वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1072
From जैनकोष
कलंकविलय: साक्षान्मन:शुद्धयैव देहिनाम्।
तस्तिन्नपि समीभूते स्वार्थसिद्धिसदाहृता।।1072।।
मन शुद्धि से कलंकविलय― मन शुद्ध हो तो कलंकों का साक्षात् विलय हो जाता है और जीवों का उनका स्वभाव स्वरूप होने से उनके प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है। देखिये मन को गंदा रखने से किसी दूसरे मनुष्य के प्रति ईर्ष्याभाव रखने से, किसी से विरोध रखने से, किसी पाप में अपना चित्त बसाने से मन की अपवित्रता से तो कलंकों की वृद्धि होती है और इस जीव को नफा भी कुछ नहीं होता। जितना स्वच्छ चित्त रहने से मायाचार न करने से, लोगों के प्रति सीधा सत्यसद्व्यवहार रखने से जो इसका जीवन सुखमय व्यतीत होता है वह मायाचार आदिक से तो नहीं हो सकता। प्रथम तो तृष्णा मायाचार आदिक पाप के भावों से खुद ही अप्रसन्न हो जायगा, मलिन बन जायगा, स्वयं ही आत्मा का अनुभव करेगा और फिर भाव जो लोकव्यवहार में बनेगा उससे लोग खिलाफ होंगे और वे अपनी लाठी जुदी बरसायेंगे। तो मन की अपवित्रता से न इस लोक में साधन ठीक बनते हैं और नपरलोक की सिद्धि होती है। इस कारण यह जानकर कि संसार का समस्त समागम असार है, विनाशीक है, मेरे आत्मा से कुछ संबंध नहीं है। आत्मा स्वयं परिपूर्ण एक पदार्थ है। मेरा कर्ता, कर्म, क्रिया प्रयोजन सब कुछ अपने आपमें हैं। जब किसी भी पदार्थ का मुझसे कोई संबंध नहीं है तो किसी भी विषय पदार्थ के संचय करने में अपना चित्त क्यों लगाऊँ, क्यों भ्रांत करूँ, इससे उपेक्षा रखकर आनंद के भंडार स्वयं ज्ञानस्वरूप को ही निहारूँ और अपने में अपने लिए अपने आप स्वयं सुखी होऊँ, ऐसी भावना ज्ञानी के है। मन की शुद्धता होने से साक्षात् विकारों का, कलंकों का, कर्मों का विलय हो जाता है और जो शुद्ध मन से रहता है उसके अपने प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि जब मन रागद्वेष रूप नहीं प्रवर्तता है तो वह अपने स्वरूप में लीन हो जाता है। यह आत्मा अपने स्वरूप में लीन हो जाय, मन का विलय हो जाय इससे बढ़कर और समृद्धि क्या है दुनिया में? क्योंकि इस ज्ञानानुभूति के समय में इसे शुद्ध निराकुल आत्मीय उत्कृष्ट पद की प्राप्ति हो जाती है, यह शांत और आनंदमय हो जाता है। अब तत्त्वज्ञान का उपाय बनायें और अपने आपके लीन होने का यत्न करें।