वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 25
From जैनकोष
दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं ।
भोगोपभोगपरिमा इयमेंव गुणव्वया तिण्णि ।।25।।
गुणव्रत नाम है जो गुणों का उपयोग करे सो व्रत । अहिंसा आदिक जो 5 अणुव्रत हैं उन अणुव्रतों की जो वृद्धि करे उसे कहते हैं गुणव्रत । इससे पहले गुणव्रत का नाम दै दिशाविदिशा परिमाण गुणव्रत । दूसरा गुणव्रत है अनर्थदंड त्याग गुणव्रत । तीसरे गुणव्रत का नाम है भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत । गुणव्रत के तीन नाम प्रसिद्ध ये भी पाये जाते हैं―दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थ दंडव्रत । इनमें भोगोपभोग परिमाण छूटा है, सो यह लिया होगा चार शिक्षा व्रतों में और यहाँ भोगोपभोग परिमाण व्रत को गुणव्रत में लिया है । तो दिग्व्रत और देशव्रत ये एक में शामिल कर लिया है । तो दिग्व्रत का अर्थ है जीवन पर्यंत चारों दिशाओं विदिशाओं में परिमाण कर लेना कि मैं इससे अधिक न जाऊँगा, न संबंध रखूंगा, यह है दिग्व्रत, और कुछ समय की मर्यादा लेकर उस दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर और भी सूक्ष्म मर्यादा लेकर जैसे मैं इन दशलक्षण के दिनों में इस शहर से बाहर न जाऊँगा या सुबह तीन घंटे तक इस मंदिर से बाहर न जाऊँगा ऐसा कुछ सूक्ष्म परिमाण कर ले तो वह देशव्रत कहलाता है । यहाँ इन दोनों को एक में शामिल किया है । अनर्थ दंडव्रत का त्याग करना । बिना प्रयोजन जो पाप होता है उसका त्याग याने जो त्यागने योग्य पाप है, घात हे उसका तो प्रयोजन होने पर भी न करना, मगर जिन पापों का त्याग नहीं हो पाया उनमें भी इतना बचाव रखना कि बिना प्रयोजन उनकी हिंसा न करना । जैसे गृहस्थक जलकाय अविरति का त्याग नहीं है तो श्रावक ऐसी प्रवृत्ति न करेगा कि 10-20 बाल्टियों से नहा रहा है या वनस्पतिकाय अविरति का त्याग नहीं किया तो वह बिना प्रयोजन पत्तों को तोड़ना आदि ऐसे कार्य न करेगा ।
तो ऐसा अनर्थदंड बताया जायेगा, उन अनर्थदंडों का त्याग करना अनर्थदंड व्रत हैं । ये अनर्थ दंड 5 प्रकार के होते हैं―पाप उपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुश्रुति और प्रमादचर्या । पाप उपदेश अनर्थदंड है । जिस उपदेश से पाप की बात आती हो, जैसे कहना कि अमुक प्रांत में अच्छी भैंसें हैं और अमुक प्रांत में ले जाने से वहाँ बेचने से लाभ होगा, वह है 300-400 मील दूर जगह । यहाँ से जायेगी भूखी-प्यासी रहेगी तो उनको कष्ट होगा । तो पशुओं का व्यापार या अन्य कोई व्यापार जिसमें हिंसा हो ऐसे व्यापार का उपदेश करना पापोपदेश है । इस अनर्थदंड का त्याग सागार संयमाचरण में होता है । हिंसाज्ञानपाप कहते हैं हिंसा की चीज को देना । हिंसा की चीजें तो प्राय, सभी है, मुख्यतया तलवार, बंदूक, बरछी छुरी आदिक हिंसा की चीजें है । आग भी हिंसा का साधन है । कुल्हाड़ी चाकू आदिक ये सब हिंसा के साधन हैं । अगर यह गृहस्थ परख लेगा कि यह जो पुरुष चाकू चाह रहा, आग चाह रहा तो यह अपने कार्य के लिए तो वह ये चीजें न देगा । और अगर समझ लिया कि रोटी बनाने का संयम है, तो उस समय वह अग्नि भी दे देगा, शाक-सब्जी, फल वगैरा काटने की दृष्टि से चाकू भी दे देगा । अगर किसी ने कुदाली मांगी तो वह पहले यह जान लेगा कि कहीं केचुवा वगैरा खोदने के लिए तो नहीं माँग रहा । यदि किसी अच्छे काम के लिए कुदाली आदि मांग रहा तब तो दे देगा, नहीं तो न देगा । तो इन हिंसा के साधनों का त्याग करना हिंसाज्ञान त्याग है अपध्यान अनर्थदंड कहलाता है । दूसरों का अनिष्ट चिंतन करना, अमुक को टोटा पड़े, इसका धन चोर लूट ले जाये, इसकी स्त्री गुजर जाये, इसका यों हो जाये यों अनेक प्रकार का खोटा चिंतन करना अपध्यान है । उसका त्याग अपध्यान अनर्थदंड कहलाता है । दुश्रुति अनर्थदंड कहलाता है रागभरी द्वेषवर्द्धक बात का सुनना । इसका यहाँ त्याग रहता है । स्त्रीकथा, कामभरी कथा ऐसी न सुनेगा कि जिससे काम क्रोधादिक कषायों की उत्तेजना मिले । 5वां अनर्थदंड व्रत है प्रमादचर्या त्याग । प्रमाद वाली बात न करना, हिंसा के साधन न रखना, जैसे तोता, बिल्ली, मैना, कुत्ता वगैरा पालना, ये काम व्रती पुरुष नहीं कर सकता । तो ऐसे 5 अनर्थदंडों का त्याग है और 4 शिक्षाव्रत हैं जिनका वर्णन चलेगा ।
यहाँ गुणव्रत में भोगोपभोग लिया गया है जिसका अर्थ यह है कि भोग और उपभोग की चीज का प्रमाण कर लेना । जो वस्तु एक बार भोगने में आये, फिर काम की न रहे उसे कहते हैं भोग, और जो वस्तु अनेक बार भोगने में आये उसका नाम है उपभोग । जो धोती, कमीज, टोपी छतरी, पलंग आदि रोज-रोज काम में आते हैं ये तो उपभोग हे और जो एक हो बार काम में आये, जैसे तेल एक ही बार लगा लिया तो वह दुबारा काम नहीं आता कि किसी के शरीर का तेल पोंछकर कोई दूसरा लगाये । तो वह तेल काम में नहीं आता अथवा ऐसे फूलों को माला किसी के गले में पहना दी गई तो उसे दूसरा नहीं पहिन सकता । भले ही कोई दूसरे की माला पहिन ले तो वह बात उसकी एक दरिद्रता की समझो, मगर वह भाव नहीं बनता । भोजन करने की बात ले लो, किसीने भोजन किया तो उस भोजन को कोई दुबारा नहीं ले सकता । तो ऐसी चीज जो एक बार भोगने में आये दुबारा भोगने में न आये यह है भोग । जैस किसी के स्नान किए हुए जल से कोई दूसरा स्नान नहीं कर सकता, यह भी भोग हुआ, और जो बार-बार भोगने में आये सो उपभोग । भोग और उपभोग के परिमाण का प्रयोजन यह है कि उसमें हिंसा टल जाये । भावहिंसा और द्रव्यहिंसा दोनों ही हिंसा होती है । तो द्रव्यहिंसा टले यह तो बात स्पष्ट है कि जितना कम आरंभ होगा, जितनी कम वस्तुओं का संग्रह होगा उतना ही हम हिंसा से बचे रहेंगे और भोगोपभोग की चीज कम रखने में भावहिंसा का त्याग यों है कि उसके संबंध में विकार नहीं जग रहा, बहुत से भोगसाधनों का संचय करे तो उतना ही विकार राग बढ़ता जायेगा । विकार राग बढ़ेगा तब ही तो भोगों का संग्रह करता है । अनेक उपभोग की चीजें रखीं तो वे किस काम की । मान लो कई कमरे सजा दिए, कई बैठकें बना दीं केवल शौक के लिए तो उससे क्या लाभ? हाँ जिसका कोई ऐसा व्यापार है कि कई बैठकें चाहिएँ ही तो वह तो उसके प्रयोजन में आ गया, मगर बिना प्रयोजन अनेक चीजों का संग्रह करे तो उसमें भावहिंसा नहीं टलती । अनेक पुरुषों की आदत है चीजों का संग्रह करते रहना और यह सोचना कि कभी काम आयेगी, उनके किसी एक कमरे को देखो तो ऐसी चीजें पड़ी रहती हैं कि कई वर्षों से रखी हुई खराब भी हो जातीं, पर उनका परिहार नहीं कर पाते कि उन्हें चलो बेच ही दिया जाये । सो उसे लोभ रहता है कि यह इतनी कीमत की वस्तु है, इसे कैसे बेच दिया जाये? तो अनेक निष्प्रयोजन चीजों का संग्रह जो कभी काम में भी नहीं आ सकतीं, उन भोगोपभोग का परिमाण करना और उस परिमाण से अधिक भोगोपभोग के साधनों को न रखना सो यह कहलाता है भोगोपभोग परिमाण रत । इस प्रकार इस गाथा में तीन गुणव्रतों का वर्णन किया । अब चार शिक्षाव्रतों का वर्णन करेंगे ।