वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1015
From जैनकोष
बर्द्धते गृद्धिरश्रांतं संतोषश्चापसर्पति।
विवेको विलयं याति विषयैर्वंचितात्मनाम्।।1015।।
विषयों से लुटे हुए पुरुषों के गृद्धिवर्धन, संतोषापसरण व विवेकविलय की विडंबना― जिनका आत्मा विषयों से थक गया हे याने विषयों में मग्न हो गया है उनके विशेष इच्छा बढ़ती है, यह तो बात हे ही और संतोष नष्ट होता है यह भी बात है, लेकिन साथ ही विवेक भी नष्ट हो जाता है। विवेक के नष्ट होने की कितनी बड़ी विपत्ति है, इसका अंदाज कर लो उन लोगों को देखकर जिनका दिमाग चलित है, जिनका दिमाग काम नहीं करता। हल्के दिमाग वाला कहो, कुछ लोग ऐसे भी पाये जाते कि जिनके पास लाखों की संपदा है मगर दिमाग उनका नष्ट है, काम नहीं करता, तो प्रबंध तो इस तरह का किया जाता कि कोई चाहे उस सारी संपत्ति का सम्हालने वाला मुनीम हो, या ट्रस्ट हो या सरकार हो, बस उस व्यक्ति को सिर्फ खाने रहने भर की सुविधा दे दी गई। जो जिनका दिमाग विवेकहीन है उनके दु:ख की कौन कहे? वे विवेकहीन व्यक्ति कैसी विपत्ति में पड़े हुए हैं, और कोर्इ विषयेच्छा बढ़ती है, तृष्णा में उपयोग फंसा है तो उस समय वह विवेकहीन हो जाता है। वह दया का पात्र है। तो इन विषयों ने इस जीव को ठग लिया है। और, देखो तो यह अंत: प्रकाशमान परमात्मा प्रभु है, एक पवित्र ज्ञानस्वभावरूप है, लेकिन हो क्या रहा है अनादि से अब तक? यही हो रहा, विषयों की आशा। चार प्रकार की संज्ञायें हैं, उनके ज्वरों से पीड़ित होता हुआ यह जीव अनादि से अब तक भटक रहा है। चित्त में इन विषयों के प्रति ऐसी दृष्टि होनी चाहिए कि ये महा ठग हैं, मेरे को बरबाद करने वाले हैं। जैसे कोई मीठा ठग होता है तो उसकी बातों में आकर लोग ठग जाते हैं बुरी तरह से, ऐसे ही ये मीठे ठग हैं। इनकी बातों में न आयें, याने विषयों की ओरहमारे मन की प्रवृत्ति न जाय, इसके लिए करना यह आवश्यक है― क्या? सत्संग और स्वाध्याय। ये दो बड़े रक्षा के साधन हैं।जो लोग, सत्संग और स्वाध्याय से उपेक्षा करते हैं उनको बहुत संक्लेश होता है। सत्संग और स्वाध्याय इनकी विशेषता रखते हुए, तत्त्वज्ञान में रुचि रखते हुए इन विषयों से अधिक दूर रहें, इसमें हमारी रक्षा है।