वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1063
From जैनकोष
अविश्रांतमसौ जीवो यथा कामार्थलालस:।
विद्यतेत्र यदि स्वार्थे तथा किं न विमुच्यते।।1063।।
परमार्यस्वार्थीद्ममपरता में मुक्ति की सिद्ध की अवश्यंभाविता― यह जीव काम और अर्थ की लालसा रखकर विषय भोगों के और धन वैभव के संचय की वांछा रखकर जैसा अधिक परिश्रम करता है, यदि कुछ थोड़ा बहुत भी परिश्रम आत्मा के हित के लिए करे तो क्या कर्मों से छूट नहीं सकता? पद्म पुराण में बताया है कि राम रावण के युद्ध के प्रसंग में― जब रावण बहुरूपिणी विद्या साधने के लिए शांतिनाथ भगवान के मंदिर में ध्यान करने बैठ गया उस समय कुछ मन चले लोग रावण की विद्या साधना में बाधा देने लगे। रावण शांतचित्त होकर अपनी साधना में बना रहा। कवि उस प्रसंग में यह कहता है कि जैसे रावण ने बहुरूपिणी विद्या समृद्धि चाहने के लिए एकचित्त होकर ध्यान बनाया था ऐसा ध्यान यदि आत्महित के लिए बनता, मोक्षमार्ग के लिए बनता तो उसे मोक्ष पाना अति सुगम था। और अपने सबके जीवन में देख लो। घर गृहस्थी के काम के लिए यह जीव कितना कष्ट उठा सकता है, सारे कष्ट उठाने की हिम्मत रखता है। रात दिन जब कुछ लाभ जँचा तब ही कहीं चला जाय, बड़े-बड़े शारीरिक परिश्रम करे, बड़े-बड़े कष्ट सहे, दूसरों की बात भी सहे, धर्म धारण कर अनेकों कष्ट यह मनुष्य भोगता है, अपने घर के कामों के लिए अपने विषय साधनों के लिए, लेकिन धर्म मार्ग के लिए रंच कष्ट नहीं सहना चाहता। कितनी ही जगह कुछ लोग ऐसे होते हैं कि मंदिर में देव दर्शन करने तक का भी कष्ट नहीं सह सकते, पड़े लिखे हैं, जानकार हैं, कुछ धर्म की बात भी जानते हैं, पर घर में आदमी कितना कष्ट सह रहे हैं, कितना परिश्रम करते हैं, विपदायें सहते हैं, बातें सहते हैं पर वे विवश होकर सहनी पड़ती हैं, विषयों से प्रीति है उसके लिए सहनी पड़ती हैं। वे सह लेते हैं, पर धर्म के लिए ज्ञानार्जन के लिए कुछ कष्ट नहीं सह सकते। कष्ट क्या? केवल मन की बात।धर्म साधना करना, सत्संग में बैठना, इनमें क्या कष्ट है। मन नहीं लगता इसलिए कष्ट मालूम होता है। वह तो एक आनंद की चीज है।बड़े प्रसन्न होकर प्रभु के गीत गाये जा। संसार की असारता जानकर और प्रभु पद को ही सर्वोत्कृष्ट मानकर इस सार में दृष्टि लगायें जा वहाँ आनंद ही आनंद बरसता है, यदि चित्त लगे तो धर्म में बहुत आनंद प्राप्त होता है। जब चित्त नहीं लगता तो धर्म की बात बड़ी संकट सी लगती है। एक जगह बैठे रहना मुश्किल हो जाती है जब कि वहाँ कोई चित्त लगने का साधन न हो। हालांकि कष्ट कुछ नहीं है मगर चित्त लगे तब ना? चित्त जहाँलगा हुआ है उस पदार्थ की प्राप्ति के लिए सैकड़ों कष्ट सह सकते हैं। अनादिकाल से तो यह जीव खोटी-खोटी योनियों में उत्पन्न होकर दु:ख भोगता चला आया है, पशु पक्षी विकलत्रय कीड़ामकोड़ा आदि की पर्यायों में अनाप-सनाप समय गँवाया। केवल थोड़ी सी गलती के कारण इस संसार में अनादि काल से रुलता चला आया। वह गलती एक इस भव में न करे और अपने विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व के ध्यान के लिए अपना सर्वस्व लगा दे, इतना साहस इतनी बुद्धि इसमें उत्पन्न नहीं हुई, यह सब बड़े खेद की बात हैं। सबसे बड़ा कष्ट इस बात का मान लें कि मुझमें क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय के भाव उत्पन्न होते हैं।हूँ तो मैं विशाल समुद्र की तरह शांत और गंभीर, पर अशांति और अस्थिरता बन रही है वह सब कर्मों का फल है, उसे में भोग रहा हूँ, खेद इस बात का मानें, हानि इस बात की समझें। बाहरी वैभव की हानि को क्या हानि मानें? ये तो मुझसे पहिले ही भिन्न थे, अब और जुदे हो गए।
ज्ञान में प्रत्याख्यान की सिद्धि का उदाहरण―समयसार में एक दृष्टांत दिया है कि दो पड़ोसी थे उन्होंने अपनी-अपनी चद्दर एक धोबी के यहाँ धुलने को दी। दो दिन बाद एक पड़ोसी अपनी चद्दर लेने गया तो भूल में उस दूसरे की चद्दर धोबी से ले आया, और घर में चद्दर तानकर खूब सो गया। कुछ देर बाद में दूसरा पड़ोसी अपनी चद्दर लेने धोबी के घर पहुँचा। धोबी ने चद्दर उठाकर दी। उसने उस चद्दर में अपनी चद्दर के चिन्ह न पाये तो कहने लगा कि यह तो मेरी चद्दर नहीं है। धोबी ने कहा ओह ! मालूम होता है कि तुम्हारी चद्दर अमुक पड़ोसी के पास बदले में पहुँच गयी है। जब वह पड़ोसी के यहाँ अपनी चद्दर लेने पहुँचा तो देखा कि वह उसी चद्दर को ताने हुए खूब सो रहा था। उसने चद्दर का आँचल पकड़कर जगाया और कहा कि भाई जी यह चद्दर बदल गई है, तुम्हारी नहीं है, यह मेरी है। जब उसने ध्यान देकर देखा तो जान गया कि वास्तव में यह मेरी नहीं है। लो इतना जानते ही उसका उस चद्दर से मोह हट गया। भले ही अभी देने को इन्कार करे जब तक वह अपनी चद्दर न पा जाय, पर उसे उस चद्दर से मोह बिल्कुल नहीं रहा। और फिर दे भी दे, चाहे थोड़ाझगड़ा भी करे पर उसका उस चद्दर से मोह छूट गया। इसी तरह ये क्रोधादिक कषायें विषयों के भाव नानाप्रकार के विकार, इज्जत की चाह ये सब परभाव हैं। हमारे गुरुजन बारबार समझाते हैं कि भाई मोह भाव से उठो, ये रागादिक भाव तेरी चीज नहीं हैं, तू इन्हें क्यों अपनाकर सो रहा है? तू खूब अच्छी तरह पहिचान ले। तो बारबार समझाने पर यह ज्ञानी पुरुष अपने अंतरंग में निरखता है कि इन कषायों में मेरा कोई चिन्ह तो विदित होता नहीं। मैं हूँ ज्ञानस्वरूप और कषायें हैं अज्ञान। तैं हूँआनंद स्वरूप और कषायों में पडा हुआ है दु:ख। तो में इन कषायों रूप नहीं हूँ, ऐसा जब अपने को निरखता है और उन कषायों में अपने आपका चिन्ह नहीं पाता है तो देख लो ऐसा निरखने के साथ ही उन विकारों से इसका मोह तो मिट गया ना। भले ही इन परिस्थितियोंवश क्रोधादिक करने पड़रहे हों, मगर उन कषायों में अब आत्मीयता नहीं रही, उनको अपना नहीं मानता। तो जब यह जीव अपने आपके शुद्ध चमत्कार को जब पहिचान जाता है तब इसे अपने आत्मा का परिचय प्राप्त होता है, अपने आपको सामर्थ्य का अनुभव होने से इन विषयों की आशा नहीं जगती। आशा के ही वश यह जीव ठगाया गया।
आशावशता में ज्ञाननिधि का तिरस्कार― यद्यपि यह जीव सिद्ध प्रभु के समान है। अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत आनंद का स्वामी है लेकिन आशा के वश होकर इसने अपना ज्ञान खो दिया और भिखारी बना, अज्ञानी बना विषयों की आशा में रहकर यत्र-तत्र डोलता रहता है। अपने आपकी सामर्थ्य का परिचय होने से ये सब विडंबनाएँ दूर हो जाती हैं क्योंकि इस ज्ञान की परिस्थिति से समग्र परवस्तुवों की उपेक्षा हो जाती है और अपने आपके स्वरूप में रुचि जगती है। आत्मकल्याण के लिए यह आवश्यक कर्तव्य है कि हम अपने आपके स्वरूप का सच्चा ज्ञान करें और संतोष करें, अपने आपमें ही बसकर इस वैभव के पीछे न पड़ें। यह पुण्य पाप के अनुसार थोड़े से परिश्रम से बराबर हिसाब से आता रहता है। अब जितना आये जितना मिले उतने में ही अपने गुजारे का साधन बनायें और बाकी समय श्रम ज्ञान चित् एक शुद्ध ज्ञान के अनुभव के लिए जगायें। मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ ऐसा बार-बार अनुभव करें। शरीर जैसा है सो ठीक है, निरोग है, रोगी है, निर्बल है, सबल है, जो हो सो ठीक है। पर यह मैं आत्मा तो सदा शाश्वत ज्ञानरूप हूँ और आनंदस्वरूप हूँ, ऐसा ज्ञानानंदमात्र अपने आपका अनुभव करना यह ही अपने हित का उपाय है। यह मैं अपने आपके स्वरूप को भूलकर जब पर विषयों में प्रीति जगाता हूँतो वहाँ क्लेश उत्पन्न होता है। स्वरूप से देखो तो में आनंद का पूर्ण स्थान हूँ। इस प्रकार ध्यान के प्रकरण में आत्मा की सामर्थ्य का परिचय करना बहुत आवश्यक है।