वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1026
From जैनकोष
यद्यपि दुर्गतिबीजं तृष्णासंतापपापसंकलितम्।
तदपि न सुखसंप्राप्यं विषयसुखं वांछितं नृणाम्।।1026।।
दुर्गतिबीज विषयसुख की असुखसंप्राप्यता―अभी तक बहुत सा वर्णन यह आया है कि यह विषयों से उत्पन्न हुआ सुख दुर्गति का बीज है। याने विषयसुख भोगेंगे, इनसे प्रीति रखेंगे, आसक्ति करेंगे तो ये दुर्गति के कारण हैं। और यह भी बताया है कि ये विषयसुख तृष्णा संताप आदिक से सहित हैं। जिस समय भोगा उस समय भी क्लेश है और भोगने पर आगे भी क्लेश है। पाप का बंध है और पराधीन है। इतनी बातें तो खूब कही मगर जरा एक बात और भी तो देखो―यह सुख बिना कष्ट के व इच्छानुसार प्राप्त होता भी तो नहीं है। याने इस सुख के उपार्जन में भी तो बड़ा कष्ट होता है और फिर भी इच्छानुसार इंद्रियसुख का प्राप्त होना कठिन है। यह तो बात मोटे रूप से कह रहे हैं और सूक्ष्मरूप से अगर देखें तो इच्छा के अनुसार प्राप्ति किसी को हो ही नहीं सकती, सुख हो ही नहीं सकता। जिस समय इच्छा कर रहे हों उस समय विषयों की प्राप्ति हो यह किसी को भी संभव नहीं। आप सोचेंगे कि चक्रवर्ती को भी संभव नहीं है क्या? तीर्थंकर महाराज जब गृहस्थी में रह रहे तो क्या उनको भी संभव नहीं कि जिस समय वह इच्छा करें उसी समय विषय की प्राप्ति हो। हाँ उनके भी संभव नहीं। यह सिद्धांत की बात कही जा रही है। परिणति एक समय में एक होती है। इच्छा की परिणति इच्छा कहलाती है और विषय पाने की परिणति भोग कहलाती है। जिस काम में इच्छा है, जिस वस्तु की इच्छा है उस वस्तुविषयक भोग कहाँ है? वह तो बाद में आयगा। और जब बाद में आयगा, उस समय में तद्विषयक इच्छा कहाँ है? तो बतलाओ इच्छा का मौज कौन लूट सका? कोई नहीं लूट सका। इच्छा के काल में तो क्लेश ही है। जैसी किसी पुरुष की ऐसी जिंदगी जो कि पहिले तो रही गरीबी, चने खाने का भी ठिकाना न था। तो उस समय उसे चने चबाने को न मिलते थे जिससे बड़ा क्लेश था, और अब वह हो गया समर्थ, सब प्रकार से संपन्नता है, पर वृद्ध हो जाने से दाँत नहीं रहे तो अब वह दाँत न होने से चने नहीं चबा सकता, तो उसका वह क्लेश मानता है। जब दाँत थे तब चने न मिले और अब जब चने मिले तब दाँत न रहे। ऐसे ही समझ लो कि जब इच्छा है तब भोग साधन नहीं है, और जब भोगसाधन हुए तब उनके भोगने की इच्छा नहीं रही। यह इच्छा तो व्यर्थ की चीज है सो सबको सता रही है। तो यह इंद्रियसुख बिना कष्ट के नहीं प्राप्त होता। और ऐब हैं सो हैं ही। तब फिर इन इंद्रिय सुखों के पीछे क्यों कष्ट सहो।