वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 6
From जैनकोष
एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ ।
परिइरि सम्मत्तनला जिणमणिया तिविहजोएण ।।6।।
(12) सम्यक्त्वाचरण और उसके आविर्भाव तिरोभाव की रीति―मिथ्यात्वप्रकृति का उदय न रहने पर अथवा 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम होने पर जो जीव के आत्माभिमुख श्रद्धारूप वृत्ति होती है वह सम्यक्त्वाचरण है । सम्यक्त्व का घात करने वाली 7 प्रकृतियां हैं―सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन 7 प्रकृतियों का उपशम होने पर औपशमिक सम्यक्त्वाचरण होता है । क्षयोपशम होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्वाचरण होता है और क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्वाचरण होता है । लोक में पदार्थों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है और उसी रीति से इन 7 प्रकृतियों का उदय होने पर मिथ्यात्वादिक भाव होते हैं । पर स्वरूप में सभी पदार्थ अपनी ही वृत्ति से परिणाम रहे हैं । नैमित्तिक भाव होने पर कहीं यह बात नहीं है कि निमित्त ने परिणति कर दिया, किंतु निमित्त के सामने होने पर उपादान खुद अनुरूप परिणम जाता है । जैसे कभी कोई बालक कहीं किसी से पिट गया हो, दुःखी हो और रोते-रोते उसको 20 मिनट हो गए, कहाँ तक रोवेगा? आखिर वह एक जगह चुपके से बैठ गया, इतने में उसका पिता आया और वह लड़का अपने पिता को देखकर उसी तरह फिर रोने लगा । तो बताओ क्या उसके पिता ने उसे रुला दिया? अरे पिता ने नहीं रुलाया, किंतु पिता को सामने देखकर वह लड़का खुद अपनी कल्पना करके रोने लगा । यह तो एक साधारण सिद्धांत की बात कही । यहाँ कुछ अविनाभाव का संबंध नहीं कि पिता के दिखने पर रोये ही रोये, पर कर्मोदय और जीव में विकारभाव इनमें निमित्तनैमित्तिक योग है कि कर्मोदय होने पर जीव के विकार होंगे ही, सिर्फ जघन्य दशा वाली स्थिति में तो विकार नहीं हो पाता, मगर कर्मोदय होने पर जीव में विकार होगा । अब ये आश्रयभूत कारण जुट जायें याने बाह्य वस्तु में उपयोग लग जाये तो वह विकार व्यक्त हा जाता है । यदि आश्रयभूत कारण न बनाया जाये तो विकार अव्यक्त रहता है, पर होगा अवश्य विकार । इसी कारण तो चरणानुयोग में आश्रयभूत पदार्थों का त्याग कराया जाता है । कुटुंब और जल के संबंध में जीव ने रागी नहीं बनाया, जो रागी बना उसमें निमित्त तो राग प्रकृति का उदय है, पर धन वैभव में उपयोग देकर इस जीव ने राग को व्यक्त किया । तो चरणानुयोग की यह पद्धति है कि आश्रयभूत पदार्थों का त्याग कर दिया तो व्यक्त विकार नहीं होने के । कभी अवसर आयेगा और ज्ञानबल से फिर अव्यक्त विकार भी दूर करेंगे । तो कर्मोदय का विकार के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध है ।
(13) कर्मविपाकों के त्याग की विधि―अब उन कर्मविपाकों को कैसे छोड़ा जाये? उसका उपाय यह है कि जब कभी भी अवसर आये, संज्ञी हो जाये, मन मिले, सत्कुल मिले, सत्संगति हो, कुछ ज्ञान भी चलने लगे तो ज्ञानबल बढ़ायें और उस ज्ञानजल से अपने आत्म स्वरूप को सीचे । ज्ञान में आत्मस्वरूप बहुत-बहुत ज्ञेय होता रहे और उस अविकार आत्मस्वरूप की भावना बनती रहे तो सत्ता में पड़े हुए कर्मों में भंग हो जाता है । उनका अनुभाग क्षीण हों, प्रकृति भी बदल जाये, ये सब बातें हो सकती, हैं, और जहाँ ये उथल-पुथल हो होकर ये कर्म दूर हो जाते हैं वहाँ फिर आत्मा के ये शुद्ध भाव प्रकट हो जाते हैं । तो कल्याणक वास्ते बुद्धिपूर्वक अपन को करना क्या चाहिए? करना वह चाहिए जिससे आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप को दृष्टि बनी रहे । अब जिस तरह बने उस तरह का उद्यम करें । और चूंकि यह जीव स्वरूप के ध्यान का अभ्यासी नहीं है सो एक तरह का बाहरी उपाय बनाकर यह जीव ऊब जाता है, इस कारण से बाहर में उपाय भी अनेक करने होते हैं, जैसे पूजा की, सामायिक की, गुरुसेवा की, शास्त्र श्रवण किया, कभी खुद अध्ययन किया, कभी मनन किया, अनेक उपाय बनाये जाते हैं उस ज्ञानदृष्टि को ही कायम रखने के लिए । तो जो ज्ञानदृष्टि का भीतर निर्माण चल रहा वह तो हे साक्षात् धर्मपालन और जैसे उपाय बाहरी क्रिया में चल रह हैं वे कहलाते हैं व्यवहारधर्म ।
(14) सम्यक्त्वाचरण में निःशंकता―सम्यक्त्वाचरणचारित्र शंका आदिक दोषों को त्यागने से शुद्ध होता है । जिनेंद्रवचनों में शंका न रखना, विषय भोगों की वांछा न रखना, मुनिजनों को देखकर, उनके मलिन शरीर को निरखकर ग्लानि न करना आदिक जो भी वृत्तियाँ हैं य आत्मा की ओर ले जाने वाली तो है, ये चारित्र कहलाती हैं । श्रद्धान की ओर से देखो तो सम्यक्त्व है और उसमें वृत्ति क्या बन रही है ? उसकी ओर से देखो तो वह आचरण है क्योंकि यदि शंका आदि दोषों का त्याग न बने तो अपने आत्मा का आचरण नहीं हो सकता । जिनेंद्र देव ने जो वस्तु का स्वरूप कहा उसमें जो-जो अनुभव गम्य चीजें हैं वे इस ज्ञानी के अनुभव में उतरी है और उससे जिनेंद्रवचन में उसको दृढ़ श्रद्धा हुई है और ऐसी दृढ़ श्रद्धा हुई है कि जो कुछ परोक्षभूत बातों का वर्णन हें, स्वर्ग नरक, विमानों की संख्या, विमानों का क्षेत्र फल दुनिया की जगहों का वर्णन जो-जो भी वर्णन आया है उस पर ज्ञानी को पूर्ण श्रद्धा हुई है, क्योंकि अनुभव गम्य तत्त्व में ऐसी दृढ श्रद्धा हुई कि इसके बताने वाले जिनेंद्र देव पूर्ण सत्य हैं, पूर्ण प्रामाणिक हैं, उनमें किसी तरह की शंका ही नहीं है । अतएव जिनागम में जो कुछ कहा गया है वह सब निर्दोष कथन है, उसमें संशय नहीं है, ऐसी शंका की निवृत्ति है ।
(15) सम्यक्त्वाचरण में निःकाक्षता―सम्यक्त्वाचरण में भोग भोगने की अभिलाषा सम्यग्दृष्टि के नहीं रहती । यद्यपि चारित्रमोह के उदय से ज्ञानी भी किसी पदवी में भोगों में लगता है, पर उसका भीतरी भाव आंतरिक आशय नहीं लगता । यह भी एक आश्चर्य की बात है कि भोग भोगना भी पड़ रहा और भीतर में पछतावा भी कर रहा । इन दो धाराओं का संगम इस ज्ञानी के चल रहा है । विरक्ति भी चल रही है और प्रवृत्ति भी चल रही है । जैसे किसी को मदिरा पीने की जरा भी आदत नहीं है, न कभी पी है, दूर रहता है और दूर रहना ही चाहिए, ऐसा उसका संकल्प है फिर भी किसी राग में मस्त होने पर कुटुंबी जनों द्वारा किसी दवा में मदिरा का संयोग करके पिलाया जाये तो उसे बेहोशी नहीं आती । एक तो वह दवा के साथ है, दूसरे मदिरा से वह विरक्त हैं तो इसका भी अंतर पड़ता है कि विरक्त होते से उसका मद न चढ़ा । कभी थोड़ा अंतर यह देखा जाता कि कोई बेहोश करने वाली चीज पी ली किसी परिस्थिति में जबरदस्ती और अपने ज्ञान की ओर दृष्टि बनाये रहे कि मैं तो स्वच्छ ज्ञानमूर्ति हूँ और उससे मेरा कुछ लगाव नहीं, वह पीने में आया है तो कुछ समय बाद दूर हो जायेगा, ऐसा भीतर में भाव रखे तो उसका नशा सामान्य रहेगा और पीकर उसही में आसक्त हो, वह ऐसा बार-बार सोचे कि मैंने पिया है तो उसके नशा शीघ्र ही आयेगा, विरक्ति से भी कुछ अंतर पड़ जाता है बाहरी बातों में भी । फिर तो जहाँ अपने आत्मा में ही विषयविरक्ति पड़ी हुई है वहाँ कदाचित् कर्म की बलवत्ता से भोग भी भोगने पड़े तो वह उनसे विरक्त रहता है । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव की वह श्रद्धा कला का इतना अद᳭भुत माहात्म्य है कि उसे को निरंतर अपने सहज अविकार स्वरूप में प्रतीति रहती है और यही बड़ी कमायी है, जो अपने आप में ऐसी प्रतीति बना ले, सदा यह ही ध्यान रहे कि मैं तो अविकार चेतना मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ और जो कुछ मुझ पर मलिनता छा रही है, यह सब कर्म की छाया है । मैं तो अविकार शुद्धस्वरूप हूँ, ऐसी प्रतीति दृष्टि निरंतर रहती है तो उसका मोक्ष नियम से है । जैसे लोक में अपने नाम की प्रतीति निरंतर रहती है कि मैं अमुक चंद हूँ, अमुक लाल हूँ, तो इसी तरह से समझें कि अपने में अविकार ज्ञानस्वरूप की प्रतीति निरंतर रहे कि मैं तो यह स्वरूप हूँ, तो इस प्रतीति के बारे में यह जीव समस्त बाधाओं से निवृत्त हो सकता है । तो इस सम्यक्त्वाचरण में शोकादिक दोष नहीं होते, इस कथन में शंका और वांछा ये दोष बताये गए कि इन दोषों से वह सम्यग्दृष्टि जीव जुदा ही रहता है ।
(16) सम्यक्त्वाचरण में निर्जुगुप्तता―ज्ञानी जीव जुगुप्सा से भी दूर है । वस्तु के स्वरूप में या धर्म में ग्लानि करना जुगुप्सा है । धर्मात्मा में ग्लानि करना, धर्म में ग्लानि करना यह सब जुगुप्सा है । जुगुप्सा अगर हो तो यह अपनी श्रद्धा से चिग जायेगा । धर्मात्मा को देखकर ग्लानि ज्ञानी के नहीं होती और अपने धर्मभाव से भी इस जीव को ग्लानि नहीं होती । ऐसी सम्यक्त्वाचरण रूप वृत्ति होना जीव का प्रथम चारित्र है । चारित्र सामान्य शब्द का अर्थ तारतम्यरूप में चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होता है, परंतु विशेष रूप में संयमाचरण से है सो वह भी तारतम्यरूप में ऊपर के गुणस्थानों तक बढ़ता चला गया है । चतुर्थ गुणस्थान में धर्म के प्रति जुगुप्सा नहीं, किंतु उमंग है, धर्म ही हितमय है, धर्म से ही आत्मोद्धार है यह दृढ़ प्रतीति है और धर्म के अभिमुख उसका उपयोग है यह भी चारित्र का अश है जिसे सम्यक्त्वाचरण अथवा स्वरूपाचरण कहते हैं, किंतु यह आचरण व्रतरूप में न होने से चारित्र नाम से समभिरूढ़ नहीं है । ज्ञानी जीव को धर्मभाव से जुगुप्सा न होकर धर्म के प्रति रुचि वृत्ति होती है । यह सम्यक्त्वाचरण चारित्र है ।
(17) सम्यग्दृष्टि का मूढ़तारहित व उपवृंहित आचरण―चारित्रपाहुड ग्रंथ में चारित्र के वर्णन के प्रारंभ में चारित्र के दो प्रकार कहा―सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण । जो लोग संयमाचरण को ही चारित्र मानने हैं वे सम्यक्त्वाचरण को चारित्र मानने में विवाद करते हैं, और जो प्रमादी हैं, व्रत में जिनका उत्साह नहीं वे सम्यक्त्वाचरण को ही स्वरूपाचरण शब्द से कहकर संतुष्ट हो जाते हैं, पर सम्यक्त्वाचरण तो सम्यक्त्व के होने पर जो कुछ आत्मा की वृत्ति जगती है वह सम्यक्त्वाचरण है । सम्यग्दृष्टि जीव का आचरण विवेकपूर्ण होता है । वह किसी कुदेव, कुगुरु, कुधर्म में प्रवृत्ति न करके सुदेव, सुगुरु सुधर्म में ही अपनी वृत्ति बनाता है यह भी तो एक आचरण है जो खोटे देव, गुरु से हटकर साँचे देव, गुरु की ओर अपना उपयोग लगाता । ऐसा सम्यक्त्वाचरण सम्यग्दृष्टि के होता ही है, जो मूढ़ हैं, जिनके सम्यक्त्व नहीं है बे अनेक सरागी देव हिंसामयी धर्म, परिग्रह सहित गुरु, इनमें बिना विचार किए ही अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ करता है, सेवायें करता, अनेक प्रकार की अन्य क्रियायें करता, यह मिथ्यात्व का आचरण है । उल्टे मार्ग पर चलना यह भी तो एक आचरण है, पर वह विपरीत आचरण है । सम्यक्त्वाचरण में मोक्षमार्ग से संबंधित आत्मा और साधनों से ही प्रीति होती है और वहाँ ही उसकी प्रवृत्ति होती है । सम्यग्दृष्टि जीव धर्मात्मा पुरुषों से और धर्म में चूंकि उसे प्रीति है तब कदाचित कर्मोदय से किसी धर्मात्मा पुरुष में कोई दोष बन जाये तो उस धर्मात्मा की अवज्ञा नहीं करता । जैसे कहते हैं दोष छुपा लेना अर्थात् समाज में उसको दोषी प्रसिद्ध न करना, वह समझायेगा उस ही को अकेले में, पर सब लोगों में, जनता में उस धर्मात्मा का दोष कहकर जो जनता को धर्म से डिगाना है, और इससे कितने ही मनुष्यों का अपकार होता है । सम्यग्दृष्टि जीव जनता का अपकार नहीं करता, धर्मात्मा की अवज्ञा नहीं करता, क्योंकि अवज्ञा होने में एक तो वह धर्मात्मा पुरुष स्वयं दोष करने में निशंक बन जायेगा, दूसरे-जनता धर्म से डिग जायेगी कि धर्मात्मा लोग ऐसे-ऐसे दोष किया करते हैं । तो धरम वरम कुछ नहीं, ऐसा सोचकर जनता भी धर्म से डिग जायेगी । तब सम्यग्दृष्टि जीव का आचरण धर्मात्माओं की रक्षा करने में और उनका आदर बनाये रखने में है, और धर्म का आदर बनाये रखने में है । साथ ही धर्मात्मा को दोषरहित देखने की उसकी दृष्टि है और इसी अभिप्राय से धर्मात्मा को वह एकांत में समझाता है ।
(18) सम्यग्दृष्टि का स्थितिकरण वात्सल्य व प्रभावनासंबंधित सम्यक्त्वाचरण―सम्यग्दृष्टि पुरुष किसी धर्मी को धर्म से चिगता हुआ देखे, धर्म में स्थिर नहीं है ऐसा देखे तो उसको धर्म में स्थिर करने के साधन जुटाता है । यह किस कारण धर्म से चिग रहा है, क्या इसे कोई कष्ट है या इसे कोई वासना जगी है, उन सब बातों को समझकर जैसे वह धर्म में स्थिर हो सके उस तरह की वह वृत्ति करता है । यह सम्यक्त्व के होते ही संभव है, इस कारण यह सम्यक्त्वाचरण है । धर्म से प्रीति रखते हुए धर्मात्मा को धर्म में स्थिर करना यह ज्ञानी के ही संभव है । वैसे अज्ञानी लोग भी धर्मात्माओं की सेवा करते हैं और उनकी स्थिरता का प्रयत्न करते हैं किंतु वे केवल अपनी मान बड़ाई या लोकव्यवस्था आदिक के भावों से ही कर सकते हैं । धर्म में उमंग उठे इस नाते से धर्मात्मा के प्रति बर्ताव बनाना यह ज्ञानी के संभव है । सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्मात्मा जनों से प्रीति रखते हैं, ईर्ष्या द्वेष नहीं करते, और जितना संभव हो सके उतना ही उनको सेवा में अपना सहयोग देते हैं । यदि धर्मात्मा जनो से विशेष प्रीति न जगे तो यह अवात्सल्य है । और ऐसा अवात्सल्य ज्ञानी के संभव नहीं है । ज्ञानी के धर्मात्मा के प्रति अप्रीति संभव नहीं है । सम्यग्दृष्टि को धर्म में तीव्र रुचि हुई है अतएव उस धर्म की महिमा जगत में प्रसिद्ध करने का भाव रहता है और उस ही को वृत्ति चलती है । इस धर्म प्रभावना में ज्ञानी को नाम की ख्याति की मन में कोई बात नहीं आती । केवल एक इस धर्म को जगत के जीव जाने, जिसके प्रसाद से संसार के संकट कटते हैं । इस भावना से वह धर्मप्रभावना में अपनी कोशिश करता है ।
(19) सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व के प्रकार―सम्यक्त्वाचरण तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टियों के हैं । औपशमिक सम्यक्त्व वाले, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाले और क्षायिक सम्यक्त्व वाले औपशमिक सम्यक्त्व का तो अंतर्मुहूर्त समय है, वह भी अंतर्मुहूर्त, मिनट दो मिनट । क्यों कि जब तक 7 प्रकृतियों का उपशम है तब तक इसके औपशमिक सम्यक्त्व रहता है । उपशमकाल समाप्त होते ही उपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है । उपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जाने पर भी उस पुरुष की व्यावहारिक क्रिया सही ढंग से होती है, क्योंकि उसको सम्यक्त्व हो जानें से एक संस्कार मिल गया है, लेकिन सम्यक्त्वभाव सहित परिणाम नहीं जग सकते । क्षायिक सम्यक्त्व निर्मल है और सदा रहा करता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मलिन सम्यक्त्व है, क्योंकि अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन 6 प्रकृतियों का तो जब उदयाभावी क्षय हुआ और इन 6 प्रकृतियों का जो सत्ता में हैं, आगे उदय होना संभव है । उनका उपशम हुआ और सम्यक्त्वप्रकृति का उदय हुआ ऐसी स्थिति में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । इस स्थिति का सही नाम है वेदक सम्यक्त्व, पर जहाँ सम्यक्त्व प्रकृति का उदय-नहीं हैं वहाँ भी यह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है । जैसे जब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है तो उससे पहले इन 7 प्रकृतियों का क्षय होते समय सम्यक᳭प्रकृति का वेदन नहीं चलता । उस अंतर्मुहूर्त में वह वेदक सम्यक्त्व नहीं कहा जाता किंतु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो है ही । इस सम्यक में चल मलिन अगाढ़ दोष रहते हैं किंतु ये दोष सम्यक्त्वाचरण को नहीं बिगाड़ पाते, इतना सूक्ष्म दोष है फिर भी यह अतिचार तो है ही । यह अतिचार भी त्यागने के योग्य है ।
(20) सम्यग्दृष्टि का अविमुग्ध सम्यक्त्वाचरण―सम्यग्दृष्टि जीव कुदेव में मूढ़ न बनकर वीतराग सर्वज्ञदेव के प्रति भी अपनी भक्ति विनय रखता है । खोटे आचरण से हटा और कुछ सही आचरण में आने को है तो यह आचरण न कहलायेगा क्या? यही है सम्यक्त्वाचरण । सम्यग्दृष्टि जन पाखंडी पुरुषों का जो परिग्रह आरंभ सहित हैं, जो हिंसा आदिक में कार्य किया करते हैं, पाखंडी भेष रखते हैं उनका सत्कार पुरस्कार नहीं करते, किंतु जो विषयों के वश नहीं है, आरंभरहित हैं, परिग्रहरहित हैं, ज्ञानध्यान तपश्चरण में लीन हैं ऐसे साधु जनों के सत्कार पुरस्कार में रहते हैं । जैसे कि सरागी देवों की पत्थर आदिक में स्थापना कर उनको सेवा में नहीं रहता, किंतु वीतराग देव को भक्ति में वह विनयसहित वर्तता है ।
(21) सम्यग्दृष्टि के लोकमूढ़ता रहित आचरण―सम्यग्दृष्टि जनों के अटपट लोकमूढ़तायें नहीं बनती । जिन कार्यों से रत्नत्रय का संबंध नहीं, बल्कि मिथ्यात्व का ही पोषण बने ऐसी प्रवृत्ति सम्यग्दृष्टि के नहीं होती, किंतु रत्नत्रय से संबंधित स्थितियों में उसकी प्रवृत्ति होती है । वे कौनसे कार्य हैं जो लोकप्रसिद्ध हैं और आत्मा की सुध से अलग करने वाले हैं? जैसे सूर्य को अर्घ देकर आत्मा का धर्म किया ऐसा मानना । वह सूर्य क्या है जो दिख रहा है? वह तो पृथ्वीकायिक विमान है और उस पृथ्वीकायिक विमान का जो अधिपति इंद्र है सूर्य वह प्रतींद्र है, वह सरागी है, देवगति का जीव है, संसार में जन्म मरण करने वाला है । सरागी की पूज्यता क्या? पृथ्वीकायिक की पूज्यता क्या? जिसके चित्त में अविकार ज्ञानपुंज नहीं है वह जिसकी भी आराधना करे वह सब एक लोकमूढ़ता ही बनेगी । जैसे कभी सूर्य चंद्र का ग्रहण हो जाये तो उसमें अपवित्र मान लेना कि मेरे भगवान पर आपत्ति आयी है और जैसे मानो कोई मर चुके हो तो उसका सूतक मानना और किसी नदी या समुद्र में स्नान करके अपने को शुद्ध होना मानना, इसका ज्ञानपुंज आत्मा की अभिमुखता होने से क्या संबंध? सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का जिसे तथ्य नहीं विदित है और भगवान का स्वरूप जिसे नहीं विदित है ऐसे मनुष्य की तो ढंगों में प्रवृत्ति होती हे । सूर्यविमान के नीचे केतु विमान रहा करता है । सो वे जब अलग-अलग विचरण करते हैं तब ग्रहण नहीं है और जब केतु विमान सूर्यविमान के एकदम सीधे नीचे आ जाता है तो केतु विमान है कृष्णा वर्ग का, ज्योतिरहित । उसके आगे आने से सूर्य की रोशनी ढक जाती है, यह ही, कहलाता है सूर्यग्रहण । चंद्रविमान के नीचे राहुविमान चलता है, तो जब अलग-अलग चलते तब तो ग्रहण नहीं है और जब राहु चंद्र के नीचे जा जाता है तो राहु का काला नीला वर्ण भी है और ज्योतिरहित है, उसके आड़े आते ही चंद्र की कांति रुक जाती है, वह चंद्र ग्रहण है । तो यह तो एक लौकिक घटना हुई न कि किसी भगवान पर उपद्रव हुआ । जो भगवान है उस पर कभी उपद्रव हो ही नहीं सकता क्योंकि वह तो ज्ञानपुंज है, वीतराग है, सर्वज्ञ है । वहाँ सकट का काम क्या? लेकिन कल्पना करके लोक के किसी भी पदार्थ को पूजना यह सब लोकमूढ़ता है । सम्यग्दृष्टि के लोकमूढ़तारूप आचरण नहीं बनता ।
(22) लौकिक प्रयोजन में सहायक पदार्थों को देव मानने की मूढ़तारहित सम्यक्त्वाचरण―अग्नि को देव मानना और घर कुवां डेहरी आदिक पूजना, ये सब आत्मा की सुध से एकदम अलग रखने वाली चेष्टायें है । घर में रहते हैं, आराम मिलता है इसलिए लोग घर को देव मानने लगते । अग्नि न हो तो भोजन कैसे बने? तो जो केवल जीवन का ध्येय पेट पालन ही मानते हैं उनके लिए तो अग्नि भगवान बन गई, क्योंकि उनकी श्रद्धा है कि यह न हो तो हम मर जायेंगे, पर यह तो एक लोकव्यवस्था है, निमित्तनैमित्तिक योग है, ये सब चलते रहते हैं, पर आत्मा तो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंत आनंदस्वरूप वाला है । उसको तो यह सब संकट है । शरीर धारण करना, जिंदगी से जीना, क्षुधा तुषा आदिक की बाधायें होना, यह सब इस जीव के लिए कलंक है । स्वरूप से तो यह अमूर्त सिद्ध भगवान स्वरूप है, पर इसकी दृष्टि न करके और जो-जो अपने जीवन में सहायक हैं उन उनको भगवान मान लेना यह सम्यग्दृष्टि की वृत्ति नहीं है । वट का वृक्ष होता है बहुत बड़ा कोई-कोई तो एक फर्लांग तक के लंबे चौड़े वट वृक्ष होते हैं । कहो उसके नीचे सेना ठहर जाये, बरसात में अपने को भीगने से बचा लिया जाये, उस वट वृक्ष के नीचे जाड़े के दिनों में ठहर जाये तो गर्म वातावरण रहे और गर्मी के दिनों में ठहर जाये तो ठंडा वातावरण रहे, यों अनेक सुविधाओं के कारण वट वृक्ष को भी लोग देव मानकर पूजते हैं, तो जिस-जिस चीज से इस शरीर का उपकार होता है वे-वे अज्ञानियों की दृष्टि में भगवान हैं ।
(23) लौकिक जीवन के सहायक वस्तु का महत्त्व बढ़ाने की कल्पनारहित ज्ञानी का आचरण―बालक के पालन-पोषण के लिए मां का दूध आवश्यक है और बालक के लिए, जवानों के लिए, बूढ़ों के लिए गाय, भैंस आदि का दूध आवश्यक हे । गाय के दूध में अन्य सबके दूध से अधिक विशेषता यह है कि वह निर्दोष और पुष्ट होता है । तभी तो अनेक प्रकार की बीमारियों में डाक्टर वैद्य लोग गाय का दूध बताते हैं । तो गाय को लोग अनेक देवता का स्थान मानते हैं । गाय एक ही देव नहीं है, किंतु उसमें हजारों देव बसे होते हैं । अब प्रयोजन तो यह था कि दूध पोषक है, उसके बिना जीवन ठीक नहीं चलता इसलिए हमारे देव हमारे भगवान तो सब इसी में हैं, ऐसा अज्ञानी जनों ने माना । मान तो लिया और कह दिया कि गाय में तो करोड़ों देवता रहते है, पर यह नहीं समझा कि कहां रहते, किस जगह रहते । मान लो गाय के सिर की ओर देवता माना और उसकी पूजा करने लगा । अब मार दे वह सींग तब तो फिर पूजा पाठ सब भूल जायेगा, यह विचारकर उन्होंने गाय की पूंछ में देवता माना । बहुत से लोग तो गाय की पूंछ को देवता मानकर उसे नमस्कार करते हैं । इन सब बातों से तो उसमें मिथ्यात्व की पुष्टि होती है । इससे रत्नत्रय को क्या मदद मिली? ज्ञानी पुरुष के ऐसी अटपट वृत्तियां नहीं होतीं । ज्ञानी तो धर्म के धाम की ही पूजा करता है, अज्ञान में इतना खोटा आचरण चल गया कि जहाँ भक्ष्य अभक्ष्य का कुछ भी ख्याल नहीं रखा गया । अनेक लोग तो गाय का मूत्र पीने में धर्म मानते हैं । कैसी बुद्धि है, कहां दृष्टि है? जो-जो चीजें मनुष्य के जीवन में काम आयें उन उनकी यह पूजा करता है ।
(24) जीवन सहायक विविध देवताओं की मान्यता की मूढ़तारहित ज्ञानी का आचरण―दीवाली पर्व या अन्य समारोह में रत्न, घोड़ा, हाथी आदि वाहनों की पूजा की जाती है । जिसके घर में घोड़ा नहीं है तो वह गधा की पूजा कर लेता । तो जो काम में वाहन आया जिसको यह जाना कि यह उपकारी है, इसके बिना जिंदगी नहीं बनती उनकी दृष्टि में वह देवता बन जाता है । पर ज्ञानी पुरुष जिसने अपने अविकार ज्ञानस्वभाव का अनुभव किया है और उससे अलौकिक आनंद पाया है तो स्वरूप दृष्टि से जिसको सब निर्णय है कि मैं केवलज्ञान स्वरूप में रत रहूंगा । अनंत काल रह लूंगा, इन विकल्प तरंगों की प्रवृत्ति बिना ही अनंत काल धर्मास्तिकाय आदिक द्रव्यों की तरह मेरा रहना चलता रहेगा । ऐसी जिसकी श्रद्धा है वह धर्मधाम को छोड़कर अन्य किसी से भी प्रीति नहीं रखता । कितने ही पुरुष पृथ्वी की पूजा करते, वृक्ष, शस्त्र पर्वत आदिक की पूजा करते हैं । नदी समुद्र आदिक को तीर्थ मान कर स्नान करते हैं । कितने ही लोग तो पर्वत से गिरकर मरकर ऐसा मानते हैं कि मुझे बैकुंठ मिल जायेगा । कभी अग्नि में भी प्रवेश कर बैठते हैं, तो ये सब अटपट आचरण होते हैं एक सन्मार्ग अंतस्तत्व का बोध न होने से । सम्यग्दृष्टि पुरुष इन सब विपरीत आचरणों से अलग ही रहता है और वह तो दर्शन ज्ञान चारित्र का विनय करता है, तप का विनय करता है और इन चारों के आराधकों की विनय करता है । सम्यक्त्वाचरण में सम्यक्त्वपोषक, चारित्रपोषक आचरण हुआ करता है, जहाँ धर्म का स्थान ऐसे कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और इनके मानने वाले पुरुषों में ज्ञानी पुरुष की रुचि नहीं होती । ज्ञानी तो देव, शास्त्र, गुरु और इनकी आराधना के प्रति ही विनय सेवाभक्ति आदिक का आचरण करता है ।
(25) ज्ञानी का मदरहित धर्मविनम्र आचरण―ज्ञानी पुरुष ने अपने आपके अनंत वैभव का परिचय किया है । वह अनंत वैभव अपने स्वभाव में है ओर उस स्वभाव का अनुभव करके अलौकिक आनंद पाया है । अब उसका विनयभाव धर्म और धर्म के धारकों के प्रति ही रहता है और उससे ही अपना महत्त्व जानता है । अज्ञानी पुरुषों की भांति जाति मद वगैरह ज्ञानी के नहीं होते, क्योंकि जिसने अपने अलौकिक वैभव को नहीं जाना और लोक व्यवहार में रूढ़ पुरुषों की भांति जाति, कुल, देह प्रतिष्ठा ज्ञानरूप बल आदिक पाये हैं तो उनमें यह विकल्प मानता है । केवल देह दृष्टि है अज्ञानी के उस देह के नाते ही इन सब समागमों में भी घमंड रहा करता है, यह तो कर्मोदयाधीन है, विनश्वर है, मेरा स्वरूप नहीं है । यह तथ्य अज्ञानी को नहीं विदित है । वह तो जो समागम पाया उसे ही अपना सर्वस्व मानकर उससे ही अपने को महत्त्वशाली मानकर गर्व करता है और अन्य पुरुषों को तुच्छ गिनता है । पर ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानस्वभाव के वैभव को महत्त्व देता है । और समस्त परभावों मे उस ही स्वभाव को निरखता है और ऐसी महानता सब जीवों में समझता है और यही कारण है कि ज्ञानी जीव सब जीवों के प्रति नम्र रहता है । वह किसी भी जीव का अनादर नहीं चाहता । धर्म के लिए और शांति होने के लिए जीवन में एक यह नियम होना चाहिए कि मेरे द्वारा किसी जीव का अनादर न हो । इससे वह इस लोक में भी सुखी रहेगा और उसे धर्म का मार्ग भी मिलेगा । तो ज्ञानी जीव के सब जीवों के प्रति ज्ञानस्वभाव की महिमा जानकर नस और वात्सल्यपूर्ण वृत्ति हुआ करती है ।