वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1012
From जैनकोष
विघ्नबीजं विपन्मूलमन्यापेक्षं भयास्पदम्।
करणग्राह्यमेतद्धि यदक्षार्थोत्थिंतं सुखम्।।1012।।
इंद्रियजसुख की विघ्नबीजता, विपन्मूलता व भयास्पदता― जो इंद्रियविषयों से उत्पन्न हुआ सुख है वह विघ्नों का बीज है। इंद्रिय सुख चाहने वाले भोगने वाले पुरुषों के जीवन में कितने विघ्न आते हैं, स्वयं की आसक्ति से स्वयं विघ्न रूप बनाते हैं और चूँकि परिणाम उसका इस दुर्वासना का है तो बाह्यपदार्थों के संयोग वियोग इसको विघ्नरूप मालूम होते हैं और परकृत उपद्रव भी होते हैं। इस तरह इंद्रियसुख के प्रसंग में अनेक-अनेक बाधायें खड़ी हो जाती हैं। पुराणों में अनेक कषायें ऐसी मिलती हैं कि इन इंद्रियसुखों के पीछे स्त्री ने पति को मरवा दिया। बेटे ने बाप को मरवा दिया, भाई ने भाई को मरवा दिया। इन इंद्रियसुखों के पीछे कितनी-कितनी विडंबनायें भरी घटनायें बन जाती हैं, वे सब इंद्रियसुख के लोभ में उत्पन्न होती हैं। वे सब इंद्रियसुख के लोभ में उत्पन्न होती हैं। यह इंद्रियसुख विपत्तियों का मूल कारण है, विपत्ति का मूल वह यों है कि इंद्रियसुख तो स्वयं विपत्ति है और उस विपत्ति के अंधकारमय भाव में जो इसकी प्रवृत्ति बनेगी वह भी विपत्तियों का मूल है। गुरुजी एक घटना सुनाया करते थे कि कोई एक सिपाही किसी वेश्या का प्रेमी था। उस वेश्या के प्रेम में आकर अपना सारा धन खो दिया, लोगों में अपनी इज्जत खो दिया, सब कुछ खो देने के बाद अब वह वेश्या उससे क्यों प्रेम करेगी? तो वह वेश्या अब उसे अपने घर में न आने दे। तो वह सिपाही उस वेश्या के घर के सामने जो मैदान था वहाँखडा रहे, उसकी ड्यूटी तो खतम हो गई होगी। अब उससे लोग पूछे― क्यों भाई तुम यहाँक्यों खड़े रहा करते हो? तो उसने बताया कि देखो मुझे इस सामने के मकान में रहने वाली वेश्या से प्रीति है। उसके पीछे मैंने अपना सब कुछ उड़ा दिया, अब यह मुझे अपने घर नहीं आने देती, तो मैं यहाँ इसलिए खड़ा रहता हूँ कि वह कहीं छत पर खड़ी हुई अथवा दरवाजे से आते जाते दिख जाय। तो देखिये इन इंद्रियसुखों के पीछे कितनी-कितनी विडंबनायें बन जाती हैं। और, भी देखिये यह इंद्रियसुख पराधीन है और भय का स्थान है। इंद्रियसुख कर्मों के आधीन है, जिनसे प्रीति है, उन जीवों के आधीन है और अपने शरीर बल आदिक के आधीन है, कितना पराधीन हैं? इसमें कितनी ही बातें जुड़ जायें तब उसे इंद्रियसुख का लाभ मिलता है। और इतने पर भी निरंतर उसमें भय बना हुआ है। और, भय तो एक ही है मान लो जीवन में अधिकार है सरकार की ओरसे भी, लोगों की ओर से भी अधिकार दिया हुआ है। हमारा घर है, हमारी स्त्री है, हमारा पुत्र है, खूब रमो, खूब भोगो, फिर भी एक भय तो यह उसमें लगा है कि न जाने कब वियोग हो जाय। इस भव को कौन मिटाये? और, फिर अन्यकृत भी अनेक भय हैं तो यह इंद्रियजंयसुख तो भयों का स्थान है।
इंद्रियजसुख की करणाधीनता व करणग्राह्यता होने से अतिविषमरूपता―यह इंद्रियजंय सुख इंद्रियाधीन है, इंद्रिय के द्वारा ग्रहण में आता है। ये द्रवेंद्रिय बिगड़ जायें तो यह सुख न मिल पायगा, भोग नहीं सकते। और, मन में इच्छा है भोगने को, तो उसका कितना दु:ख मान रहे हैं, जैसे खाने का लोभी पुरुष किसी चीज को खा नहीं सकता बीमार होने से या किसी कारण से और तृष्णा है तो वह तो ऐसा दु:खी होता जैसे कि नपुंसक वेद की कषाय बताया है कि वह भोग नहीं सकता मगर अंदर में वह बड़ा दु:खी रहता है। ऐसे ही वृद्ध हो गए, शरीर क्षीण हो गया, इंद्रियाँ विषय भोग नहीं सकती, लेकिन उसके क्लेश इतना अधिक लगा है कि तृष्णा करके रात-दिन दु:खी रहता है। यदि इंद्रियाँबिगड़ जायें तो वे विषय भोगने में नहीं आते, कैसी पराधीनता है, और नहीं भोगने में आता, तृष्णा बनी हुई है तो अंदर में दाह उत्पन्न रहती है। मूल निर्णय यह बनायें कि न मुझे इंद्रियजंय ज्ञान चाहिए न इंद्रियजंय सुख चाहिए। इंद्रियजंय ज्ञान का भी अगर लगाव रखा विश्वास में, प्रतीति में कि यह ठीक है, तो हम स्वच्छंद हो जायेंगे सो वह इंद्रिय सुख के लिए भी लालायित कर देगा। न हमें इंद्रियज ज्ञान चाहिए न इंद्रिय सुख, हाँ थोड़ा सा कुछ अंतर यह हो सकता है कि इंद्रियजंय सुख तो हमें चाहिए नहीं, पर इंद्रियजंय ज्ञान चूँकि हम फंसे हुए हैं अनेक बंधनों में, इनसे निवृत्त होना है, जल्दी कैसे निवृत्त हों तो हमें प्रभु दर्शन करना चाहिए, स्वाध्याय करना चाहिए, किसी के वचन भी सुनना है, तो यह इंद्रियज्ञान उपयोगी है। मगर जिसको स्वभाव की प्रतीति है और आत्मनिधि का जिसे विश्वास है वह तो इस इंद्रियजंय ज्ञान को भी नहीं चाहता। यह भी न रहे तो अतुल ज्ञान प्रकट होगा। घाटे में न रहेंगे, मगर जब अनेक बाधायें आ रही हैं विषय संबंधी, तब तक हम इंद्रियज्ञान का इस तरह का उपयोग बनायें कि हम उस गलत मार्ग से मुढ़ सकें और अच्छे मार्ग में आ सकें।