वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1044
From जैनकोष
शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव कीर्तित:।
अणिमादिगुणानर्ध्यरत्नवार्धिर्बुधैर्मत:।।1044।।
आत्यंतिकस्वभावोत्थानंतज्ञानसुख: पुसान्।
परमात्मा विप: कंतुरहो माहात्म्यमात्मन:।।1045।।
आत्मा की शिवरूपता, गरुड़रूपता व कामरूपता―आत्मकल्याण के प्रसंग में कुछ लोगों ने ध्यान के लिए तीन तत्त्व माने हैं शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व और कामतत्त्व। और, वे इन तीन तत्त्वों के ध्यान से शिवस्वरूप कल्याण रूप की प्राप्ति मानते हैं लेकिन अपने आपसे बाहर कहीं भी किसी स्थल पर किसी भी कल्पना से शिवतत्त्व को अथवा गरुड़तत्त्व को मानकर जो ध्यान किया जायगा, प्रथम तो भिन्न स्थल पर उसकी दृष्टि की गई है इस कारण वह ध्यान न बनेगा जो ध्यान निर्विकल्प स्वरूप कहलाये, और फिर दूसरे इस तत्त्व को आत्मस्वरूप से विभिन्न रूप में निरखा जाय तो भी अपने आपकी सम्हाल और मग्नता न बन सकेगी। यदि इन तत्त्वों के रूप में भी ध्यान करना हो तो इतना स्मरण रखना चाहिए कि यह तत्त्व भी आत्मा के स्वरूप हैं, रूप है अथवा आत्मा की स्थितियाँहैं, दशाएँहैं। यह आत्मा अणिमा आदिक अनेक अमूल्य गुणरत्नों का पिटारा है। कुछ प्रकट हो गया जैसा कि इन तीन तत्त्वों का स्वरूप कहेंगे, उनमें यह निरखते जाइये कि हो क्या गया यह? शिव तत्त्व, वह है क्या? परमात्मस्वरूप, आत्मा का है रूप। गरुड़मायने जो गरुड़ का शृंगार सर्प आदिक ये सब हैं क्या? ये आत्मा की स्थितियाँहैं। काम तत्त्व मायने जो अपना एकमन्मथ विकार है, उसके स्वरूप का विश्लेषण करके उसे महत्त्व दिया जाय तो वह भी हे क्या? एक आत्मा की अवस्था। तो उन सब तत्त्वों को आत्मा की अवस्था जानें। कोई अवस्था है विशुद्ध पवित्र, कोई अवस्था है लोक जैसी और कोई अवस्था है निंद्य हेय, उन अवस्थाओं को आत्मा की परिस्थिति समझें, ये तीन तत्त्व अन्य और कुछ नहीं हैं। जो हम पर अधिकार जमाये या हमारा जन्ममरण करे या हमें सुखी दु:खी बनाये वह सब हमारी स्थिति है, उनमें से यदि हम आत्मा को विशुद्ध शिवतत्त्व के रूप से ध्याये अर्थात् यह आत्मा स्वयं सहज स्वभाव से शिवस्वरूप है, कल्याणरूप है, निराकुल है, ज्ञान का शुद्ध फैलाव हो और आकुलता का लेश भी न हो यही तो कल्याणमयी स्थिति है। ऐसा कल्याणस्वरूप मैं आत्मा हूँ। इस प्रकार का ध्यान करें। एक इसका ध्यान करने पर फिर जो कुछ भी व्रत नियम आदिक आचरण करने होंगे वे सब मूल्य रखेंगे और एक आत्मा का ध्यान छोड़कर यदि धर्म के नाम पर कितनी भी क्रियायें कर ली जायें, पर उससे धार्मिक परिणमन न हो सकेगा। धर्म करना है कहीं भी कर लो। धर्म का उपादेय यह स्वयं साक्षात् आत्मा है और जिन किन्हीं भी साधु संत पुरुषों का ध्यान करके आत्मा कल्याण प्राप्त करेगा, जिन देवताओं परमेष्ठियों का ध्यान करके आत्मा मोक्षमार्गी बनेगा वह सब भी मेरे आत्मा में उपस्थित है। ज्ञान कर लें, जब चाहे अरहंत का ध्यान कर लें, किसी भी जगह हो, घर में हो, दूकान आदि में, रास्ते में कहीं बैठे हों तब ही यह आत्मा उपादान अपने आपमें परमेष्ठी का आत्मस्वरूप का ध्यान कर सकता है, जो चाहे कर सकता है। धर्मपालन के लिए कहीं भी अटक नहीं है। किसी भी पर की आधीनता नहीं है। ज्ञान विशुद्ध चाहिए, जहाँचाहे धर्म कर लें।
ध्यान में आत्मा की स्थितियाँ― भैया ! साथ ही साथ यह समझ लीजिये कि विशुद्धात्मा का जब ध्यान नहीं कर पाते हैं, कुछ परिस्थितियाँ ऐसी आड़े आती हैं, कुछ संपर्क ऐसा बना हुआ है जिसके कारण चित्त डवाडोल हो जाया करता है, विषय और कषायों की परिणति हो जाया करती है। उस समय हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि हम ऐसे सत्संग में पहुँचें, मंदिर में गुरुवों के समीप प्रभुमूर्ति के समक्ष, जहाँ पहुँचकर हम उस गंदे वातावरण को त्याग सकें, उन निमित्तों से हट जायें और कुछ आत्महित के चिंतन में लग जायें। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया है यह धर्मव्यवहार, इतने पर भी अर्थात् मंदिर में आकर भी, गुरुवों के संग में स्थित होकर भी करना पड़ता है खुद में ही परिणमन। खुद के ही पुरुषार्थ से, खुद की ही दृष्टि से बनती हैयह बात। कहीं गुरु न कर देगा किसी भक्त का हित परिणमन। कहीं मंदिर और मूर्ति न कर देंगे किसी धर्मार्थी का धर्मपरिणमन। यह तो एक प्रसंग है, निमित्त है। हम इस निमित्त में आकर सदुपयोग करना चाहें तो कर लें, करना पड़ेगा खुद को ही। प्रमाद से काम न चलेगा। यह समय बीत गया, जवानी बीत गयी, रहा सहा शेष समय भी यों फूँक में उड जायगा। यहाँ फिर स्थान न रहेगा, यहाँ कुछ देखने को न रहेगा। इन बाहरी पदार्थों की ममता में न आयें तो यह हमारे लिए कल्याण की बात होगी। अन्यथा जैसे अनंतकाल गुजार दिया भटक-भटक कर, उस ही सिलसिले में यह समय भी शामिल हो जायगा। जगत के सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ निज अंतस्तत्त्व को मानें। अन्य सब चीजें तो बाह्य हैं। जगत के सर्व बाह्य पदार्थों को और अपने आपको अपनी दृष्टि में रखकर मुकाबला करके निर्णय करें कि तीन लोक की सारी संपदा, तीन लोक के समस्त जीव, एक अपने अंतस्तत्त्व को छोड़कर शेष समस्त सब कुछ परभाव, परद्रव्य उनके मुकाबले में यह मेरा अंत: स्वरूप ही श्रेष्ठ है। बजाय दूसरों को प्रसन्न करने के खुद इस आत्मस्वरूप को प्रसन्न करना चाहिए अर्थात् निर्मल बनाना चाहिए। सारा जगत भी मेरे पर्याय का नाम लेकर हाँ-हाँ, हू-हू कर दे तो उसे लाभ क्या? मेरा आत्मा मेरी दृष्टि में रहे, कल्याणमय शिवस्वरूप शरणभूत सारभूत यह में स्वयं स्वतंत्र हूँ, ऐसी दृष्टि जगती रहे तो वहाँ होगा कल्याण और वह ही हे वास्तविक पुरुषार्थ। जैसे दूसरों का बढ़ा हुआ धन देखकर चित्त में लालसा नहीं रखना है, उस वैभव को मल समझना है, इसी प्रकार दूसरों का यश मान सम्मान निरखकर उसकी लालसा नहीं रखना है किंतु उसे एक मल समझना है, विडंबना समझना है, उसे भी एक मायारूप समझना है। मैं एक अपने आपको प्रसन्न रख सकूँतो मैंने सब कुछ किया। चाहे सारी दुनिया मुझे उल्टा कहो। और, एक मैं अंत: उल्टा ही उल्टा रहा और लोगों ने भला-भला कह डाला तो भी मुझे मिलेगा कुछ नहीं। एक आत्मस्वरूप की सम्हाल में हीहमारी वास्तविक सम्हाल है और इस आध्यात्मिक स्वभाव से उत्पन्न होने वाले अनंत ज्ञानरूप निज तत्त्व की सम्हाल न रहे तो हमारी कोई सम्हाल नहीं हुई। जन्म-मरण के चक्र बंद नहीं हुए ऐसा समझना चाहिए। तो जो लोग शिवतत्त्व, कामतत्त्व, गरुड़तत्त्व का ध्यान करते हैं वे तत्त्व आत्मा की ही स्थितियाँहैं। उनमें यह छाँट लो कि कौनसा तत्त्व पवित्र स्थिति का है उसका ध्यान करना है। इस आत्मध्यान से ही गुण प्रकट होगा और सारी आपत्तियाँदूर होंगी। इस ही परमात्मतत्त्व का स्वरूप, शिवतत्त्व का स्वरूप गद्य द्वारा स्पष्ट किया जाता है―
यथांतर्बहिर्भूतनिजनिजानंदसंदोहसंपाद्यमानद्रव्यादिचतुष्कसकलसामग्रीस्वभावप्रभावात् परिस्फुरितरत्नत्रयातिशयसमुल्लसितस्वशक्तिनिराकृतसकलतदावरणप्रादुर्भूतशुक्लध्यानानलवहुलज्वालाकलापकवलितगहनांतरालादिसकलजीवप्रदेशघनघटितसंसारकारणज्ञानावरणादिद्रव्यभावबंधनविश्लेषस्ततोयुगपत्प्रादुर्भूतानंतचतुष्टयो घनपटलविगमे सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् स खल्वयमात्मैव परमात्मव्यपदेशभाग्भवति।।1046।।
शिवतत्त्व आदि कि ध्यान में आत्मा की स्थितियाँ― कुछ लोगों ने ध्यान के प्रसंग में तीन तत्त्वों का ध्यान बताया है शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व और कामतत्त्व। उसके विषय में यहाँ यह बताया जा रहा हे कि यह सब ध्यान आत्मा की अवस्थाओं का ही है। आत्मा को छोड़कर अन्य किसी तत्त्व का ध्यान नहीं है। उनमें से सर्वप्रथम शिवतत्त्व की बात कह रहे हैं। शिव का अर्थ हे मंगल, कल्याण। जो कल्याणमय पद है, उसका नाम है शिवतत्त्व। कल्याणमयपद परमात्म पद है। वह परमात्मतत्त्व अन्य कुछ नहीं है। केवल यह आत्मा जो संसार में विकृत बन रहा है, विकारभाव को त्यागकर केवल अपने सहज स्वरूप मात्र रह जाय उस ही को परमात्मतत्त्व कहते हैं। जब यह आत्मा समस्त परपदार्थों से और परभावों से हटकर केवल निजस्वरूपमात्र रह जाता है तब इसमें क्या चमत्कार प्रकट होता है उसकी बात कही जा रही है। जैसे सूर्य के नीचे मेघपटल आ गए हों तो सूर्य आच्छादित हो जाता है सूर्य का प्रताप और प्रकाश ये दोनों दब जाते हैं और जब मेघपटल दूर हुए तो सूर्य का प्रताप और प्रकाश एकदम प्रकट हो जाते हैं इस ही प्रकार ये रागद्वेष आत्मा के आड़े आ गए हैं जिससे इस आत्मा का प्रताप और प्रकाश आच्छादित हो गया है, पूर्ण विकसित नहीं हो पा रहा है। आत्मा का प्रकाश है ज्ञान और प्रताप है अनंत आनंद। जिस समय द्रव्यकर्म और भावकर्म का बंधन विघटित होता है तब आत्मा में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद और अनंत शक्ति प्रकट हो जाती है।
जीवपरिणमन व कर्मदशा में निमित्तनैमित्तिकभाव का दिग्दर्शन― ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि जीव के साथ कर्मबंधन बना हो तो यह जीव अपने प्रताप और प्रकाश से वंचित होकर साधारण प्रताप और साधारण प्रकाश में रह जाता है। जब यह जीव विषयों से सुख मानता है, अन्य-अन्य उपायों से अपना ज्ञान प्रकट हुआ मानता है तब इसकी दयनीय स्थिति हो जाती है। पर मोह का उदय है तो यह जीव ऐसी ही स्थिति में राजी रहता है और इस परिस्थिति में भी दूसरे के पास कम धन देखकर अपने को बड़ा अनुभव करता है, यों अनेक दुर्भावनाएँ इस आत्मा में प्रकट होती हैं। इन दुर्भावनाओं की संतति से जन्म-मरण की परंपरा चलती है। बस यही जन्म-मरण का चक्र इस जीव के साथ लगा है। यह सब कर्मों के निमित्त से हो रहा है। यद्यपि होता है सर्व द्रव्यों का अपने आपमें ही परिणमन। पर, ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि क्रोध प्रकृति का उदय हो तो यह आत्मा अन्य पदार्थों को विषयभूत बनाकर क्रोध करने लगता है। ऐसे ये कर्म 8 हैं―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं, आत्मा के गुणों का घात करने वाले हैं। और, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कर्म अघातिया हैं। अर्थात् घातने वाले घातिया कर्मों के फल मिलने में यह मदद करता है। यह ऐसे साधनों का कारण बनता है जिन साधनों से क्लेश उत्पन्न होता है। ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञान गुण का घात करता। आत्मा ज्ञायकस्वरूप है, स्वयं ही ज्ञानस्वभावी है। इसमें ऐसी अतुल महिमा हे अपने आपकी ओर से अपने सत्त्व के कारण कि यह सारे विश्व का ज्ञान कर ले, पर ज्ञान की ऐसी शक्ति रुकी हुई है इस ज्ञानावरणनामकर्म के उदय का निमित्त पाकर। यह स्थिति यहाँ भी अंदाज में आ सकती है। कोई पुरुष कम ज्ञानी है कोई अधिक ज्ञानी है इस प्रकार ज्ञान के जो अनेक तारतम्य यहाँ पाये जाते हैंउनका कारण तो कुछ होना चाहिए। आत्मा तो ज्ञानस्वरूप है अतएव वह तो ज्ञान के विकास में अधिकाधिक प्रकट होने के लिए स्वभावत: ही है पर ज्ञान का जो आवरण पड़ा है उसके निमित्त से यह जीव आत्मदर्शन नहीं कर पाता है। यह मैं आत्मा क्या हूँ अथवा वस्तु का सामान्य स्वरूप क्या है वह सब इसकी दृष्टि में नहीं है। जैसे कोई पहरेदार किसी दर्शनार्थी को राजा या अन्य किसी का दर्शन करने से रोक दे इसी प्रकार यह दर्शनावरण कर्म ऐसा निमित्त है कि आत्मा का दर्शन गुण नहीं होने देता। मोहनीय कर्म तो समस्त कर्मों का राजा है, शेष 7 कर्म एक मोहनीय कर्म के प्रभाव के इशारे पर नाच रहे हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद है― एक श्रद्धा को बिगाड़ देने वाला मोह, दूसरा चारित्र को बिगाड़ने वाले मोह का नाम है चारित्र मोहनीय।श्रद्धा को बिगाड़देने वाला मोह का नाम हैं दर्शन मोहनीय और चारित्र को बिगाड़ने वाले मोह का नाम है चारित्र मोहनीय।दर्शन मोहनीय के उदय में यह आत्मा पदार्थ का सत्य श्रद्धान नहीं कर पाता। जगत में किसका कौन है? कोई किसी का कुछ हो ही नहीं सकता। प्रत्येक पदार्थ अपने आपका स्वामी है। कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। खेद और क्लेश तो यही है कि किसी भी बाह्य पदार्थ से न कुछ लेन हैन देन है, प्रत्येक जीव अपने आपके ही अधिकारी है, अपने आपमें ही परिणमते हैं, किसी का कोई लगता ही नहीं है, प्रत्येक जीव मुझसे अत्यंत न्यारे हैं, किसी भी जीव की किसी भी करतूत से शांति न मिलेगी अत्यंत न्यारापन है प्रत्येक पदार्थ का परस्पर में। लेकिन दर्शन मोहनीय की भूल ऐसी पड़ी हुई है कि यह बाह्य पदार्थ को अंतरंग मान रहा है। यह अज्ञान इस जीव को दु:खी करने का कारण है। धर्म के लिए क्या करना है? मूल में यह करना है कि यह अज्ञान मिटे। यह अज्ञान न मिटा सके तो धर्म के नाम पर भी कुछ किया जाय, पर उससे लाभ न होगा।
धर्मपालन व उसकी स्वाधीनता― सबसे न्यारा अपने आपको में मान सकूँ ऐसी दृष्टि दृढ़ता से बन जाय तो धर्मपालन है। यही संसार में सर्वोत्कृष्ट कार्य है। यह धर्मपालन अत्यंत स्वाधीन है, किसी दूसरे की आधीनता नहीं है। कोई कहता हो कि मैं पिता के आधीन हूँ, पति के आधीन हूँ, पत्नी के आधीन हूँ, भाई के आधीन हूँ, ये लोग जैसा चाहे नचायें, जैसा मुझसे करायें करना पड़ता है, बड़ी विवशता है, ये सब व्यावहारिक बातें हैं।ये व्यावहारिक व्यवस्थाएँ हमने स्वयं स्नेहवश खरीदी है तिस पर भी धर्मपालन में तो कोई भी जीव रुकावट नहीं डाल सकता। कोई उसका इतना भी नियंत्रण कर दे कि तुम मंदिर नहीं जा सकते। नहीं जा सकते तो न सही। जो मंदिर न मानने वाले धर्म हैं वे प्राय: ऐसी हटवादिता करते भी हैं, अथवा कोई मनचला भी ऐसी हठ करे तो करे― भाई मंदिर न जा सकते तो न सही, पर परिणाम तो है, मंदिर जाने का। नियंत्रण है व्यवहार में, धर्मपालन पर नियंत्रण नहीं हो सकता। धर्मपालन हे भेदविज्ञान। समस्त परपदार्थों से न्यारे अपने आत्मतत्त्व को दृष्टि में लेते रहना, ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व में उपयोगी रहना, इसके निकट बसना यह तो किसी के द्वारा बिगाड़ा नहीं जा सकता। खुद ही शिथिल हो जाय, खुद का भी भाव गिर जाय और खुद धर्मपालन न कर सके तो यह खुद की भूल है। किसी दूसरे के नियंत्रण से हमारा धर्मपालन भंग नहीं हो सकता। इसी प्रकार शरीर की अस्वस्थता का नियंत्रण हो जाय, शरीर रोगी हो जाय, उठ बैठ चल फिर न सके, खड़ा न हो सके, धार्मिक आयोजनों में परिश्रम न कर सके, नियंत्रण बन जाय तिस पर भी धर्मपालन इस शरीर की कमजोरी से भी नष्ट नहीं हो सकता। शरीर-शरीर की जगह है, आत्मा तो सदैव परिपूर्ण अपने स्वरूप को लिए हुए है। इस शरीर तक का भी कुछ भान न रहे, अपने आपके आत्मा के निकट बस लें तो इसमें कोई शरीर की ओर से रुकावट नहीं होती हैं। कैसा ही शरीर हो, रुग्ण हो, वृद्ध हो फिर भी आत्मा तो अपना बलिष्ठ है, शक्तिशाली है। आत्मा भावमात्र है। केवल ज्ञानप्रकाश का भाव बनाये रहना यही है आत्मबल। शरीर कैसी भी स्थिति में रहे, यह मैं आत्मा अपने आपकी दृष्टि में रह सके, केवल ज्ञानमात्र यह में अमूर्त निर्लेप सबसे न्यारा अपनी दृष्टि में रह सके तो धर्मपालन बराबर हो रहा है। जैसे कभी कोई काम न हो सका तो लोग कहते हैं कि इतना समय यों ही व्यर्थ गया अमुक लौकिक काम न हो सका। तो उससे कुछ व्यर्थता नहीं है किंतु अपने आपका यह धर्मपालन न हो सके तो समझ लीजिए कि सारी जिंदगी का समय व्यर्थ हो गया। जो समय बीता, बीता, अब रहे हुए समय को ठीक रख लीजिए। धर्मपालन के लिए उमंग बनायें। जैन शासन का सुयोग पाया और वस्तुतत्त्व का मर्म समझा तो अब इसी मर्म की प्रतीति में जुट जायें, जो निजस्वरूप ज्ञात हुआ है उसका दर्शन करके उसमें ही संतुष्ट हो जायें तो यह विनश्वर जीवन भी सफल हो जायगा।
शुद्ध ध्यान का प्रताप― यह ही आत्मा जब कर्मबंधन से विमुक्त हो जाता है तो यह परमात्मा हो जाता है। ये कर्म इस जीव प्रदेश में सघन होकर पड़े हुए हैं लेकिन एक वीतराग के ध्यान का ऐसा प्रताप है कि यह जीव प्रदेशों में बंधे हुए सघन कर्मों को भी क्षणमात्र में ध्वस्त कर देता है। यह शुद्धध्यान मोहनीय कर्म का अभाव होने से प्रकट होता है। जब तक रागद्वेष मोह का लगार है तब तक जीव आत्मध्यान से वंचित रहेगा। अपना उपयोग तो रागद्वेषमोहरहित एक इस निर्विकार ज्ञायकस्वरूप में जमाना है, उस ही काल में यह आत्मसमृद्धि प्रकट होने लगती है। शुक्लध्यान का घातक है मोहभाव। ये मोहभाव रत्नत्रय के अतिशय से दूर हो जाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिणाम से ये समस्त रागद्वेषमोह विघटित हो जाते हैं। अपना जो सहजस्वरूप है उसका सम्यक् प्रकार से दर्शन हो जाना सो सम्यग्दर्शन है। इस सम्यक्त्व के प्रताप से आत्मा में ऐसा उत्साह जगता है कि हे आत्मन् ! तुम स्वयं ही आनंदमय हो, फिर अपने में आनंद प्रकट करने के लिए किन्हीं भी बाह्य विषयों की प्रतीक्षा क्यों करते हों? विषयों की प्रतीक्षा से तेरे आनंद का घात होगा। हे आत्मन् ! तुम स्वयं ज्ञानघन हो। ज्ञान के सिवाय तुम और कुछ करते भी नहीं हो, भोगते भी नहीं हो, प्रत्येक परिस्थितियों में संसार अवस्था में भी केवल अपने ज्ञान को ही किया करते हो और ज्ञान को ही भोगा करते हो। यहाँ कोर्इ किसी का शरण नहीं है। तुम किसकी शरण गहना चाहते हो? अपना परम शरणभूत यह अंतस्तत्त्व है। वह तुम ही तो स्वयं हो, ऐसी आत्मा की दृष्टि होना, रुचि होना और ऐसा ही ज्ञान बनाये रहना जब यह आंतरिक तपश्चरण चलता है तो इस अंत:तपश्चरण के प्रभाव से मोह ध्वस्त हो जाता है और तब निर्दोष शुक्लध्यान प्रकट होता है। शुक्लध्यान के कारण रहे सहे दोष सब दूर हो जाते हैं। जब कर्मों का क्षय होने लगता है और आत्मा का प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रकट हो जाता है यही है परमात्मतत्त्व। यही है शिवतत्त्व। इसका ध्यान समस्त कर्मों से छुटकारा करा देता है।
सम्यक्त्ववैभवविकास का अवसर― यह सम्यक्त्व जैसा महान् वैभव इस जीव के तब प्रकट होता है जब आंतरिक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भी सुयोग्य बने हैं और बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भी अनुकूल होते हैं। उस काल में आत्मीय आनंद के प्रवाह से इस सम्यक्त्व की अनुभूति बनती है। बार-बार भावना करने का प्रभावआत्मा में भावना के अनुरूप होता है। जैसे कोई पुरुष अपने आपमें यह भाव बनाये, भ्रम बनाये कि मैं बीमार हूँ, रोगी हूँतो न भी कुछ बीमारी हो पर उसके बीमारी आ ही जाती है, और अगर अपने आपकी निरोगता का अनुभव करे, निरोगता की भावना भरे तो इस तरह की परिणति बनती है कि यदि कुछ बीमारी भी है तो वह भी खतम हो जाती है। कोई पुरुष अपने आपमें यह भावना भरे कि मैं मूर्ख हूँ, दीन हूँ, दूसरों से हीन हूँतो उसकी मूर्खता, दीनता, हीनता बढ़ती चली जायगी। न आत्मविश्वास, न आत्मबल रह सकेगा। जैसी जो भावना करता है उस भावना के अनुरूप उसकी प्रगति होती है। तब यह भावना करिये ना कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, केवल ज्योतिस्वरूप हूँ, अमूर्त हूँ, आनंदधाम हूँ, सबसे न्यारा हूँ, परिपूर्ण हूँ, ऐसी आत्मस्वरूप की बार-बार भावना बने तो निर्विकल्प अनुभूति के प्रकट होने की कमाई ही वास्तविक कमाई है, सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है। यों सर्व प्रयत्न करके आत्मस्वरूप की बार-बार भावना बनाकर अपने आपमें इस ज्ञानमात्र की अनुभूति प्राप्त कर लेना यही है धर्मपालन। इस धर्मपालन को दूसरा कोई रोक नहीं सकता। हम ही रोके, हम ही शिथिल हों, निरुत्सा ही प्रमादी हम ही रहें तो हम धर्मपालन से विमुख हो जाते हैं। हमारा कर्तव्य है कि सारभूत सर्वस्व इस अंतस्तत्त्व की भावना बनाकर इसके ही निकट बसकर अपने धर्म का पालन करें और इस दुर्लभ जैन शासन के समागम का सदुपयोग करें।
[ इसके बाद कुछ प्रवचन नोट नहीं हो सका ]