वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 307
From जैनकोष
चदुगदि-भव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाण-पज्जत्तो ।
संसार-तडे णियदो णाणी पावेइ सम्मत्तं ।।307।।
कल्याणक सम्यक्त्व का निर्देश―इस जीव का कल्याण करने वाला भाव सम्यग्दर्शन है । जीव आकुलता पाते हैं अपने आपके स्वरूप का सही श्रद्धान पाये बिना । जब अपने आपका पता नहीं है कि मैं सबसे निराला स्वत: ज्ञानस्वरूप और आनंदमय हूँ, मैं अपने आपमें अपना ही परिणमन कर पाता हूँ, किसी अन्य वस्तु से मेरा संबंध नहीं है, मैं स्वयं आनंदमय हूँ । मेरे को बाहर में करने योग्य काम कुछ नहीं है, बल्कि विकल्प भी करना योग्य नहीं है, ऐसी स्थिति में यह आत्मा स्वयं कल्याणस्वरूप है, जब इस तत्त्व का पता नहीं रहता जीव को तो बाहरी मायाजालों में इसका उपयोग फंसा है और यह इसी से दु:खी होता है । जैसे स्वप्न में यह देख रहे हैं कि यह सिंह आया, यह हाथी आया, यह मगर आया, उसने खाया, ऐसी बातें जब स्वप्न में देखते हैं तो कुछ न होने पर भी वह बड़ा दुःखी है, इसी प्रकार मोह में इस जीव का बाहर कुछ न होने पर भी विकल्प के कारण ये दुःखी रहा करते हैं । वह दुःख मिटे ऐसा उपाय कोई बनाये तो सच्ची बुद्धिमानी इसमें है, इसी को कहते हैं सम्यग्दर्शन । जैसा आत्मा का सहजं सत्य स्वरूप है उस रूप में अपने को मान लेना कि मैं तो यह हूँ । यह है सम्यक् का दर्शन ।
विपरीताभिनिवेशरहित होने से सम्यक्त्व की कल्याणरूपता―देखिये―जितने भी सुखदुःख हैं वे अपने आपको कुछ मानने के कारण हैं । जैसे घर गृहस्थी में जब लड़के प्रतिकूल चलते हैं, या बड़े खर्चीले हो जाते हैं तो पिता बड़ी हैरानी में पड़ जाता है । तो वह हैरानी में क्यों पड़ता? उसने मान रखा कि मैं इसका पिता हूँ और मुझे यह सब करना है । तो भीतर में जो मैं बाप हूँ ऐसी बुद्धि बनी है उस बुद्धि के कारण, उस तरह की तरंग उठ गयी जिससे कि वह दुःखी रहा करता है । तो हर स्थितियों में आप यही पाइयेगा कि जो कुछ हमें सुख दुःख होते हैं वे हमारे ज्ञानकल्पना के आधार पर होते हैं । तो जब जीव अपने को इस तरह मानता होगा कि मैं तो निर्विकल्प निस्तरंग ज्ञानमात्र शुद्ध ज्ञानस्वरूप आनंदमय स्वभाव हूँ, मैं कृतकृत्य हूँ, मुझे बाहर में कुछ करना ही नहीं है । यह जो कुछ किया जा रहा है वह कषायों की प्रेरणा से किया जा रहा है । ये कषायें तो मेरे लिए दुःख रूप हैं । मैं तो अपने सत्य ज्ञानस्वरूप को लखूंगा । अगर ऐसा सत्य आग्रह कर लिया, तो उसे जगत में फिर क्या क्लेश ? भले ही सभी लोग मानें कि इसकी तो कोई इज्जत नहीं, कोई इसे ज्यादह मानता नहीं, तो इन बातों में क्या रखा ? कोई भी जगत में ऐसा उपाय नहीं है कि सभी लोग मुझे मान सकें, सभी लोग मुझे अच्छा कह सकें । और, कुछ करने की जरूरत भी क्या है ? सभी लोग प्रतिकूल रहें तो मेरा क्या बिगाड़ है और सभी लोग अनुकूल बन जायें तो वे मेरा क्या सुधार कर देंगे ? मेरा सुख दुःख, मेरी शांति अशांति तो मेरे ज्ञानभाव की परिणति पर निर्भर है । तो इन सब बातों से उपेक्षा करके एक इस प्रकाश में प्रयत्न करना चाहिए कि मैं अपने का जैसा ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, अनुभव कर लूं । इसी को कहते हैं सम्यग्दर्शन । तो सम्यग्दर्शन को कौन जीव प्राप्त करता है, इसका वर्णन इस गाथा में किया जा रहा है ।
नरकगति व तिर्यंचगति में सम्यक्त्व की पात्रता―सम्यक्त्व को चारों गति के भव्यजीव उत्पन्न कर सकते हैं, नारकी भी सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते, जो घोर दुःख में पड़े हुए हैं, जिनकी बड़ी तीव्र वेदनायें हैं, उनमें रहने वाले नारकी भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर लेते हैं । भला बतलाओ कि बाहर में तो दुःख भोग रहा है और भीतर में सम्यक्त्व की वासना प्रतीति होने से अंतरंग में तृप्त रहता है । कैसी कला है कि इतने कठिन । शारीरिक क्लेश और भीतर में इतना अद्भुत आनंद उन नारकियों में कि जिस आनंद को मिथ्यादृष्टि चक्री भी नहीं पा सकता है । तो सम्यक्त्व की बहुत बड़ी महिमा है । सम्यक्त्व को नारकी जीव भी उत्पन्न कर सकते हैं, पशु पक्षी भी उत्पन्न कर सकते हैं । जो बोल नहीं सकते, जो दूसरों को अपने भाव नहीं बता सकते, जो दूसरों की भाषा भी नहीं समझ सकते, यदि कोई साधु उपदेश दे रहा हो उन पशु पक्षियों को तो साधु की मुद्रा, आकार प्रकार को देखकर वे सब समझ जाते हैं, मगर उन भाषाओं को न समझ सकेंगे । फिर भी उन पशुपक्षियों में इतनी विशेष योग्यता हो सकती है कि वे सम्यक्त्व उत्पन्न कर लें । जिस समय श्रीरामचंद्रजी ने वन में आहार दिया था मुनिराज को और जटायु ने अनुमोदना की थी, उसकी उस अनुमोदना से ही उस जटायु का जीवन सफल हो गया था । अनेक दृष्टांत ऐसे आते हैं कि जहाँ पशु पक्षियों को सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया । वह हाथी जो भरत के जमाने में था उसे अपने कोई संस्कार से बोध उत्पन्न हुआ तो सर्व प्रकार के भोजन का परित्याग कर दिया था, और एक शुद्ध आत्मतत्त्व के स्मरण में उसने अपना उपयोग लगाया था । उसने समाधिकरण किया । ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते हैं कि बंदर, नेवला, सूकर, सर्प आदिक बहुत से पंचेंद्रिय जीव सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेते हैं । तो ऐसा अनुपम सम्यग्दर्शन कि जिससे संसार के समस्त दुःख टल जाते हैं ऐसे सम्यग्दर्शन को तिर्यंच भी प्राप्त कर सकते हैं ।
मनुष्यगति व देवगति में सम्यक्त्व की पात्रता―अब मनुष्यों की बात देख लो, इनके लिए तो सम्यक्त्व प्राप्त कर लेना बड़ी आसान चीज होना चाहिये । सच्चा ज्ञान पाना, अपने आत्मा की सच्ची सुध ग्रहण कर लेना मनुष्यों के लिए कितनी आसान चीज है । उन पशुपक्षियों की अपेक्षा हम आपका कैसा पुण्योदय मिला है, कैसी सुविधायें मिली हैं, पर इन रागद्वेष के साधनों में रहकर यह जीव भूल जाता है । तो मनुष्य पर बड़ी जिम्मेदारी है । इस समय वह ऐसा भी प्रयत्न कर सकता है कि सदा के लिए संसार के संकट समाप्त कर दे । और ऐसा भी प्रयत्न कर सकता है कि संसार में बहुत काल तक रुले, निगोद और एकेंद्रिय में भी जन्म धारण कर लें । तो यहाँ अपनी बड़ी जिम्मेदारी समझकर विवेकपूर्वक चलने का यहाँ काम है । देवगति के जीव भी सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं। देवगति के जीव संसारीजीव कहलाते हैं । इनका शरीर दिव्य है, वैक्रियक शरीर है, इन्हें कमाना नहीं पड़ता, किसी प्रकार के असि मसि आदिक कर्म नहीं करने पड़ते । हजारों वर्षों में भूख लगती, कंठ में अमृत झर जाता है, उससे भूख की शांति हो जाती है और अनेक पखवारों में श्वांस लेते हैं । श्वांस लेना भी तो एक दुःख का कारण है । कितने पुण्यवान् जीव हैं वे, लेकिन उस पुण्य क्रीड़ा में, देवियों की क्रीड़ा में रमते रहते हैं, वे भी प्राय: सम्यक्त्व नहीं प्राप्त कर पाते । उनमें ऐसी योग्यता अवश्य हैं कि जब वे समवशरण में जाते हैं, रास्ते में किसी साधुसंत का उपदेश मिल जाता है यो देवद्धिदर्शन होता है या अन्य योग्य साधन मिलते हैं तो वे सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेते हैं । उनमें योग्यता अवश्य है सम्यक्त्व उत्पन्न करने की और अनेकों देव सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेते हैं ।
चातुर्गतिक भव्य संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त, जागृत, जीव के सम्यक्त्व लाभ की पात्रता―सम्यक्त्व चारों गति के जीव उत्पन्न कर सकते हैं, पर वे संज्ञी होने चाहिएँ । तिर्यंचों में जो जीव संज्ञी हैं, मन वाले हैं वे ही सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं, संज्ञी के साथ-साथ विशुद्ध परिणाम वाला भी होना चाहिए । तीव्र कषाय में खोटी लेश्या में सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता और वह जागृत होना चाहिए । स्वप्न में भी सम्यक्त्व है लेकिन एक बात समझ लेना चाहिए कि भले ही सोते हुए में सम्यग्दर्शन उत्पन्न न हो मगर जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो गया है वह सोते हुए में भी स्व का अनुभव कर सकता है । इतनी बड़ी महिमा है उस अनुभव की । जैसे किसी को स्वप्न में बाहरी पदार्थ दिखते हैं ऐसे ही ज्ञानी पुरुष स्वप्न में आत्मस्वरूप को तकता है । सोते हुए में सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, तो जागृत अवस्था में ही सम्यग्दर्शन हो सकता है । जो पर्याप्त हो उसी के ही सम्यग्दर्शन हो सकता । जीव दो प्रकार के होते हैं―पर्याप्त और अपर्याप्त । जो अपर्याप्त हैं वे पैदा होकर तुरंत मर जाते हैं, उनका शरीर भी पूर्ण नहीं बन पाता और मरण कर जाते हैं, याने उत्पन्न होते हैं दो एक सेकेंड में मर जायें ऐसे अपर्याप्त जीव सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं कर सकते । जो पर्याप्त होगा वही सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करेगा । अब अपनी बात सोच लीजिए कि हम सैनी हैं, विशुद्ध परिणाम वाले भी हैं, जागृत अवस्था है पर्याप्त हैं, फिर क्यों न ऐसा उद्यम, करें कि सम्यक्त्व उत्पन्न कर लें । ये रागद्वेष के समागम प्राप्त होते हैं, मोह ममता के भाव बहुत जागृत होते हैं, पर ये मेरे आत्मा के मित्र नहीं, हितकारी नहीं, किंतु अनिष्ट के ही कारण बन रहे हैं । जिनसे भी प्रीति जोड़ रहे हों वे हमारे अनर्थ के ही कारण बनेंगे, हित के नहीं । लेकिन ये मोही जीव जिन जिनमें मोह होता उनमें ही आसक्त रहते हैं । उनसे पृथक् अपने को अनुभव नहीं कर सकते । तो ऐसा जीव सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है ।
निकटसंसारी के सम्यक्त्व का लाभ―एक बात और साथ में समझना चाहिए कि जिनका संसार तट निकट आया है वे सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करते हैं । संसार कबसे चला है ? इसकी कोई आदि नहीं है, इसी कारण बताया है कि यह संसार अनादिकाल से चला आया, कितने ही जन्म मरण किए पर जिनका अंत नहीं । तो ऐसे अनादि अनंत जन्म मरण करते हुए यदि आज एक ऐसा मनुष्यभव मिला है कि जहाँ हम अपने आत्मा
की सावधानी बना सकते हैं तो इसका सदुपयोग क्यों नहीं कर लिया जाता ? जब जैनशासन मिला, इतना पवित्र धर्म प्राप्त हुआ, कुलीन हुए, फिर भी अपने हित की बात न बनायी जा सकती हो तो यह कितनी खेद की बात है ? इसको बताया है कि जीव ने अनंत पुद्गल परिवर्तन किये । एक पुद्गल परिवर्तन का बहुत लंबा काल होता है । एक पुद्गल परिवर्तन का यह अर्थ समझिये कि जैसे किसी जीव ने कोई परमाणु ग्रहण किया शरीररूप अथवा कर्मरूप । अब वह परमाणु नवीन है, दूसरे समय में फिर ग्रहण किया तो नया ही ग्रहण करे, तीसरे समय में फिर ग्रहण करे तो नया ही ग्रहण करे । ऐसे अनंत बार नवीन-नवीन परमाणु ग्रहण हो जायें तब एक बार ग्रहण किया हुआ भी ग्रहण कर ले, फिर अनंत बार अग्रहीत ग्रहण हो जाय, तब एक बार फिर ग्रहीत को ग्रहण करे, इस तरह होते-होते जब अनंत बार अग्रहीत ग्रहण हो जाय तो एक मिश्र को ग्रहण करे याने इसमें अनगिनते वर्ष हो जाते हैं । कितने अनंत कि जो अवधिज्ञान के विषय से परे हैं । यों अनंत बार मिश्र ग्रहण कर ले यों सभी पूर्ण हो जाय इतने अनगिनते वर्षों का नाम है अर्द्धपुद्गल परिवर्तन । तो जब अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहता है संसार में रहने का तब वहाँ सम्यग्दर्शन की पात्रता होती है । इतनी सब बातें प्राप्त हों तो जीव को सम्यग्दर्शन होता है ।
सम्यग्दर्शन का अर्थ―सम्यग्दर्शन का प्राय: सभी जगह वर्णन है, और अपने-अपने सिद्धांत के अनुसार किसी न किसी रूप में किया गया है । मगर यह शब्द स्वयं अपना सही स्वरूप बता देता है । सम्यग्दर्शन में सम्यक् शब्द पड़ा है, सम्यक् मायने जो अच्छा है । अच्छा कौन है ? जो निरपेक्ष हो और किसी के साथ न फंसा हो, जो किसी के साथ न मिला हो, प्योर हो, केवल हो, उसका दर्शन हो वही सम्यग्दर्शन कहलाता है । जब चौकी पर कूड़ा पड़ जाता है तो उसे कहते हैं कि यह मलिन हो गया । अब उसकी मलिनता दूर करने के लिए यह उपाय करते हैं कि कूड़ा बिल्कुल हट जाय, केवल चौकी रह जाय, तो केवल रह जाने का नाम ही, सम्यक्पना कहलाता है । तो में आत्मा केवल क्या हूँ । खाली मैं ही मैं क्या हूँ, इस प्रकार के कैवल्य का दर्शन करने का नाम है सम्यग्दर्शन । तो जिस काल में सम्यक्दर्शन होता है, बाहरी पदार्थों की उलझी दृष्टि सब खतम हो जाती है, केवल अपने स्वरूप का उपयोग रहता है, उस समय इसको जो आनंद प्राप्त होता है, या इसकी जो अपनी अलौकिक स्थिति होती है उसकी तुलना में तीन लोक का वैभव भी न कुछ चीज हैं । यह तीन लोक का वैभव आखिर डेला पत्थर ही तो है, बाह्यपदार्थ ही तो है । उससे मेरे आत्मा का कौनसा आनंद आ जायगा ? तो समस्त तीन लोक के वैभव भी मिलकर या भूत भविष्य के समस्त संसारी जीव जितना सुख भोगते हैं वे सारे सुख भी उस तुलना को प्राप्त नहीं कर सकते । ऐसा वह सम्यग्दर्शन कैसे प्रकट होता है, किस प्रकार का प्रकट होता है, इसका वर्णन करते हैं ।