वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1055
From जैनकोष
अचिंत्यमस्य सामर्थ्यं प्रवक्तुं क: प्रभुर्भवेत्।
तच्च नानाविधध्यानपदवीमधितिष्ठति।।1055।।
आत्मा का अचिंत्य सामर्थ्य― इस आत्मा की शक्ति तो अचिंत्य है, इसके कहने के लिए कोई समर्थ नहीं हो सकता, लेकिन यह सब सामर्थ्य इस आत्मा के ध्यान के प्रताप से जिस पद में जितने रूप में आत्मा का ध्यान किया जा रहा हो उस पद में उतने रूप में इसके सामर्थ्य प्रकट हो जाती है। छोटे से मिस्मरेजम से लेकर बड़े-बड़े मंत्रवादियों के चमत्कारों तक व ऋद्धि प्राप्त होगी उन चमत्कारों तक और इतना ही नहीं, अनंतज्ञानियों के अनंत चमत्कारों तक भी जो कुछ सामर्थ्य है वह सब इस आत्मा का है। तू अन्य वस्तुओं का मूल्य अपने चित्त में मत रख। यह ही आत्मा स्वयं अपने आप प्रभु हैं, ऐसा अमूल्य है, ऐसा महत्त्वशाली है कि मेरे लिए इस मेरे अंतस्तत्त्व को छोड़कर अन्य कुछ नहीं है, कोई शरण नहीं है। अनादिकाल से अनंत भवों में खूब घूम घूमकर भी तो देख लिया होगा, बता क्या है तेरे पास? उन भवों की बात छोड दो, इस ही एक जीवन में कितने-कितने काम कर डाले, कितनों के संबंध बना डाला, कितनों के प्रीति बनायी, इन सब बातों के गुजर जाने के बाद आज अपने आपमें देखो क्या है? और कुछ कसर रह गयी हो तो कुछ जीवन अभी शेष है, उनमें जो धोखे होंगे उनसे भी समझ लिया जायगा आगे। अंत में क्या रहेगा, इसके पास क्या मिलेगा? उत्तर यह है केवल अपना आत्माराम। इसके सिवाय अन्य कुछ हाथ नहीं है और कुछ भी जो चमत्कार पहिले देखा, हुए या हैं दुनिया में, वे सब इस आत्माराम के हैं। इस मूल ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की ओर रुचि करें, उन चमत्कारों में रुचि न करें।