वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1084
From जैनकोष
चित्तशुद्धिमनासाद्य मोक्तुं य: सम्यगिच्छति।
मृगतृष्णातरांगण्यां स विबत्यंबु केवलम्।।1084।।
चित्तशुद्धि के बिना मुक्ति की असंभवता― जो पुरुष मन की शुद्धता तो पा न सके और मुक्त होने की चाह रखता है उसका यह करतब यों है जैसे कि कोई मृगतृष्णा की नदी में जल पीना चाहता हो, मृगतृष्णा एक जल की तरह चमकने वाली रेत का नाम है। रेगिस्तान में दूर की रेत यों चमकती है जैसे पानी भरा हो और वहाँ पानी पीने की चाह से कोई हिरण दौड़ता है, पर ज्यों निकट पहुँचा, कुछ गर्दन उठाया तो पानी उतना का ही उतना दूर मालूम होता है। आगे की रेत पानी जैसी मालूम होती है। तब यह और आगे बढ़ता है। इस तरह पानी की आशा से आगे बढ़ता जाता है, वह पानी है आगे पीना है, यों पानी की तृष्णा रखकर बढ़ता चला जाता है। परिणाम यह होता है कि एक तो प्यासा था ही, दूसरे प्यास मिटाने के लिए जो उसने श्रम किया उससे और अधिक थक गया, प्यास और बढ़ गई और अपने प्राण गँवा देता है। ऐसे ही इस तृष्णावी मनुष्य की हालत हो रही है, जो विषय प्राप्त किया है वे तो पा ही लिया है, उनमें वह मुख तो देख नहीं रहा। तो बड़े विषय नहीं पाये हैं, ऐसे जो बाहर के साधन हैं उनमें आशा लगाये है कि सुख इसमें होगा। पर वहाँ निकट पहुँच जाय, वहाँ भी सुख नहीं मालूम होता। तब फिर और बाहर के विषयसाधनों में सुख की आशा रखते हैं, यों आशा-आशा में ही सारी जिंदगी दौड़ लगा-लगाकर अपने को थकाकर शिथिल कर लेते हैं, अंत में मरण होता है। मरण के बाद इसके साथ अन्य कुछ नहीं जा सकता। केवल जो पाप कमाया, वासना बनाया वह साथ जाती है। इस संसार में रहना एक बहुत टेढ़ी सी खीर है, एक बड़ी विकट समस्या है, क्योंकि जहाँ जाय वहाँ विश्राम नहीं, और मोह ऐसा लगा है कि बाह्य पदार्थों में घमंड जाये बिना यह चैन नहीं मालूम करता। सो जहाँ-जहाँजाता है, जिन-जिनके निकट जाकर प्रीति करता है वहीं-वहीं से इसे धोखा मिलता है। कदाचित् थोड़ी देर के लिए राग में यह मान लिया जाय कि देखो मैं स्त्री पुत्रों के निकट गया तो वहाँ से सुख तो मिला। केवल एक कल्पना बना ली कि हम बड़े चतुर हैं और बड़े भाग्यशाली हैं। जगत में जितना भी पदार्थों का संयोग है वह नियम से दूर होगा और जब तक लगा भी है संयोग तब तक भी कोई पदार्थ चाहे चेतन हो या अचेतन हो, मेरे लिए कुछ नहीं करता। सभी जीव जो कुछ क्रिया करते हैं वे सब अपने खुद के लिए करते हैं। जिसमें उन्होंने विश्राम समझा, मोह समझा उन चेष्टावों को वे किया करते हैं। मेरे लिए कोई कुछ नहीं करता। यों जब भेदविज्ञान जगे सबका काम उनका उनमें ही, उनके द्वारा ही उनके ही लिए उनसे ही देखा करें कि समस्त पदार्थों के स्वरूप को केवल उसमें ही निहारा करें तो इस जीव का मोह टूटेगा और मोह मिटा कि आत्मा को शांति का रास्ता खुल गया। जब तक मोह है तब तक प्रभु के दर्शन भी नहीं हो सकते, शांति पर तो चलेगा ही क्या? इन सब समृद्धियों को पाने के लिए हम आपका कर्तव्य है कि हम मन की पवित्रता बनायें। मन की पवित्रता यही है कि मन में किसी भी जीव के प्रति विरोध और दु:ख की बात न सोचें। कोई विरोधी भी हो तो मेरा भाव मेरा साथी है, उसका फल वह पायगा। में अपने मन में किसी भी जीव के प्रति विरोध क्यों रखूँ, ऐसा निर्विरोध मन बनायें तो वह है मन की शुद्धि। मन की शुद्धि से ही ध्यान की सिद्धि होती है।