वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 3
From जैनकोष
वरं वृतैः पदं दैवं नाब्रतैवर्त नारकम्।
छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान्।।३।।
अव्रतभाव से व्रतभाव की श्रेष्ठता—जैसे कोई पुरुष छाया में बैठकर अपने किसी दूसरे साथी की बाट जोहे और कोई अन्य पुरुष गर्मी की धूप में बैठकर अपने साथी की बाट जोहें, उन दोनों बाट जोहने वालो मे कुछ फर्क भी है कि नही? फर्क है वह फर्क यही है कि छाया में बैठकर जो अपने दूसरे साथी की राह देखता है वह पुरुष छाया में तो है, उसे छाया शान्ति तो दे रही है, और जो धूप में बैठा हुआ साथी की बाट जोह रहा है उसे धूप से कष्ट हो रहा है। इसी तरह व्रत के अनुष्ठान से स्वर्ग आदि सुखों की वर्तना के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और अव्रत से पहिले नरक के दुःख भोगने पड़ते हैं,फिर बात ठीक बने तो वर्तना के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और अव्रत से पहिले नरक के दुःख भोगने पड़ते हैं,फिर बात ठीक बने तो मुक्ति प्राप्त होती हे। मुक्ति जाने वाले मानों दो जीव हैं, जायेंगे वे मुक्त, पर एक व्रताचरण में रह रहा है तो वह स्वर्ग आदि के सुख भोगकर बहुत काल तक रहकर मनुष्य बनकर योग्य करनी से मोक्ष जायगा। और कोई पुरुष पाप कर रहा है, अव्रतभाव में है। तो पहिले नरक के कष्ट भोगेगा, नरक के दुःखों को भोगकर फिर मनुष्य अपनी योग्य करनी से मोक्ष जा सकेगा। सो व्रत आदि करना निरर्थक नही है, वह जितने काल संसार में रह रहा है उतने काल सुख और शान्ति का किसी हद तक कारण तो यह व्रत बन रहा है।
व्रत की प्रायोजनिक सार्थकता—यहाँ यह शंका की गई थी कि द्रव्य आदि चतुष्टय रूप सामग्री के मेल से आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जायगी तब ऐसे तो व्रत आदि का पालन करना व्यर्थ ही ठहरेगा। इस पर यह समाधान दिया गया है कि व्रतों का आचरण करना व्यर्थ नही जाता क्या कि अव्रत रहने से अनेक तरह के पापों का उपार्जन होता है, और उस स्थिति में यह हित और अहित में विवेक से शून्य हो जाता है। पाप परिणामों में हित और अहित का विवेक नही रहता, तब फिर यह बढ़कर मिथ्यात्व आदि पापों में भी प्रवृत्ति करने लगता है, तब होगा इसके अशुभकर्म का बंध। उसके फल में क्या बीतेगी? उस पर नारकादिक की दुर्गतियां आयेंगी, घोर दुःख उठाना पड़ेगा, अव्रत परिणाम में यह अलाभ है किन्तु व्रत परिणाम में अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग की विशुद्धि प्राप्त होने से नारकादिक दुर्गतियों के घोर नष्ट नही सहने पड़ते हैं।क्योंकि जो व्रतों के वातावरण में रहता है उसे हित और अहित का विवेक बना रहता है, पापों से वह भयभीत बना रहता है और आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए वह सावधान बना रहता है। होता क्या है कि व्रती पुरुष परलोक में स्वर्ग आदि के सुखों को चिरकाल भोगते हे। चिरकाल सुख भोगने के बाद क्षय होने पर ये मनुष्य बनते हैं और यहाँ भी योग्य जीवन व्यतीत करते हुए ये कर्मों का क्षय कर देते हैं और भवातीत बन जाते हैं व्रत और अव्रत में तो शान्ति अशान्ति विषयक तत्काल का भी फर्क है।
वास्तविक व्रत की व्यर्थता—भैया ! जो वास्तविक पद्धति से व्रती होता है वह अशांत नही होता है किन्तु जो व्रती का बाना तो रख ले, पर अंतरंग में व्रत की पद्धति नही है, संसार शरीर और भोगो से विरक्ति नही है तो उस पुरुष को इन व्रतों से लाभ नही पहुंचता। वह व्रती ही कहाँ है? वह तो अपने अंतरंग में अज्ञान का अंधेरा लादे है, इसी से वह दुःखी है, अशान्त है, व्रत करना तो कभी व्यर्थ नही जाता।
सदाचार से दोनों लोक में लाभ—एक बार किसी पुरुष ने एक शंका की कि परभव को कौन देख आया है कि परभव होता है या नही, उस परभव का ख्याल कर करके वर्तमान में क्यों कष्ट भोगा जाय? कम खावो, गम खावो, व्रत करो, अनेक कष्ट भोगे जायें इनसे क्या लाभ है? तो दूसरा पुरुष जो परभव को मानने वाला था वह कहता है कि भाई तुम्हारा कहना ठीक है कि परभव नही है किन्तु अब हम लोगो को करना क्या है? सत्य बोलें, कुशील से बचे, परिग्रह का संचय न करे, अहिंसा का पालन करे, किसी जीव को न सताये, यह करना है ना, तो देखो ऐसा योग्य व्यवहार जो करता है उस पर क्या दुनिया ने कोई आफत डाली है? जो चोर होते हैं झूठे व दगाबाज होते हैं,कुशील परिणामी होते हैं,परिग्रह के संचय का भाव रखते हैं ऐसे पुरुष पिटते हैं,दंड पाते हैं। तो अच्छे कामों के करने से इस जीवन में सुख है। यह तो केवल कहने-कहने की बात है कि खूब आराम से स्वच्छन्द रहे, जब मन आये खाये, जब जो मन आये सो करे। मनुष्य जन्म पाया है तो खूब भोग भोगे, वे इनमें सुख की बात बताते हैं किन्तु सुख उन्हें है नही। आनन्द जिसे होता है वह अक्षुब्ध रहता है। वैषयिकसुखों की प्राप्ति के लिए तो बडे़ क्षोभ करने पड़ते हैं और जब कभी सुख मिल भी जाय तो उस सुख का भोगना क्षोभ के बिना नही होता। उस सुख में भी इस जीव ने क्षोभ को भोगा, शान्ति को नही भोगा। तो उत्तम व्रत आचरण करने से वर्तमान में भी सुख शान्ति रहती है और यदि परभव निकल आये तो परभव के लिये वह योग्य काम होता ही है, किन्तु पाप दुराचार के बर्ताव से इस जीवन में भी कुछ सुख-शान्ति नही मिलती और परभव होने पर परभव में जाना पड़े तो वहाँ पर भी अशान्ति के ही समागम मिलेंगे, इस तरह व्रतों का अनुष्ठान करना व्यर्थ नही है।
सुविधासमागम से अपूर्व लेने का अनुरोध—अरे भैया ! भली स्थिति में रहकर मोक्षमार्ग का काम निकाल लो। पाप प्रवृत्ति में रहने से प्रथम तो मोक्षमार्ग में अन्तर पड़ जाता है और दूसरे तत्काल भी अशान्ति रहती है इस कारण ये व्रत आदि परिणाम मोक्षमार्ग के किसी रूप में सहायक ही है, ये व्यर्थ नही होते हैं,लेकिन यह बात अवश्य है कि मोक्षमार्ग शुद्ध दृष्टि से ही प्रकट होता है, अर्थात सम्यक्त्व हो, आत्मस्वभाव का आलम्बन हो तो मोक्षमार्ग प्रकट होता है। जिस आत्मा के आलम्बन से मोक्षमार्ग मिलता है वह आत्मा पाप पुण्य सर्व प्रकार के शुभ-अशुभ उपयोगो से रहित है, ऐसे अविकारी आत्मा में उपयोग लगाने से यह अविकार परिणमन प्रकट होता है। आनन्द है अविकार रहने में। ममता मे, कषाय में, इच्छा में, तृष्णा में शान्ति नही है। ऐसे इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मा का आलम्बन हो और बाह्य में योग्य व्रत आदि हो, ऐसे जीवों को स्वभाव की प्राप्ति होती है।