वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 3
From जैनकोष
जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं ।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ।।3।।
(9) ज्ञान, दर्शन व ज्ञान दर्शन के समापन्न से हुए चारित्र का निर्देश―जो जगता है सो ज्ञान है और जो देखता है सो दर्शन है और ज्ञान एवं दर्शन के समायोग से चारित्र होता है । यहाँ दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीन का वर्णन है । स्व पर वस्तु का विशेषरूप से जो प्रतिभास करता है उसे ज्ञान कहते हैं और जो सामान्यतया प्रतिभास करता है उसे को दर्शन कहते हैं । समग्र वस्तुओं का सामान्य प्रतिभास क्या? यदि इन वस्तुओं का ख्याल रहे कि मैंने इन चीजों का प्रतिभास किया तो वह सामान्य न रहा, विशेष हो गया और केवल आत्मा के चैतन्यसामान्य का प्रतिभास किया तो वह सर्व वस्तुओं का प्रतिभास नहीं कहलाया तो वह दर्शन क्या है जो सर्व पदार्थों का सामान्य प्रतिभास कहलाये और किसी भी वस्तु का बोध न हो । बोध हुआ तो ज्ञान बना । तो वह दर्शन है समग्र वस्तुओं के जाननहार आत्मा का प्रतिभास और छद्मस्थों में इस दर्शन का उपयोग होता है इस तरह कि अन्य वस्तु के जानने के निकट ही होने वाला सामान्य प्रतिभास । तो इसे कहते हैं देखना । जानना और देखना य दो बातें आत्मा में चलती रहती है, अब इन दोनों का समायोग है । अर्थात् जानना देखना एक साथ स्थिर हो जाये तो उसका नाम है चारित्र । चारित्र बाह्य क्रिया का नाम नहीं, किंतु जब शरीर में फंसे हैं तो कुछ न कुछ तो शरीर की क्रिया होगी ही । तो दर्शन ज्ञान के रुचिया को शारीरिक क्रियायें किस तरह होती हैं उसका वर्णन चरणानुयोग में है और उन क्रियावों से लाभ यह है कि अशुभोपयोग नहीं आ पाता । व्यवहारचारित्र अशुभोपयोग का निवारण करने के लिए समर्थ है पर आत्मानुभव मोक्षमार्ग गमन या कहो साक्षात् धर्मपालन शारीरिक क्रियाओं से नहीं होता, किंतु अपनी ही रागवृत्ति से होता है तो, यह ज्ञान और दशन के समायोग से चारित्र हुआ है याने श्रद्धान और ज्ञान इन दोनों का एक रूप हो जाने से चारित्र होता है । दर्शन शब्द दर्शन गुण के लिए भी आता है और श्रद्धान के लिए भी आता है । दर्शन का जो स्वरूप है वह जिसके दर्शन में आ जाये दर्शन के विषयभूत अंतस्तत्त्व को जो हितरूप से श्रद्धा कर ले उसे कहते हैं सम्यग्दर्शन । तो इस तरह चारित्र का प्रभाव सम्यग्दर्शन की निर्दोषता के लिए है, सम्यग्ज्ञान की निर्दोषता के लिए है और चारित्र की निर्दोषता के लिए है और तीनों का एक रूप हो जाना यह साक्षात् मोक्ष मार्ग है ।