वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 106
From जैनकोष
परस्येव न जानाति विपत्ति स्वस्य मूढधी:।
वने सत्त्वसमाकीर्णे दह्यमाने तरुस्थवत्।।106।।
मूढ़ को स्वविपदा का अपरिचय― ये मोही प्राणी दूसरों की आपत्ति को तो खूब जानते हैं, लिखते हैं, देखते हैं, दूसरा मरे तो उसका बड़ा प्रयत्न रखते हैं, मरा ही करते हैं लोग, पर दूसरों की आपत्ति की तरह अपने आपकी आपत्ति का यह मूढ़ जीव ख्याल नहीं करता है। जैसे कोर्इ मूर्ख जंगल में गया और एक वृक्ष पर चढ़ गया, वृक्ष पर चढ़ा हुआ वह देख रहा है कि जंगल में चारों ओर आग लगी हुई है और उस आग लगी की स्थिति में यह भी दिख रहा है कि देखो यह खरगोश जला जा रहा है, यह सांप, यह हिरण, यह सिंह देखो ये कैसे जले जा रहे हैं? वृक्ष पर चढ़ा हुआ वह मूर्ख कौतूहल देख रहा है और यह ख्याल नहीं होता कि अभी कुछ ही देर में यह पेड़ भी तो जल जायेगा जिस पेड़ पर हम खड़े हुये हैं, हम कहाँ जायेंगे? क्या होगा? हम बचेंगे या न बचेंगे? इसका कुछ भी ख्याल नहीं होता।
उपदेश की सुकरता व पालन की दुष्करता― यह प्राणी दूसरों की आपत्ति को तो देख रहा है कि इन पर यह आपत्ति जाया करती है पर खुद की आपत्ति को नहीं देख रहा है। कुछ अनहोनी हो जाय दूसरों की तो उसका यह बड़ा ज्ञाता द्रष्टा बन जाता है। यह हो गया, होता ही है। दुनिया की रीति है। जो आया है वह जाता है। उसे उपदेश देने के लिये भी बड़ा पंडित बन जाता है, समझाता है। अरे तुम मूर्खता कर रहे हो तुम मोह कर रहे हो, अज्ञानी बन रहे हो। तुम्हें कहीं ऐसा शोक करना चाहिये, यों उपदेश दे डालता है, पर खुद पर उससे चौथाई भी आपदा आ जाय तो वह विह्वल हो जाता है। यह चतुर मनुष्य कथनी करता है खुद जब चैन में है। दूसरों के विषय में बड़े उपदेश झाड़ता है, समझाता है पर स्वयं में यह साहस बनाया ही नहीं कि ऐसी विपदा मुझ पर आये तो उस विपदा को समता से सहन कर लूँगा, उसमें खेदखिन्न न होऊँगा।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे― हिंदी उपदेश में कहा करते हैं― पर उपदेश कुशल बहुतेरे। दूसरों के उपदेश देने में कुशल बहुत से लोग हैं। किसी को सर्दी हो जाय, जुखाम हो जाय। कुछ बात हो जाय तो आपको सभी लोग वैद्य ही वैद्य दिखेंगे। कोर्इ कहेगा कि काली मिर्च का काढ़ा पी लो, कोई कहेगा कि एनासीन की गोली खा लो, कोई कुछ बतायेगा कोर्इ कुछ, पर ऐसा शायद ही कोई मिलेगा जो उसे न समझाये या उसकी दवा न जानता हो, ऐसे ही दूसरे जीवों पर किसी प्रकार की विपदा आ जाय तो उस विपदा में धैर्य देने के लिये भी सभी अपनी कुशलता बताते हैं पर उन वचनों का स्वयं पर कोई असर डाले, दृष्टि दे तो शून्य निकलता है करीब-करीब। सभी नहीं होते ऐसे। ज्ञानी ही, विवेकी ही ऐसे हुआ करते हैं।
उपदिष्ट नियम के पालन की दुष्करता पर एक दृष्टांत― दूसरों को समझाना दूसरों का कौतूहल देखना यह सब सुगम रहता है और अपने आप पर ज्ञान प्रयोग करना यह कठिन रहता है। इसी प्रयोग के लिये ज्ञानबल की अधिक जरूरत रहती है। एक कहावत ऐसी प्रसिद्ध है कि एक सभा में एक पंडित जी उपदेश दे रहे थे। बैंगन न खाना चाहिये, उसकी अनेक मोटी पर्त होती हैं, इससे उसमें कीड़े छिपे रहते हैं, बैंगन नाम इसी से है की वे बे गुन हैं अर्थात् उसमें कोई गुण नहीं है, इस प्रकार का उपदेश पंडित जी सभा में दे रहे थे। उनकी स्त्री भी यह उपदेश सुन रही थी। तो उपदेश समाप्त होने के बाद स्तुति पढ़ी जा रही थी तब उन पंडित जी की स्त्री जल्दी से घर गई और जो भटे का साग बनाया था उसे फैंक दिया नाली में, सोचा कि कहीं पंडित जी नाराज न हों। पंडित जी जब घर आये और खाने के लिये चौके में बैठे तो देखा कि कोई साग नहीं है। स्त्री से पूछा कि कोई साग नहीं बनाया? तो स्त्री बोली कि बैंगन का साग बनाया था। आपका उपदेश सुनकर मैंने उसे नाली में फैंक दिया, सोचा कहीं आप नाराज न हों। तो पंडित जी बोले― अरे वह उपदेश तो सभा में बोलने के लिये था, वह तो दूसरों के लिये था, जा नाली से साग ऊपर-ऊपर से बटोर ला। यह प्राणी दूसरों को तो खूब उपदेश दे लेता है, पर खुद पर नहीं घटित करता तो जैसे जंगल में पेड़ पर चढ़ा हुआ वह मुसाफिर कौतूहल देख रहा है पर खुद की कुछ खबर नहीं है, ऐसे ही ये संसार के प्राणी दूसरों के तो मरण को तो देख रहे हैं, पर खुद का भी एक दिन मरण होगा, इसका कुछ विचार नहीं करते। यही तो पर्यायबुद्धि का दोष है।