वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1014
From जैनकोष
निसर्गचपलैश्चित्रैर्विषयैर्वंचितं जगत्।
प्रत्याशा निर्दयेष्वेषु कीदृशी पुण्यकर्मणाम्।।1014।।
निसर्गचपल चित्र विषयों के द्वारा सर्व प्राणियों की ठगाई― ये नाना प्रकार के सुख स्वभाव से ही चंचल है। इन्होंने जगत को ठगा, ये समझ लो कि ये बड़े ठग हैं, निर्दय हैं, आत्मा को बरबाद करने वाले हैं, धूल में मिला देने वाले, तुच्छ कर देने वाले हैं। ये पांचों इंद्रिय के विषय और मन का विषय ये इस जीव को बरबाद करने वाले हैं, ऐसी बात जिसने समझ लिया है वह भला पुरुष इन विषयों के पीछे नहीं लगता। याने पुण्योदय से जो वैभव प्राप्त है उसकी भी वांछा यह विवेकी पुरुष नहीं करता। उसकी यह चाह नहीं रहती कि ऐसा ही वैभव मुझे परलोक में भी प्राप्त हो। ये इंद्रियसुख भोगने का उनका परिणाम नहीं रहता। कोई एक सेठानी थी। इंदौर की बात है। वह सेठानी बहुत उपवास किया करती थी। एक दिन मैंने (प्रवक्ता ने) पूछा कि तुम इतने अधिक उपवास क्यों करती हो? इससे तो तुम्हारे शरीर में कमजोरी आती, धर्मध्यान में भी बाधा आती..., तो उसने कहा कि में छोटी उम्र में ही विधवा हो गई थी। सो मैं अपना जीवन अच्छे आचार से बिता लूँ, इसलिए उपवास करके शरीर को क्षीण करना ठीक समझा और दूसरा कारण यह है कि हमें सब प्रकार के सुख मिले हुए हैं, मिलने पर अगर हम छोड़ें तब तो हमारा त्याग हैओर जो चीज है ही नहीं उसका हमने त्याग कर दिया तो वह कैसा त्याग? तो पुण्योदय से प्राप्त हुई चीज को त्यागें, उसकी इच्छा न करें, ऐसी वृत्ति होती है भले पुरुषों की।
विषम विषयविष में लोकों की प्राप्ति होने का विस्मय― एक कथानक आया हे कि कोर्इ एक भंगिन मल का टोकना लिए हुए जा रही थी। किसी भले पुरुष ने देखा तो सोचा कि इससे तो हमारे जैसे बहुत से लोगों को कष्ट होगा, इससे एक बहुत ही साफ सुंदर स्वच्छ तौलिया भंगिन को दिया और मल के टोकने को ढांककर ले जाने को कहा। वह भंगिन मल का टोकना लिए जा रही थी। रास्ते में उसके पीछे तीन आदमी लग गए। आगे जाकर भंगिन ने पूछा कि भाई तुम लोग पीछे क्यों लगे हो? तो वे तीनों बोले कि हम लोग देखना चाहते हैं कि तुम इस टोकने में क्या लिए जा रही हो। तो वह भंगिन बोली― इस टोकने में मल है। इतनी बात को सुनकर उनमें से एक व्यक्ति वापिस लौट गया। दो व्यक्ति अभी भी पीछे लगे रहे। फिर भंगिन ने पूछा― भाई तुम लोग क्यों पीछे लगे हो? हम तो देखना चाहते हैं कि तुम्हारे टोकने में क्या है?...अरे कह तो दिया कि इसमें मल है। हम यों न मानेंगे, हमें तो खोलकर दिखा दो। खोलकर दिखाया तो उनमें से एक व्यक्ति और लौट गया। एक व्यक्ति अभी भी पीछे लगा रहा। भंगिन ने कहा―भाई तुम क्यों पीछे लगे हो? तो उस व्यक्ति ने कहा कि हम यों न मानेंगे, हमें तो खूब अच्छी तरह से सूँघसाँघकर परीक्षा कर लेने दो, परीक्षा ही करके हम वापिस लौटेंगे। जब भंगिन ने तौलिया उघाड़ा , खूब सूँघसाँघकर अच्छी तरह से परीक्षा कर लिया तब वह वापिस लौटा। तो ठीक ऐसे ही इन इंद्रियसुखों की बात है। ये वैषयिक सुख बड़े रम्य प्रतीत होते हैं, पर ये इस जीव की बरबादी के कारण हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष इन्हें छोड़ देते हैं। एक तो ऐसे ज्ञानी विवेकी पुरुष होते हैं कि जो कि आचार्यजनों के उपदेश को पाकर बिना उनमें पड़े ही छोड़ देते हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि तो उनमें थोड़ापड़कर, उन्हें दु:खदायी समझकर छोड देते हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो इन विषयों में ही रमकर, उनमें ही रच पचकर, उनसे खूब परेशान होकर छोड़ते हैं। यह छोड़नाभी क्याछोड़ना, वे तो छूट ही जाते हैं।छोड़ना तो पड़ेगा ही। ये इंद्रियसुख ठग हैं, निर्दय हैं, ऐसा जानकर भले पुरुष इनकी वांछा नहीं करते। मूल बात एक और है कि यह सुख जहाँ से उत्पन्न होता उसका अगर ज्ञान न हो तो वे विषयसुख छोड़ना मुश्किल होता है। तो अपना एक यह ही प्रयत्न करें कि इन इंद्रिय सुखों से (वैषयिक सुखों से) बढ़कर जो अपना स्वाधीन आत्मीय सुख है उसका अनुभवन करें। उसका अनुभवन करने के लिए भेदविज्ञान बढ़ावें, तत्त्वज्ञान को अपने चित्त में अधिक बसावें, तो इससे उत्पन्न वास्तविक आनंद की अनुभूति में ये वैषयिक सुख अपने आप आसानी से टल जायेंगे।