वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1062
From जैनकोष
वासनाजनितान्येवसुख-दु:खानि देहिनाम्।
अनिष्टमपि येनायमिष्टमित्यभिमन्यते।।1062।।
प्राणियों के सुख दु:ख की वासनाजनितता― जीवों को जितने भी सुख और दु:ख होते हैं वे अनादि अविद्या की वासना से उत्पन्न होते हैं, इस कारण यह आत्मा अनित्य को भी नित्य मानता है। क्या सुख है, क्या दु:ख है। सबमें शक्ति है, जो विषयों के सुख हैं उनमें भी क्लेश पडा है और जो शारीरिक या अन्य प्रकार के कष्ट हैं, दु:ख हैं उनमें भी क्लेश पडा हुआ है। सबके सब अनिष्ट हैं, आत्मा को लाभ करने वाले ये नहीं हैं। क्या हुआ, घर में रहे, अच्छा घर बना लिया, बाह्य साधन बना लिया, आराम भी करते हैं, समय पर सुख से भोजन भी करते हैं, कमाई भी खूब होती है, सब कुछ है, पर बुढ़ापा तो आयगी ही, अथवा मृत्यु तो आयगी, फिर क्या साथ रहेगा? जैसे कहते हैं चार दिनों की चाँदनी फिर अंधेरी रात। इससे आत्मा का स्थायी लाभ क्या हुआ? दिन हैं आये चले गए। न इस समय भी शांति है और न आगे भी शांति मिलेगी। इन सांसारिक सुखों में लीन होने से शांति का तो नाम है नहीं। सब वासना से ही सुख और दु:ख मालूम किये जाते हैं। आत्मा के पास तुरंत केवल एक शुद्ध स्वरूप का दर्शन रहे और उससे जो अपने आप आत्मीय आनंद प्रकट होता है बस वह भर बना रहे वह तो है सारभूत बात और बाकी सब औपाधिक समागम हैं, इस जीव के अहित के लिए ही हो रहे हैं। यह जीव अनिष्ट को भी इष्ट मानता है। जैसे बालक जलती हुई आग को सुहावना समझकर पकड़ लेते हैं और जल जाते हैं ऐसे ही ये समग्र समागम सुहावने लगते हैं, इन विषयों को यह जीव इष्ट मानकर अपनाता है, पर जैसे अग्नि को हाथ में लेने से हाथ जल जाता है इसी प्रकार इन विषयभूत पदार्थों को अपनाने से इष्ट मानने से क्लेश ही क्लेश होता है। किसी भी जीव की कथा सुनो, कोई मनुष्य अपने दु:ख की कथा कहे तो उसमें सिवाय इस बात के और कुछ न पायेंगे कि हमने अमुक पर पदार्थों में मोह बसा लिया है। बस इतना ही मात्र दु:ख है अन्य कुछ दु:ख नहीं। यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकर प्रभु क्यों समागम को त्यागते।
प्रभुभक्ति का लक्ष्य― हम प्रभु के दर्शन करें और प्रभु जिस मार्ग पर चले उस मार्ग की हम उपासना न करें तो प्रभु की भक्ति क्या हुई? प्रभुदर्शन करते समय में ज्ञान वैराग्य और त्याग इन तीन का महत्त्व समझें। आपने उत्कृष्ट ज्ञान पाया, सम्यग्ज्ञान बनाया, प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपने-अपने स्वरूप में है इस प्रकार की आपने दृढ़ दृष्टि की जिससे सम्यग्ज्ञान बना और इस तत्त्वज्ञान के कारण आपके वैराग्यभाव जगा, परपदार्थों से राग हटा। यह हित की चीज है सो प्रभु आपने की है। हम भी ज्ञान और वैराग्य का आदर करें, उसके प्रति हमारे चित्त में आस्था हो और उस पर चलने का यथाशक्ति प्रयत्न करें तो हे प्रभो मेरा भी कल्याण इसी पथ से होगा। प्रभु आपने सम्यग्ज्ञान पाया, वैराग्य पाया और त्याग किया। जिसके इंद्र देवेंद्र जैसे सेवक हो, जिनको मनमाना सब कुछ भोग सामग्री प्राप्त हों, महामंडलेश्वर राजा के पुत्र हों ऐसे उन तीर्थंकरों ने भी जब यह समझ लिया कि संसार का अणु मात्र भी आत्मा को हितरूप नहीं है तो उन्होंने इन समस्त परपदार्थों का त्याग किया। और, इतना सर्वदेश त्याग किया कि केवल शरीर-शरीर ही रह गया। वस्त्र आभूषण सेवक कुछ भी तो साथ नहीं रहे। जिनको अपने शुद्ध आत्मा का ध्यान करने की उमंग उठी हो वे यदि किसी भी परपदार्थ का परिग्रह रखें तो उस परिग्रह की वासना ध्यान में बाधा दिया करती है। यह तथ्य जानकर प्रभु ने अणुमात्र भी परिग्रह अपने पास नहीं रखा। और शरीर तो त्यागा नहीं जा सकता था वस्तु के व धन के मानिंद अतएव वह शरीर लगा हुआ है, लेकिन शरीर लगा हुआ होकर भी उनकी शरीर में भी ममत्वबुद्धि नहीं है कि यह शरीर मेरा कुछ है। वे प्रभु समस्त परिग्रहों से विरक्त होकर अपने स्वरूप को निहारते भये। उसके प्रताप से वे अनंत ज्ञान अनंत आनंद के ऐश्वर्य के स्वामी भी बन गए। प्रभु के दर्शन करने में बहुत बड़ा पवित्र संपर्क स्थापित होता है प्रभु के और भक्त के बीच।
प्रभुमार्ग का अनुसरण करने में प्रभुभक्ति की संपन्नता― प्रभुदर्शन कोई साधारण बात नहीं है। प्रभु और भक्त का संबंध बन रहा है, जो प्रभु में गुण हैं वैसे ही गुण चितारे जा सकते हैं और अपने आपमें निरखे जा रहे हैं तो अपने आपकी उन्नति का ही तो कारण है। हे प्रभु ! आपने सर्वप्रथम तत्त्वज्ञान उत्पन्न किया, उस तत्त्वज्ञान से समस्त विश्व का आपने राग छोड़ा, इंद्रियों पर विजय प्राप्त किया, मोह रागद्वेष को चकनाचूर किया। समग्र बाह्य पदार्थों का और विकारों का त्याग किया। आप ज्ञान वैराग्य और त्याग की साक्षात् मूर्ति हैं, यह प्रभु का स्वरूप हम आपको शांति के पद में ले जाने के लिए शिक्षा दे रहा हे कि हे भक्त तू क्यों परविषयों की आशा बनाकर अपने दिमाग में उलझन बनाये हुए है, उन समस्त पर विषयों की आशा को तज दे और अपने आपके विशुद्ध आनंद का अनुभव कर ले, यह शिक्षा प्रभु की मुद्रा देखने से हमें मिलती रहती है। प्रभु मुद्रा यह बतलाती है कि दु:ख का कहाँकाम है? देखो यह में ज्ञानमूर्ति आनंदधाम कैसा निराकुल बैठा हुआ हूँ। ऐसे ही पर की प्रीति तजकर निराकुल विश्राम से ऐसा बैठ जावो कि बाहर में कुछ करने का विकल्प न रहे तो तुम भी सुखी हो। भक्त के पूजन में ये ही भाव भरे जाते हैं, प्रभु के गुणों की महिमा बखानी जाती है और साथ ही साथ प्रभु की ही तरह अपनी महिमा का परिचय हो जाता है। जगत में जितने जो कुछ चमत्कार और आविष्कार देखे जाते हैं वह सब आत्मा की ही महिमा है। जो भी वैज्ञानिक हुए उनके ज्ञान की ही तो महिमा है। इस जीव ने अपने आत्मा की शक्ति को कुछ नहीं पहिचाना इस कारण बाह्य पदार्थों की आशा रखकर दीन बन रहा है। प्रभु पूजा में प्रभु का ध्यान अपनी आत्मशक्ति का परिचय कराता रहता है। ये बाहरी सुख-दु:ख तो केवल वासना से उत्पन्न हैं और इसी वासना के कारण यह प्राणी अनिष्ट पदार्थों को भी इष्ट मानता है। जैसे बच्चा साँप को भी खिलाने के लिए पकड़ ले तो वह डस लेता है ऐसे ही यह अज्ञानी इन विषयों को आनंद पाने के लिए पकड़ता है और यह व्यामोही आत्मा को पतित कर देता है। संसार में कौनसा पदार्थ सारभूत है पवित्र है।