा सामने आयी। लक्ष्मण को रावण की शक्ति लग गयी। लक्ष्मण बेहोश हो गया। उस समय राम ने जो विलाप किया वह कवि की कल्पना में बड़ा करुणाजनक था। एक भाई निष्कपट भाव तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्यौछावर करता है, बड़ी भक्ति से सहयोगी रहे और उस पर कोई विपदा आ जाए तो वह बहुत खलती है। किसी निष्कपट मित्र पर कोई विपदा आ जाए तो उसमें बहुत क्लेश अनुभूत होता है, क्योंकि उस निष्कपट मित्र का आभार मानता है ना वह। जब लक्ष्मण के शक्ति लगी तो कितनी विपदा श्री राम ने मानी होगी? किसी प्रकार शक्ति दूर हो गयी तो अब पुनः युद्ध की तैयारी हुई। युद्ध में कितने ही सहयोगियों पर विपदा आते देखकर कितने दुःखी वे रहे होंगे।
विपदा के सीमा के परे विपदा का अन्त—लो युद्ध भी जीत गए, सीता भी घर ले आये, अब एक विपदा धोबिन के अपवाद की आई। यह कितनी कठिन विपदा लग गयी? सीता को फिर किसी बहाने जंगल में छुड़वा दिया। विपदा आयी। लव कुश जन्मे, लव कुश से युद्ध हुआ, सीता को फिर घर ले आए। लोकापवाद की बात मन में खलती रही। यह जानते हुए भी कि सीता निर्दोष है, अग्निकुण्ड में गिरने का आदेश दिया। जब अग्निकुण्ड में सीता कूद रही थी उस समय राम कितने विपन्न रहे होंगे, अनुमान कर लो। बाद में लक्ष्मण न रहे इस वियोग का संताप सहा, अनेक ऐसी घटनाएँ आती रही कि नई-नई विपदाएँ होती गयी। श्रीराम तब तृप्त हुए जब वे सकल विकल्प त्यागकर एक ब्रह्म के अनुभव में रत हुए।
कल्पनोद्भूत विपदायें व उनका विनाश—यह संसार विपदावों का घर है। विपदा भी कुछ नही, केवल कल्पना है। सो सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करके उन कल्पनावों को मिटाएँ तो इसमें ही अपने को शान्ति का मार्ग मिल सकता है। विपदा तो कल्पनाजाल से उद्भूत है। जो भी विपदा मानी जाती है अनुभवी जाती है उसका प्रभाव तो जीव में ही होता है। फिर विपदा बाहर कहाँ रही? विपदा तो स्वरूप विरुद्ध कल्पना बनाना मात्र है। जो जैसा नही है, उसे वैसा समझना इसी में संकट का अनुभव है। अंतः संसार के संकटो से मुक्त होने के लिये वस्तुस्वरूप का यथार्थ अवगम करना ही अमोघ उपाय है। इस ज्ञानार्जन के उपाय से समस्त संकटो को मेट ले।