वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 13
From जैनकोष
उच्छाहभावणासं पसंससेवा कुंदंसणे सद्धा ।
आण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ।।13।।
(43) नित्यत्व व क्षणिकत्व के एकांतरूप कुदर्शन की श्रद्धा से सम्यक्त्वच्युति―जो पुरुष अज्ञान, कुदर्शन व मोह के मार्ग में श्रद्धा प्रशंसा सेवा करता है वह जिनदर्शन के श्रद्धारूप सम्यक्त्व को छोड़ देता है । कैसा है वह अज्ञान, मोहमार्ग, कुदर्शन कि जहाँ वस्तु के किसी एक धर्म का, तत्त्व का एकांत है, पक्षपात है, जिसके कारण निर्विकल्प अनुभव की पात्रता नहीं बनती । जैसे कोई मानता है कि जीव सदा कूटस्थ अपरिणामी है । यद्यपि इसमें आत्मा के सहज ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि से बात यथार्थ बनती है, लेकिन यह दृष्टि तो उनके नहीं है । पर्याय मानने पर फिर यह दृष्टि बनाये तो वह यथार्थ दृष्टि है । परिणमन होता ही नहीं, पर्याय है ही नहीं, ऐसा एकांत निषेध करके फिर अपरिणामी ध्रुव ब्रह्मस्वरूप मानना यह एकांत है जब कि जैनदर्शन द्रव्यपर्यायात्मक आत्मा को समझकर पर्याय का गौण कर द्रव्य को मुख्य दृष्टि में रखकर इस प्रकार मानता है । तो स्याद्वाद की कला के बिना किसी भी प्रकार वस्तु के पूर्ण स्वरूप तक नहीं पहुंच सकता है । कोई पुरुष मानते हैं कि जीव क्षण-क्षण में नया-नया बनता है, वे जीव का एकपना स्वीकार ही नहीं करते । और ऐसी मान्यता बनाकर फायदा उठाना तो चाहते हैं और फायदा उठाना चाहते हैं यह कि जब यह ध्यान में आ जाये कि मैं जीव एक क्षण को आया और फिर नष्ट हो गया, यहाँ रहता ही नहीं, तो जैसे कोई पुरुष एकदम मरने वाला हो तो उसको घर-बार से ममता नहीं रहती । वह जान रहा कि मैं तो मर ही रहा हूँ, क्या ममता करनी? तो ऐसे ही जो एक क्षण को अपनी सत्ता मानता है, अगले क्षण में है ही नहीं तो फिर वह मोह ही क्यों करेगा? ऐसा उपाय निकाला गया है । लेकिन वस्तुस्वरूप के विरुद्ध कोई उपाय निकाला भी जाये तो उससे तत्त्व की उपलब्धि नहीं होती । जैनदर्शन ने पर्यायदृष्टि से क्षण-क्षण में नई-नई अवस्थायें होना माना है सो उस नई-नई अवस्था को सुनकर यह उत्साह जगना चाहिए कि मेरा यद्यपि अज्ञान परिणमन अनादि से चला आ रहा है, लेकिन यह परिणमन है, अवस्था है, यह मिटकर नई अवस्था बन सकती है, याने अज्ञान दशा से हटकर ज्ञानदशा प्रकट हो सकती है, यहाँ तो क्षणिकपने की बात सोचकर उमंग आना चाहिए, पर यह उमंग आयेगी उसे जो अपने को सदा रहने वाला नित्य मानेगा । तो वस्तुस्वरूप के खिलाफ कुछ से कुछ भी धर्म माना जाये, उनके सहारे से हम तत्त्व की उपलब्धि नहीं कर सकते ।
(44) प्रभु में विकृत कृत्य का अभाव―कोई लोग मानते हैं कि इस जीव को किसी ईश्वर ने उत्पन्न किया, तो ईश्वर ने उत्पन्न किया, प्रथम तो यह ही बात सही नहीं है, क्योंकि ईश्वर का स्वरूप पवित्र है, वह समस्त लोकालोक का जाननहार है, परिपूर्ण सहज आनंदरस में लीन है । वह अपनो पवित्रता को त्यागकर अपवित्रता को अंगीकार नहीं करता, फिर यह बतलावो कि जीव को पैदा करके कुछ ईश्वर को फायदा होता है या जीव को फायदा होता है? ईश्वर को तो पैदा करने से कुछ फायदा होता नहीं । और जीव पैदा हुए तो पैदा होकर ये कौनसा लाभ ले लेते हैं? न पैदा होते, कुछ न होते तो झगड़ा हो कुछ न था । ईश्वर ने जीव को पैदा किया तो इससे फायदा क्या? यदि कहा जाये कि ईश्वर को ऐसा खेल रुचा है तो बालक की नाई, अज्ञानियों की नाई ऐसा खेल करे तो उसका बड़प्पन नहीं है यहाँ तो खेल हो और जीव दुर्दशा पावे । कोई जोव मर रहा है, कोई दुःख होता है, कोई कैसा ही कर रहा है? न करते पैदा तो क्या हर्ज था? तो कही ऐसा नहीं हे कि किसीने इस जीव को पैदा किया हो । तत्त्व यह है कि जो भी है वह अनादि से है, नहीं हे तो उसका “है” नहीं हो सकता और जो है उसका ‘न’ नहीं हो सकता । है, सब अनादि से है, उनकी अवस्थायें बदलती रहती है । कभी किसी अवस्था में आया कभी किसी अवस्था में आया ।
(45) दृष्टिमार्ग से ईश्वरकर्तृत्व―प्रश्न―तो फिर यह बात प्रसिद्ध कैसे हो गई कि इस जगत के जीवों को ईश्वर ने उत्पन्न किया । बिल्कुल झूठ बात कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो पाती, न लोगों में आदर पाती, तो कुछ बात तो होगी ही जिससे कि यह बात प्रसिद्ध हुई कि ईश्वर ने जीव को बनाया । उत्तर―हाँ तो क्या बात है सो सुनो―प्रथम तो यह जानें कि ईश्वर है ज्ञानानंद पुंज और जितने भी ये जीव हैं ये सभी जीव हैं ज्ञानानंद पुंज । सो जब स्वरूप की दृष्टि से देखा जाये तो सभी जीव ईश्वर के स्वरूप को धारण किए हुए हैं । तो इस तरह स्वभावदृष्टि से तो अनंत ईश्वर हुए । जितने भी जीव हैं वे सभी स्वयं ईश्वर हैं । मगर ये संसार के ईश्वर अपने विकल्प बनाकर पैदा होते और मरते हैं । जैसे कि वेदांत में भी कहते हैं कि इस ब्रह्म ने ऐसा भाव किया कि ‘एकोहं बहु स्याम्’―मैं एक हूँ, बहुत बन जाऊँ, उसने तो भाव ही किया ऐसा वे बताते हैं मगर इस जीव ने इसे प्रैक्टिकल किया कि यह जीव तो है एक अपनी सत्तामात्र, मगर यह अपने एकपने को स्वीकार नहीं करता, और जो अवस्थायें बनती हैं उन बहुत अवस्थाओंरूप अपने को मानता रहता है यों नानारूप अपने को बनाता रहता है । मैं मनुष्य हूँ, पशु हूँ, पक्षी हूँ आदिक नानारूप अपने को मानता रहता है । तो एक होने पर भी इसने अपनी बहुरूपता धारण की । तो सभी जीव स्वरूपदृष्टि से ईश्वर के रूप हैं और यह ही जीव स्वयं अपने विकल्प और व्यापार करके अपनी सृष्टि किया करता है । तो प्रत्येक जीव की सृष्टि निश्चयत: उस ही जीव ने की, मगर वह जीव स्वरूपदृष्टि से ईश्वर है, इसलिए जीव ने सृष्टि की, ऐसा कह लो या ईश्वर ने सृष्टि की ऐसा कह लो, दोनों का एक ही अर्थ है । अब ये समस्त जीव हैं अनंत, तो प्रत्येक जीव में ऐश्वर्य भी मौजूद है, अत: ईश्वर भी अनंत, मगर इन सब जीवों का स्वरूप एक समान है । एक के स्वरूप से दूसरे के स्वरूप में रंच भी फर्क नहीं है । तो स्वरूपदृष्टि होने से इसको अनंत व्यक्तियों में न देखकर एक रूप में देखें । जैसे बाजार में गेहूं का ढेर लगा होता है तो खरीदने वाले यों नहीं कहते कि तुम इन गेहूं की किस भाव में दोगे? वे बहुवचन लगाकर नहीं बोलते, किंतु यह कहते हैं कि यह गेहूं किस भाव में दिया है? उनका स्वरूप बिल्कुल एक समान है, इसलिए वे एक ही कहलाते हैं । तो ऐसे ही ये अनंत ईश्वर स्वरूपदृष्टि से पूर्णतया एक समान हैं, इसलिए एक ईश्वर कह लीजिए और इस तरह यहां पर आया कि एक ईश्वर ये सारी सृष्टियां रचता है । अब स्याद्वाद कला से निरखा जाये तो सब समस्यावों का समाधान मिलता है और एकांतदृष्टि से देखा जाये तो तत्त्व की उपलब्धि की ही नहीं जा सकती है । तो ऐसे अनेक प्रकार के सिद्धांत गढ़े गए हैं, उनमें जिनकी श्रद्धा है वे पुरुष तत्त्व की उपलब्धि नहीं कर सकते ।
(46) अशुभोपयोग रोग का तत्काल इलाजरूप शुभोपयोग के वातावरण के एकांत के आग्रह में सम्यक्त्वच्युति―कोई पुरुष कहा करते हैं कि यज्ञ करो, यह क्रिया करो, यह अनुष्ठान करो, इससे मुक्ति मिल जायेगी, मगर क्रिया, देह की क्रिया, चाहे द्रव्य चढ़ाया हो, चाहे तीर्थों पर यात्रा करने गया हो, कोई भी चेष्टा की गई हो तो वे तो अचेतन देह की क्रियायें है । कही देह की क्रिया से आत्मा के भाव विशुद्ध हो सकते हैं क्या? अगर उसी का ही एकांत कर रखा हो तो । तत्त्व तो वहाँ भी है कि जो जीव किसी विषय कषाय पाप के संस्कार में लगा है और नाना खोटी मन, वचन, काय को चेष्टायें कर रहा है उसका सीधा इलाज क्या है जिससे तुरंत कुछ फर्क पड़े, तो उसका सीधा इलाज यह ही है वंदना, पूजा, यात्रा, दान आदिक, सो एक वह तत्काल का इलाज है, अगर उसी को ही मोक्ष माना जाये तो यह तो तत्त्व के विरुद्ध बात है । मुक्ति मिलती है केवल आत्मस्वभाव की दृष्टि से, पर वह दृष्टि बन जाये और बनी रहे, स्थिर हो जाये । उसके लिए पाप के संस्कार वाले जीव का कुछ व्यवहार वातावरण भी बना हुआ है । तो वह एक वातावरण है व्रत, तप, संयम आदिक का कि जिस वातावरण में रहकर यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप में सुगमतया प्रवेश कर सकता है ।
(47) शून्याद्वैत के एकांत के आग्रह में सम्यक्त्वच्युति―कुछ लोग कहा करते कि शून्य ही तत्त्व है, क्योंकि जो दिख रहा है वह ऐसा ही है, यह बात नहीं घटित होती । कभी कुछ बनता, कभी कुछ बनता । यह विचित्रता यह सिद्ध करती है कि यह सब काल्पनिक है, माया है और तत्त्वशून्य ही है, कुछ नहीं बस यह ही तत्त्व है, जिसकी श्रद्धा से कल्याण होता है । अगर इसी का एकांत कर लिया तो कल्याण किसे करना, वह भी शून्य है । बात क्यों कहना, कौन कहे, सब शून्य है । मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति क्यों हो, क्योंकि सब शून्य है, प्रमाण भी नहीं है । तो जो कुछ कहा वह कैसे सिद्ध हो कि सही है । तो सर्वथा शून्यवाद की बात घटित नहीं होती, मगर उसे भी शून्यवाद समझा किसी ने, तो जब आत्मा के स्वरूप को देखो तो देखने की दो रीतियाँ है । विधिरूप से भी देख लो, निषेधरूप से भी देख लो । निषेधरूप से देखने पर यह सब ज्ञान होता कि यहाँ कर्म नहीं, शरीर नहीं, विकल्प नहीं विचार नहीं, तरंग नहीं, कुछ नहीं है । यह आत्मा तो इन सबसे सूना है, रीता है । तो निषेध दृष्टि से देखने पर यह आत्मा शून्य नजर आया । और, वहाँ फिर यह प्रसिद्ध किया गया कि बस शून्य ही तत्त्व है । शून्य तो तत्त्व हुआ निषेध दृष्टि से, मगर कुछ चीज हो जिसमें शून्यपना घटित किया जाये । वह है ज्ञानानंदरसनिर्भर अमूर्त चैतन्य पदार्थ, सो इसको तो कोई समझे नहीं और केवल शून्य का ही पक्ष एकांत लिए फिरे तो उसे तत्त्व की उपलब्धि नहीं है । ऐसे अनेक कुदर्शन हैं जिनमें श्रद्धा रखे, उत्साह रखे तो वह पुरुष सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है, अथवा उसके सम्यक्त्व ही नहीं है ।
(48) दुर्लभ नरजन्म पाकर आत्मोपलब्धि के विचार से रहित जीवों के जीवन की निरर्थकता―इस जीव को अनादि काल से मिथ्यात्व कर्म के उदय के निमित्त से संसार में भ्रमण करना पड़ रहा है, यह चतुर्गति में भ्रमण करता है, देव हुआ, नारकी हुआ, तिर्यंच हुआ, पशु हुआ मनुष्य बना, यह सब मिथ्यात्व के उदय में जीव की उल्टी कल्पना के कारण हो रहा । अनंत काल तो इसका निगोद में बोता, वहाँ से बड़ी कठिनता से निकला तो अन्य स्थावर बना, वहाँ से निकला तो दोइंद्रिय, क्रम से निकल निकलकर तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय संज्ञी पंचेंद्रिय और उसमें भी नरक तिर्यंच देव से निकलकर मनुष्य हुए हैं तो ऐसा श्रेष्ठ मनुष्यजन्म पाया जिसके लिए इंद्र भी तरसता है । तो ऐसा दुर्लभ नरजन्म पाकर उल्टी श्रद्धा रखकर इस जीवन को खो दे तो यह उसके लिए बड़ी दरिद्रता है, अत: विवेक करके निष्पक्ष होकर अपने आपके तत्त्व के बार में परिचय बनाना ही चाहिए । तो जो पुरुष अपना परिचय तो करते नहीं और खोंटे दर्शन की प्रशंसा सेवा उत्साह भावना आदिक बना रहे हैं वे अपने आपको अज्ञान और मोह के रास्ते पर चला रहे हैं और जिन सम्यक्त्व से भ्रष्ट हैं ।