वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1067
From जैनकोष
एतान्येवाहु: केचिच्य मन:स्थैर्याय शुद्धये।
तस्मिन् स्थिरीकृते साक्षात् स्वार्थसिद्धिर्ध्रुवं भवेत्।।1067।।
मन:स्थिरता के लिये योगांगों के निर्देशन का अभिमत― जो यम आदिक बताये गए हैं सो मन को स्थिर करने के लिए, मन की शुद्धता के लिए कहे हैं। मन के स्थिर होने से ही साक्षात् सिद्धि होती है। इनके मत से जो कुछ बने बन जाय, न बने न सही, केवल अंग एक ही है। मन में स्थिर कर लेना, इस प्रकार लोग अध्यात्मयोग की साधना में अनेक-अनेक उपाय बताते हैं। जैनशासन ने सर्वप्रथम ही यह बता दिया कि अध्यात्मयोग की साधना अथवा विशुद्ध ध्यान कहो उसके अंग ये तीन ही हैं:― सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इसका निरूपण बहुत विस्तार से इस ग्रंथ में पहिले किया गया है, जिसका भाव यह है कि अपने को सहज ज्ञानस्वरूप मानते रहें और ऐसी ही दृष्टि जगाना, ऐसा ही अपना उपयोग बनाना, उसमें ही चित्त को लीन करना, इसके लिए व्रततपश्चरण यम नियम एक स्थान पर रहना, आसन से रहना जो-जो भी योग हों वे सब किए जायें, पर मूल अंग तो यह रत्नमय ही है। यों रत्नमय की दृष्टि रखकर उसके लिए यत्न करते हुए जो मुमुक्षु बाहरी रागद्वेष के प्रपंचों में ही नहीं पड़ते हैं वे अपने आपमें अपने आपकी प्रभुता के दर्शन कर लें और नरजीवन पाने का एक यह ही सदुपयोग है कि हम अपने आत्मा का परिचय बनायें और इतना स्पष्ट निर्णय बनायें कि जब हम चाहे अनेक बार अपने आत्मस्वरूप की ओर आ सकें और इसके निकट बसकर प्रसन्नता से समय बिता सकें।