वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 18
From जैनकोष
संम्मद्दंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया ।
सम्मेण य सद्दहदि परिहरदि चरित्त जे दोसे ।।18।।
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन के विवरण में संक्षिप्त रूप से कार्य बतला रहे हैं । सम्यग्दर्शन के द्वारा तो यह आत्मा सत्ता मात्र वस्तु को देखता है । पदार्थों की उनकी जुदी-जुदी सत्ता है । द्रव्य पर्यायात्मक स्वरूप, सर्व वस्तु परिणमन में स्वतंत्र-स्वतंत्र, उनका जो निजी द्रव्य क्षेत्र काल, भाव है वह स्वतंत्र सम्यग्दर्शन से यह देखता है, समझना है और हितरूप से भी श्रद्धा करता है । तो जो सम्यग्दर्शन जीव का उपकार करने वाला है उस उपयोग से पदार्थ जिस प्रकार है उस प्रकार सामान्यतया सत्तारूप निरखता है, उनमें भेद नहीं करता और ज्ञान के द्वारा द्रव्य पर्यायों को सबको जानता है । वस्तु को उन वस्तुओं की विशेषताओं के साथ जानना सम्यग्ज्ञान का काम है । यद्यपि जानने में सीधे गुण और पर्याय नहीं आते क्योंकि गुण और पर्याय वस्तु नहीं हैं । वस्तु की विशेषता है । गुण स्वयं सत् नहीं, पर्याय स्वयं सत् नहीं किंतु सद्भूत जो द्रव्य है उस द्रव्य को ही भेदविधि से समझने के लिए गुण बताये गए हैं और चूँकि वे द्रव्य हैं अतएव प्रतिसमय परिणमते रहते हैं । तो वह परिणमन प्रतिसमय का एक-एक अवक्तव्य है, उसको भी समझाने के लिए गुणभेद का सहारा लेकर समझाया गया ।
तो ऐसे ये नाना गुण और नाना पर्याय यह वस्तु की विशेषता है, सो दर्शन से देखा, ज्ञान से जाना और सम्यक्त्व से सबका श्रद्धान किया । श्रद्धान में रुचि की कला रही, श्रद्धान उसका नाम है जहाँ यह बात चित्त में जम जाये कि यह है हितरूप । हितरूप से निर्णय रखते हुए जो ज्ञान है वह श्रद्धान की एक कला है तो सम्यक्त्व से श्रद्धान करना है और जब देखना जानना और श्रद्धान होता है तब यह जीव चारित्र में जो दोष उत्पन्न होते उनको छोड़ता है अर्थात् सम्यक्चारित्र विकसित होता है । वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक हे और द्रव्य गुणात्मक है । द्रव्य शाश्वत रहता है और द्रव्य में रहने वाली शक्तियां शाश्वत है । तो जब भेदविधि से देखा तब तो गुण नजर आये, अभेददृष्टि से देखा तो गुण द्रव्य में सोख गए है याने निष्पीत हुए हैं, गुणों का भेद अब नजर नहीं आता । द्रव्य एक ही विदित होता है । तो द्रव्य
गुणात्मक है और उनसे पर्यायें बनती हैं ।
तब इस तरह समझिये जैसे कि कपड़ा बुना जाता है तो जो लंबा धागा है वह तो समझिये कि सबमें रहने वाला है और जो चौड़ाई वाला धागा है जो बुना जाता है वह जिस जगह है वही है और ऐसी लंबाई और चौड़ाई वाले धागे बिना कपड़ा नहीं बुनता ऐसे ही लंबाई वाली विशेषता है गुण और चौड़ाई वाली विशेषता है पर्याय । लंबाई वाली विशेषता 3 काल रहती है, चौड़ाई वाली विशेषता उस ही समय रहती है । तो ऐसे गुणपर्यायस्वरूप द्रव्य को जैसा है वैसा देखना, उस ही प्रकार जानना, उस ही प्रकार श्रद्धान करना और उस ही अनुरूप आचरण करना यह है मोक्ष का मार्ग । वस्तुस्वरूप के अनुसार आचरण करने का भाव यह है कि जब सर्व वस्तुओं का स्वतंत्र-स्वतंत्र अस्तित्व जाना और उस रूप से श्रद्धान किया तो पद उससे विपरीत उपयोग न बनना चाहिए, याने एक का दूसरा कुछ लगता है ऐसा विकल्प न जगना चाहिए और एक का दूसरा कर्ता है, स्वामी है, भोक्ता है आदिक विकल्प न जगें तो यह ही निर्दोष सम्यक्चारित्र कहलाता है । तो इस प्रकर रत्नत्रय की उपासना से मुक्ति का मार्ग मिलता, मुक्ति मिलती ।
द्रव्य का लक्षण सत्ता बताया गया और सत् कहते हैं उत्पाद-व्यय-श्रव्य युक्त को, गुण पर्यायवान को । सो गुण तो हुआ करते हैं सहवर्ती याने द्रव्य के साथ-साथ रहना, द्रव्य है अनादि अनंत, तो गुण भी अनादि अनंत हैं और क्रमवर्ती पर्यायें होना, जिस समय में जो पर्याय हुई वह उसी समय है अगले समय में विलीन हो जाती है । इस तरह समस्त द्रव्यों का स्वरूप है । संग्रहनय से एक सत् कहने में समस्त द्रव्य उसमें आ जाते हैं पर इनने से तो व्यवहार तीर्थप्रवृत्ति नहीं बन पाती । तो उस सत् का संग्रह का भेद करके पृथक्-पृथक् स्वरूपास्तित्व की ओर ले जाना है । जब पृथक्-पृथक् स्वरूपास्तित्व का बोध हो तब ही यह ज्ञान बन पाता है कि एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कुछ नहीं लगता है । और इतना जाने बिना भेद विज्ञान नहीं बन सकता । तो संग्रहनय ने संग्रह तो किया, पर भेदविज्ञान की बात व्यवहार द्रव्यार्थिकनय की कृपा से नहीं बनती । संग्रह किए हुए समूह का भेद कर स्वरूपास्तित्व की ओर आ जाना यह है नय के ज्ञाताओं का काम । तो संग्रहनय से द्रव्य कहा तो उसमें छहों प्रकार के द्रव्य आ गए, और उस होने को जब 6 प्रकार के द्रव्यों से अलग-अलग समझा जाये तो व्यवहारनय से उसके भेद किए यों समझिये । तो द्रव्य 6 प्रकार के हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इसमें किसी भी वस्तु का परिचय असाधारण गुण के बिना नहीं हो पाता ।
जीव का परिचय जीव के असाधारण गुण से होता है । चूंकि वे सब द्रव्य हैं तो उनमें साधारण गुण समानता से रहते हैं । गुण भी पदार्थ की विशेषता ही है । ऐसा नहीं है कि कोई एक गुण है और वह सब पदार्थों में रहता है । जैसे बताया गया कि अस्तित्व गुण सब पदार्थों में रहता है, तो एक ही अस्तित्व गुण हो, सद्रूप हो और वह सब पदार्थों के व्यापक हो ऐसा नहीं है, किंतु पदार्थ है सब और अपने-अपने अस्तित्व से सद्भूत हैं । अब चूंकि सभी पदार्थ सद्भूत है सभी में अस्तित्व पाया जाता है इसलिए इसे साधारण गुण कहते हैं । तो साधारण गुण से तो वस्तु की पहिचान नहीं बनती, क्योंकि वह तो सबमें मौजूद है, असाधारण गुण से पहिचान होती है । तो वह असाधारण गुण है जीव में चेतना । जो जीव में ही पाया जाये । और जीव में भी सब जीवों में पाया जाये, किंतु जीव को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में एक में भी न पाया जाये तो वह निर्दोष लक्षण कहलाता है ।
चेतना गुण सब जीवों में है चाहे निगोद जीव हो अथवा सिद्ध जीव हो, चेतन सबमें है । और जीवों को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में भी नहीं है । पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन पाँचों ही अजीव द्रव्यों में चेतन ज्ञान नहीं पाया जाता, इसलिए चैतन्य लक्षण निर्दोष है और उससे जीव की सही पहिचान होती है । तो चेतना तो गुण है जीवका, मगर विशेषताओं को जब देखा तो चेतना कहते हैं प्रतिभास स्वरूप को, और चूंकि वस्तु सामान्य विशेषात्मक होती है तो उसका असाधारण गुण भी सामान्य का क्रम से लिए हुए होगा, क्योंकि गुण वस्तु से भिन्न चीज नहीं है । तो चेतना भी सामान्य विशेषात्मक है अर्थात् सामान्य प्रतिभास और विशेष प्रतिभास ज्ञान है और यह चेतना जब जानता देखता है तो जान देख करके कहीं न कहीं रमेगा भी । तो रमण करने का जो स्वभाव है वह है चारित्रशक्ति । इस तरह तीन बातें ज्ञान में हुई कि आत्मा में दर्शन है, ज्ञान है और चारित्रशक्ति है पर जहाँ दर्शन, ज्ञान, चारित्र है और वह अपनी विशुद्ध स्थिति में रहता है तो वहाँ आकुलता नहीं जगती, और जहाँ यह विपरीत बनता है याने सम्यक्त्व विपरीत बन गया, चारित्र विपरीत बन गया तो वहाँ आकुलता बनती है ।
आकुलता होने का नाम कष्ट है और आकुलता न रहने का नाम आनंद है । तो जब यह परिणति जीव में देखी जाती है तो उसके आधारभूत शक्ति भी माननी होगी । वह कहलाती है आनंदशक्ति । अब इन शक्तियों के परिणमन होते हैं तो उपाधि संबंध में तो विपरीत परिणमन होता है और उपाधिरहित स्थिति में स्वाभाविक परिणमन होता है, और उपाधि कुछ हुई कुछ अभी बनी है ऐसी स्थिति में स्वभाव का अपूर्ण परिणमन भी चलता है, अपूर्ण विकास । इस तरह जीव में मति श्रुत आदिक ज्ञान, क्रोधादिक कषायें ये सब परिणमन चलते हैं । अब चूँकि द्रव्य है जीव और जो इसके साथ बंधन में हैं कर्मादिक, वे सब भी द्रव्य है और ऐसे अनेक द्रव्यों का मिलकर बंधन संबंधरूप यह चल रहा है, तो इसका जो आकार बनता है सो वह नर नारक तिर्यंच देव का आकार बनता है, पर उपाधि कोई न रहे ।
तो जब द्रव्य के साथ किसी दूसरे पदार्थ का संपर्क न हो, केवल अकेले ही कोई वस्तु रहती है तो उसका आकार स्वाभाविक बनता है और गुण का विकास भी स्वाभाविक बनता है, ये पदार्थ में परिणमन चला करते हैं । सभी पदार्थों में एक विशेषता है अर्थ पर्याय की । प्रत्येक पदार्थ जब एक परिणमन से दूसरा परिणमन करता है तो वह एक द्रव्य को चार्ज सौंपे यह द्रव्य बन जाता है । और जैसे एक अफसर दूसरे अफसर को चार्ज सौंपे तो उसमें कितनी ही अड़चनें खलबली, ऊँच-नीच सब प्रकार के व्यवहार बनते हैं । यहाँ द्रव्य जब एक पर्याय को तजकर दूसरी पर्याय में आता है तो षट᳭गुण हानि वृद्धि चलती है । तो षट्गुण हानि वृद्धिरूप परिणमन अर्थपर्याय कहलाती है । इस तरह जीवद्रव्य में सदा रहने वाली शक्तियां हैं । उन शक्तियों के प्रतिसमय परिणमन होते रहते हैं और इसका कोई न कोई आकार चलता रहता है । इन सब बातों को सही यथार्थ ज्यों का त्यों जानना, श्रद्धान करना यह है सम्यक्चारित्र का मूल । लोग कह तो देते हैं कि मोह न करो, पर उसका प्रयोग करके कोई चलकर बताना चाहे तो उसे बड़ा मुश्किल होता है । मोह से दुःखी भी होते जाते और मोह किए बिना चैन भो नहीं मानते, यह स्थिति जीवों की हो रही है, तो भाई जब मोह से दुःख मान रहे हैं, अनेक कष्ट हो रहे हैं तो उस मोह को तज दिया जाये । एक बार चित्त में आ जाये कि मैं मोह को छोड़कर ही रहूंगा, फिर भी छोड़ नहीं सकते, क्योंकि मोह के छोड़ने का उपाय उनको विदित नहीं है और मोह में दुःखी होते । और धर्मात्मा जनों का चित्त तो यह चाहता है कि मेरा यह मोह बिल्कुल दूर हो जाये तो मैं बहुत आनंद में हो जाऊंगा, पर मोह छोड़ने का रास्ता विदित नहीं है तो मोह छूट नहीं सकता और जिनको मोह छोड़ने का रास्ता विदित हो गया उनका मोह छूट जायेगा । चाहे कर्मोदयवश उसके रागद्वेष भी बनते रहें, मगर उसे मोह नहीं रहता ।
उन रागद्वेषों के कारण वह अपने अंदर कोई घबड़ाहट नहीं मानता । तो मोह छोड़ने का रास्ता कौन है? वह द्रव्य, गुण, पयीयों का यथार्थ ज्ञान, यह है मोह छुटाने का रास्ता । धर्म है निर्मोह होने में । धर्म के नाम पर जो अनेक बातें की जाती हैं उनको करके फिर यह जीव शांति का फल देखना चाहता है और शांति का फल मिलता नहीं उस से तो यह हैरान रहता है । धर्म होता है निर्मोह होने में । निर्मोह स्थिति बने और फिर शांति का लाभ न मिले तब प्रश्न करे, पर धर्म तो करते ही नहीं और धर्म का नाम लेकर विकार करते हैं तो विकार से शांति नहीं उत्पन्न होती । धर्म है निर्मोह होना और निर्मोहता जगेगी द्रव्य गुण पर्याय का यथार्थ स्वरूप जानने से और द्रव्य की एक यूनिट (इकाई) तक, एक अस्तित्व तक जिसमें संग्रह का नाम न रहे, ऐसी एक सत्ता तक, एक व्यक्ति तक दृष्टि पहुंचे तो वहाँ निर्मोह होने का रास्ता मिलता है ।
द्रव्य से जानें कि यह मैं जीव शाश्वत हूँ, अनंत शक्तियों का पिंड हूँ । उन शक्तियों के परिणमन चलते हैं, वे परिणमन मेरे में ही चलते हैं, दूसरे जीव में नहीं, सुख दुःख का जो वेदन होता है वह मेरे में ही होता है दूसरे जीव में नहीं । मेरे में जो विकल्प जगते हैं वे मुझमें हैं दूसरे में नहीं, दूसरे का सब कुछ उस ही में होता है, उससे बाहर नहीं, ऐसे सब जीव अपनी-अपनी सत्ता लिए हुए अपने आप में परिणमते हुए सदा काल बर्तते रहते हैं । यहाँ एक का दूसरे से रंचमात्र भी संबंध नहीं है । यह जीव अज्ञानवश मानता है कि मेरा इनसे सबंध है, पर वस्तुस्वरूप की ओर से देखो तो एक जीव का दूसरे जीव से रंच भी संबंध नहीं है । जब यह विदित हो जाये कि एक जीव का दूसरे जीव के साथ कुछ संबंध नहीं, सर्व स्वतंत्र स्वतंत्र सत् हैं तो उनको अन्य से मोह भाव न जगेगा । धर्मात्मा पुरुष धर्मात्माओं के प्रति प्रीति भाव रखता है, वात्सल्य रखता है, पर उसके इस प्रकार का मोहभाव नहीं होता कि यह मैं इनके आधार से ही सत्तावान हूँ । तो वस्तु का स्वरूप स्वतंत्रस्वतंत्र जैसा है वैसा ज्ञान में आये तो मोह दूर होता है । जीवद्रव्य की गुणपर्याय की बात संक्षेप में कही ।
अब पुद्गल द्रव्य को देखिये पुद्गल में परमार्थ द्रव्य है परमाणु । जो कुछ यहाँ हम आपको नजर आता है वह सब है माया, यह वास्तविक वस्तु नहीं है । तो परमार्थ वस्तु का कुछ विवरण समझना चाहिए । प्रत्येक परमाणु निरंतर परिणमता रहता है और परमाणु का गुण है रूप, रस, गंध, स्पर्श और उनकी व्यक्तियां हैं । रूप गुण 5 प्रकार परिणमता है―काला, पीला, नीला, लाल, सफेद । रस 5 प्रकार परिणमता है―(1) खट्टा, (2) मीठा (3) कड़वा, (4) चरफरा और (5) कषैला । गंध दो प्रकार परिणमता है―(1) सुगंध । (2) दुर्गंध । और स्पर्श गुण चार प्रकार परिणमता है―(1) स्निग्ध (2) रूक्ष और (3) शीत (4) उष्ण । इस तरह परमार्थ परमाणु में शक्ति और परिणमन चलता है । चार बातें जो नजर आती है―[1] हल्का [2] भारी [3] कोमल [4] कठोर, सो यह पुद्गलद्रव्य का मौलिक गुण नहीं है । किंतु ये विभाव बन गए हैं । पुद्गल में ऐसे वैभाविक गुण हैं कि पुद्गल परमाणुओं का स्कंध अगर बन जाये अनंत परमाणु एकत्रित हो गए उनका बंधन है तो उस समय कोई स्कंध वजनदार है, कोई स्कंध हल्का है, कोई कठोर है, कोई कोमल है ये चार जो पर्यायें हैं सो पुद्गल परमाणुओं की माया में आते हैं ।
परमार्थ में ये चार बातें नहीं हैं । तो वहाँ यह देखना कि प्रत्येक परमाणु का परिणमन उस ही परमाणु में है, उस से बाहर अन्य परमाणुओं में नहीं, किसी जीव में नहीं । जीव के साथ कर्म भी बँधे हैं और वे कर्म पुद्गल हैं, उनकी वर्गणाओं का स्कंध है । उनमें जो कर्मपना आता है प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभागबंध चलता है सो वह भी उन्हीं में ही चलता है । पुद्गल कर्म की बंधादिक स्थितियों का कर्ता जीव नहीं है । जीव अपने ही परिणाम को करता है । पुद्गलकर्म अपने ही परिणमन को करता है, एक निमित्तनैमित्तिक योग है सौ इसमें यह समझना चाहिए कि उपादान में ऐसी कला होती है कि वह निमित्त का सन्निधान पाये तो वह उस-उस अनुरूप स्वयं परिणमता जाये । कहीं निमित्त का प्रभाव उस दूसरे पदार्थ में उपादान में नहीं पाया, क्योंकि प्रभाव भी वस्तु में अभिन्न चीज है, कहीं वस्तु से निकलकर बाहर जाने वाली चीज नहीं है । तो प्रभाव का अर्थ है उत्कृष्ट रूप से होना, निमित्त पाकर होना, उसे कहते हैं प्रभाव । तो जिस वस्तु का जो कार्य है वही उसका प्रभाव है । भाव और प्रभाव में अंतर यह है कि जो उपाधि बिना होवे सो भाव और जो निमित्त पाकर होवे सो प्रभाव ।
प्रभाव निमित्त का नहीं है, पर निमित्त के सन्निधान में उपादान ने ऐसा परिणमन बनाया तो चूँकि निमित्त सन्निधान में बना पाया इस कारण वह प्रभाव कहलाता है । तो इस पुद᳭गल द्रव्य का यथार्थ परिज्ञान करने से वस्तुस्वातंत्र्य का बोध हुआ और उसमें समझा गया कि एक वस्तु का दूसरी वस्तु कुछ भी नहीं लगता । आज ये अज्ञानी मनुष्य बड़े परेशान हो रहे बच्चों में मोह करके या अन्य इष्ट में मोह करके, पर वे यह नहीं समझ पाते कि अगर ये जीव बच्चे के रूप में मेरे घर में न आये होते, इनको छोड्कर अस्य कोई जीव आते तो इनको तो चूँकि मोह करने की आदत है सो उनमें मोह करते, पर उन जीवों के साथ कोई संबंध जुटा है अतएव उनसे मोह किया जा रहा, यह बात गलत है । किसी भी जीव के साथ किसी भी जोव का कोई संबंध नहीं है । किंतु अपनी भावना के अनुसार अपने को जिनसे कुछ सुख सा दिखता हो उसके अनुसार किमी भी जीव में कल्पना बना ली, उससे यह जीव मोही बनता और अपने में कष्ट पाता है तो वस्तु का यथार्थ ज्ञान होना, भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्व समझ में आना यह मोह का प्रध्वंस कर देता है । तो मोह से दुःख मानने वाले पुरुष मोह को मिटाने के लिए वस्तु के स्वरूप का सही परिचय बनायें । इस उपाय के बिना संसार के संकट न टल सकेंगे, और कर्मबंधन से छुटकारा न मिल सकेगा और संसार के जन्ममरण की विडंबना सहती रहनी पड़ेगी । इसलिए कुछ तो ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा करना चाहिए कि मैं तो वस्तु के सही स्वरूप को पहिचान कर ही रहूंगा ।