वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1058
From जैनकोष
अनादिकालसंभूतै: कलंकै: कश्मलीकृत:।
स्वेच्छयार्थान् समादत्ते स्वतोऽत्यंतविलक्षणां।।1058।।
मलिन जीव की स्वेच्छाचारिता― यह जीव अनादिकाल से उत्पन्न हो रहे कलंकों से मलिन हो गया है। इस जीव के साथ ये रागद्वेष मोह के कलंक अनादिकाल से लगे हुए हैं। यह पहिले शुद्ध हो और पीछे मलिन बन गया हो ऐसी बात नहीं है। यह परंपरा से ही अनादि से ही मलिन होता चला आ रहा है। यों कषायों से कलंकों से मलिन होता हुआ यह प्राणी अपनी इच्छावों से विषयों को ग्रहण करता है। जो विषय आत्मस्वरूप से अत्यंत विलक्षण है वे हैं चेतन और जिन विषयों को यह प्राणी ग्रहण करता है वे विषय हैंसब अचेतन। चेतन तो विषय इनका है ही नहीं कुछ। कदाचित् यह चैतन्यस्वरूप इनका विषय बन जायअर्थात ज्ञान का विषय बन जाय तो इसके सारे अचेतन विषय छूट जायेंगे। फिर विषयों का ग्रहण ही नहीं हो सकेगा। यह जीव जिन-जिन पदार्थों में सुख मानता हैवे सब पदार्थ अचेतन हैं। पुद्गल में यह अपना सुख ढूँढ़ता है। रसना का विषय है खट्टा मीठा आदिक, उन रसों के स्वाद में अपना सुख मानता है घ्राण इंद्रिय का विषय हैसुगंध दुर्गंध, उनमें यह जीव इष्ट अनिष्ट बुद्धि बनाये रहता है। नेत्रइंद्रिय का विषय हैरूप तो रूप के निरखने में यह सुख माना करता है। यों ही कर्णेंद्रिय का विषय है शब्द। रागपोषक मन: प्रिय शब्दों में यह इष्ट बुद्धि करता है। तो इसने जिन विषयों को भोगावे सब विषय अचेतन ही है और कभी मन के विषय को भी भोगता है तो वे मन के विषय भी अचेतन हैं। मन के विषय यश नामवरी ये ही तो होते हैं। तो यश भी चीज क्या है, नामवरी भी चीज क्या है। वे सब भी एक पौद्गलिक बातें हैं। इन मायामयी पुरुषों से मायामयी नाम को कहलवा लेना यह कितना मायारूप काम है। उससे इस आत्मा को कोई लाभ नहीं है। लेकिन ऐसे भौतिक मन के विषय से भी यह जीव कषाय कलंकों से मलिन होता हुआ राग कर रहा है।
प्रभु की प्रभुता व अपना नैकट्य― देखो भैया ! हममें और प्रभु में बहुत भेद भी है और कुछ भेद भी नहीं है। एक अपने आपके आत्मा का परिचय हो और आत्मा का नियंत्रण बन जाय, नियंत्रण लगातार आत्मध्यान की परंपरा बन जाय तो लो यह ही प्रभुता अब शीघ्र ही निकट है। अब भेद भी नहीं नजर आता।। यह सब अंतर लो शीघ्र ही मिटा दिया जाने वाला है और जब तक अपने आत्मा का परिचय नहीं हो पाता तो इसके लिए बड़ा पहाड़ है। प्रभु की प्रभुता में और खुद की स्थिति में बड़ा अंतर पडा हुआ है। यह आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है, ध्यान दीजिए। बाहर में कुछ इच्छा न कीजिए। क्योंकि ये सब मायामयी चीजें हैं, विनाशीक हैं, इच्छा भी असार वस्तु है और यह सारा लोक भी विनश्वर है, स्वप्नवत् है। यहाँ सार का कहीं नाम भी नहीं है। लोग कहते हैं कि संसार में सुख तो है तिल बराबर भी और दु:ख है पहाड़ बराबर। अरे जब आनंदधाम निज अंतस्तत्त्व की याद नहीं है तो सुख तिल भर भी नहीं है। जिसे ये सुख समझ रखा है वह सब भी दु:ख ही है, क्लेश ही है। सुख दु:ख और क्लेश इन तीन शब्दों के अर्थ जुदे-जुदे है। दु:ख तो वह है जहाँ इंद्रिय को बुरा लगे और सुख वह है जहाँ इंद्रिय को सुहावना लगे। मगर उन सुखों के काल में भी क्लेश ही चल रहा है। उन सुखों के भोगने के विचार में भी क्लेश ही चल रहा है। उन सुखों के भोगने के विचार में भी क्लेश है, उनके प्रारंभ में भी क्लेश है। सुख भोगने के काल में भी केवल क्लेश है। तो जैसे क्लेश दु:ख के प्रसंग में हुआ करते वैसे ही क्लेश सुख के प्रसंग में भी है, तो यह भी कहना कि सुख तिल बराबर है दु:ख पहाड़ बराबर है यह भी युक्त नहीं है किंतु समग्र दु:ख ही दु:ख है, क्लेश ही क्लेश है, आनंद का तो संसार भावों में नाम भी नहीं है, यह पुरुष अनादिकालीन परम् परा से चले आये हुए रागद्वेष मोह भाव कलंकों से मलिन होता हुआ अपनी इच्छा से मनचाहा जैसी चित्त में बात आयी विषय को पदार्थों को ग्रहण करता है, ऐसा वह दीन-हीन बन रहा है परंतु आत्मा का स्वरूप देखें, सामर्थ्य देखें तो यह सर्वज्ञता और पूर्ण निराकुलता का ही स्वरूप रख रहा है।